Sunday, August 23, 2020

खेल विधि Play Way Methods



सर्वप्रथम इंग्लैंड के गणित शिक्षक हेनरी कोल्ड वेल्ड कुक  ने कहा था खेल एकमात्र ऐसा कार्य है जिसको बालक पूरे मन से करता है ।

इनके इसी विचार के कारण विभिन्न प्रकार की खेल विधियों का जन्म हुआ।

 खेल विधि के वास्तविक जनक एचसी कुक ।

वर्तमान समय में कई खेल विद्या प्रचलित है ।

किंडर गार्डन विधि/ बालवाड़ी विद्यालय विधि:- 

 फ्राबैल महोदय जर्मनी 1837 -

किंडर गार्डन एक जर्मन शब्द है जिसका अर्थ होता है बाल उद्यान ।

1839 में स्कूल का नाम रखा गया ।

इसमें शिक्षण दो पारियों में कराया जाता है।

पहली पारी में शिक्षण कराया जाता है तथा दूसरी पारी में गीत-संगीत खेल की शिक्षा दी जाती है।

 इस विधि में तीन सिद्धांत हैं :- 

1स्वागति का सिद्धांत

2  खेल खेल में सीखने का सिद्धांत

 3 एकता का सिद्धांत  

पेस्टालोजी के शिष्य फ्राबैल  ने 19वीं सदी के मध्य में किंडर गार्डन प्रणाली का विकास किया जो एक प्रकार से विद्यालय प्रणाली है ।

इनके अनुसार जो बालक विद्यालय में पढ़ने आता है वह एक पौधे के एवं पढ़ाने वाला शिक्षक माली के समान होता है तथा विद्यालय एक बगीचा है ।

जिस प्रकार से एक माली बगीचे में पौधे की परवरिश करता है ठीक उसी प्रकार से शिक्षक को बालकों की परवरिश  करनी चाहिए।

यह विधि 4 से 8 वर्ष के बालकों के लिए उपयोगी है।

 इस विधि में 20 उपहारों का प्रयोग किया गया था।

पद्धतियाँ:-

 अ) प्रथम क्रिया:- इसमे विविध उपहारों का उपयोग होता है इसमें साधनों के दो प्रकार होते हैं 1 भौमितिक आकृतियां तथा दूसरा चित्र, रेखा, रंग भरना ,सिलाई इत्यादि क्रियाओं के लिए आवश्यक वस्तु समूह ।

 पहले प्रकार के साधनों को उपहार तथा दूसरे प्रकार के साधनों को व्यवसाय कहा जाता है।

 पहले उपहार में छह रंगीन मृदु केंद्र होती हैं तथा दूसरों को बाहर में एक घन आकृति एक लंबे गोल सा एक घनघोर रहता है ।

ब) दूसरी क्रिया प्रणाली :- इसमें गीतों का गायन किया जाता है।

C) तीसरी क्रिया:- इसमें क्रीडा व्रत में खेलने के अनेक खेल रहते हैं।

किंडर गार्डन की विशेषताएं:- 

 उपहार 

व्यवसाय

 क्रीडा व्रत के खेल

 खेल संगीत 

महिला शिक्षिकाएं 

पाठ्यक्रम :- पूर्ण बुनियादी शालाओं का पाठ्यक्रम व्यक्तिगत तथा सामाजिक स्वच्छता आहार एवं पानी आदि विषयों पर आधारित होता है ।

इसके अतिरिक्त जीवन से संबंधित अंकगणित तथा जीवन व्यवहार से संबंधित भाषा शिक्षण होता है

सहायक सामग्री का सर्वप्रथम प्रयोग इसी विधि में किया गया था ।

दृश्य श्रव्य साधनों का प्रयोग शिक्षण में पावलाव के अधिगम सिद्धांत पर आधारित है।

इस विधि में बालकों को छोटे-छोटे बाल गीतों का खेल खेल में शिक्षा दी जाती है।

प्राथमिक स्तर पर उपयुक्त है।

किंडर - पौधे - बालक ।

गार्टन  - बगीचा-  विद्यालय ।

माली - शिक्षक ।

इसमें शिक्षक पथ प्रदर्शक का कार्य करता है।





डाल्टन विधि 

प्रवर्तक हेलन पार्कहर्स्ट   निवासी डोल्टन  नगर अमेरिका(1913) 

 कक्षा के स्थान पर प्रयोगशाला।

माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक स्तर पर उपयोगी ।एकमात्र विधि जिसका नाम किसी नगर के ऊपर रखा गया हो  ।

इस विधि में एक विशेष प्रकार के विद्यालय की स्थापना की जाती है जिसमें बिना किसी समय सारणी के तथा बिना निर्धारित नियमों के बालकों को उनकी स्वतंत्रता के अनुसार खेल खेल में पढ़ाया जाता है।

 बालक पूर्ण स्वतंत्रता के साथ अध्ययन करता है ।

पाठ को कई इकाइयों में विभक्त किया जाता है ।

बच्चे इस कार्य को 1 दिन में पूरा करें या महीने में करें यह उनके ऊपर निर्भर करता है ।

सप्ताह के कार्य को असाइनमेंट कहते हैं इस विधि में गृह कार्य नहीं दिया जाता 



ड्रेकाली विधि:- प्रवर्तक ड्रेकाली ।

मानसिक रोग से  ग्रसित बालकों के लिए उपयोगी।

 उम्र 4 से 19 वर्ष के बालकों के लिए ।

भाषा की शिक्षा सुबह  तथा गीत व संगीत की शिक्षा शाम को दी जाती है। इस विधि में पाठशाला का वातावरण प्राकृतिक होता है बालक स्वयं भाषा पाठ्यक्रम का केंद्र होता है


 खेल विधि के गुण :- 

  • मनोवैज्ञानिक विधि ।
  • प्राथमिक स्तर के लिए रुचिकर विधि ।
  • स्थाई ज्ञान पैदा करती है ।
  • सहयोग की भावना का विकास करती है 
  • तर्क में चिंतन का विकास करती है
  •  प्रतिस्पर्धा का विकास करती है

 खेल विधि के दोष  :- 

  • समय व धन अधिक खर्च होता है।
  • संसाधनों की कमी होती है।
  •  दुर्घटना होने का भय होता है।
  •  बालकों में शीघ्रता से थकान आ जाती है।
  •  सामान्यतः विद्यालय वातावरण  में उपयोग संभव नहीं है

हर्बर्टीय पंचपदीय प्रणाली

हर्बर्टीय विधि / हर्बर्ट की पंचपदीय प्रणाली :- trick - प्र प्र तु सा प्र 

  1. हरबर्ट की पाठ योजना प्राचीनतम पाठ योजनाओं में से एक है ।
  2. इस पाठ योजना के जन्मदाता प्रसिद्ध  शिक्षा शास्त्री हरबर्ट है।
  3. प्रोफेसर हरबर्ट की अधिगम के संबंध में यह धारणा है कि प्रत्येक छात्र बाहर से मिलने वाले ज्ञान को संचित करता रहता है।
  4.  यदि नवीन ज्ञान को छोटे-छोटे सोपानों में बांटकर उसे पूर्व संचित ज्ञान से संबंधित करके पढ़ाया जाए तो छात्र उसे अधिक शीघ्रता व सुगमता से ग्रहण करता है।
  5.  हरबर्ट पाठ योजना में स्मृति स्तर पर सीखने को अधिक प्रभावशाली माना जाता है।
  6. यह पाठ योजना विषय वस्तु केंद्रित है इसमें पाठ को छात्रों के सम्मुख प्रस्तुतीकरण को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है और उस पर अधिक बल दिया जाता है।
  7. छात्रों की आवश्यकता और रुचियों, मूल्यों आदि को इसमें अधिक स्थान नहीं दिया जाता।
  8. हरबर्ट ने कक्षा शिक्षण के लिए सर्वप्रथम नियमों का प्रतिपादन किया।


  • स्पष्टता :-  विद्यार्थी के समक्ष प्रस्तुत करना ।
  • संबंध:-  प्रस्तुत किए गए जाने वाले तथ्यों या नवीन ज्ञान को बालक के पूर्व ज्ञान से संबंध करना।
  •  व्यवस्था :- बालक के समक्ष प्रस्तुत किए जाने वाले तथ्यों का नवीन ज्ञान को व्यवस्थित रूप देना 
  • विधि  :- 

हरबर्ट ने उपयुक्त चार सोपानों की विवेचना की  जिसे उसके अनुयायियों ने अधिक स्पष्ट व महत्वपूर्ण बनाने का प्रयास किया है।

उसके शिष्य जिलर ने सर्वप्रथम स्पष्टता को दो भागों में विभक्त किया 

1 - प्रस्तावना और 2 - प्रस्तुतीकरण ।

हरबर्ट के एक अन्य शिष्य राइन ने इनमें एक उप कथन और जोड़ा वह था - उद्देश्य ।

इस परिवर्तन के बाद प्रथम दो पद इस प्रकार हो गए

 1 प्रस्तावना और उद्देश्य कथन ।

2 प्रस्तुतीकरण ।

इसके बाद हर्बर्ट के अनुयायियों ने हर्बर्ट के शेष तीन पदों के नामों में भी इस प्रकार परिवर्तन  कर दिए।

संबंध= तुलना।

व्यवस्था = सामान्यीकरण ।

 विधि = प्रयोग।

 इस प्रकार हरवर्ट के शिक्षण पद अंतिम रूप से इस प्रकार हैं।

(प्र प्र तु सा प्र  शॉर्ट trick )

1 (अ)प्रस्तावना (ब)उद्देश्य कथन ।

2 प्रस्तुतीकरण।

3 तुलना ।

4 सामान्यीकरण।

5 प्रयोग ।

प्रस्तावना :- वर्तमान पाठ को पढ़ाने के लिए छात्र को मानसिक तैयार करना इस चरण के अंतर्गत है।

प्रस्तावना में अध्यापक दो या तीन प्रश्नों के द्वारा छात्रों से उत्तर लेकर यह निकलवाने का प्रयास करता है कि आज कक्षा में उसे क्या पढ़ाया जाने वाला है।

 प्रसंग का ज्ञान कराकर वस्तुतः छात्र के पूर्व ज्ञान को नवीन ज्ञान से संबंध करने का प्रयास प्रस्तावना में किया जाता है। पाठ की सफलता बहुत हद तक एक अच्छी प्रस्तावना पर निर्भर करती है ।




प्रस्तुतीकरण :- संपूर्ण पाठ को दो या तीन खंडों में विभक्त कर छात्रों के सम्मुख इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है जिससे समग्र पाठ्य सामग्री उनकी समझ में आ जाए इसे पाठ का प्रस्तुतीकरण भी कह सकते हैं ।

इसके अन्तर्गत शिक्षक  द्वारा किया गया आदर्श वाचन छात्रों का अनुकरण वाचन काठिन्य निवारण एवं केंद्रीय बोध के प्रश्न प्रस्तुत किए जाते हैं ।


तुलना :- छात्रों के पूर्व संचित ज्ञान एवं वर्तमान नवीन ज्ञान की तुलना की जाती है तथा अन्य विषयों के ज्ञान का स्थानांतरण भी किया जाता है ।

भाषा शिक्षण में आने वाली कठिनाइयों का निवारण व्याख्या शंका समाधान आदि की अपेक्षा छात्रों को शिक्षक से रहती है योग्य शिक्षक उपयुक्त उदाहरणों दृष्टांतों से विषय को सरल सुबोध बनाकर प्रस्तुत करता है।








सामान्यीकरण  :-   विद्यार्थी संचित ज्ञान के आधार पर सामान्य बातों को समझ कर उसका सामान्यीकरण करते हैं।

 गद्य शिक्षण में इस स्तर पर पुनरावृति के प्रश्न जबकि कविता शिक्षण में भाव साम्य की कविता देकर सामान्यीकरण किया जाता है । 

अपने पूर्व संचित ज्ञान की प्रस्तुत पाठ से तुलना कर विद्यार्थी सर्वमान्य सिद्धांतों का पता लगाते हैं ।

व्याकरण के पाठों  में सामान्यीकरण विशेष लाभदाई होता है।




 प्रयोग :-  सीखे हुए नवीन ज्ञान से निर्मित सामान्य नियम बनाकर विद्यार्थियों से उनका प्रयोग भी कराया जाता है ।

इसके लिए विद्यार्थियों को कक्षा कार्य या गृह कार्य लिखित रूप में करके लाने को कहा जाता है । पढ़ाई गए विषय को विद्यार्थियों ने किस सीमा तक समझा है इसका मूल्यांकन भी सोपान में किया जाता है ।

हर गतिविधि मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है इससे शिक्षण में क्रमबद्ध रहती है ।

यह सोपान अत्यंत लाभप्रद होते हैं विज्ञान शिक्षण के लिए उपयोगी नहीं है ।

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भाषा प्रयोगशाला विधि


क्रेडिट फॉर 

Photo: Bundesarchiv, Bild 183-P0422-0004 / CC-BY-SA

Thanks 


कक्षा अध्यापन का पूरक ही भाषा प्रयोगशाला है ।

भाषा रिकॉर्डिंग अधिक स्वाभाविक वातावरण की सृष्टि करता है ।

भाषा शिक्षण में प्रारंभ में पढ़ने लिखने के स्थान पर सुनने बोलने पर बल दिया जाता है । 

भाषा में तीव्रता से गति आती है।

 सभी पक्षों पर सामान बल दिया जाना चाहिए।

प्रोफेसर एडमिन पेकर के अनुसार:-  भाषा प्रयोगशाला वैद्युतिकीय साज सज्जा से युक्त एक शिक्षण कक्ष होता है जिसका उपयोग भाषाओं में समूह शिक्षण के लिए किया जाता है।

 भाषा प्रयोगशाला की उपयोगिता भाषा प्रयोगशाला में कक्षा में पढ़ाई गई पाठ सामग्री का अभ्यास कराया जाता है ।

पाठ्य सामग्री को दोहराने का अवसर प्राप्त होता है।

अपनी अपनी गति से विद्यार्थी अभ्यास करता है ।

शिक्षक व्यक्तिगत ध्यान दे सकता है ।

तत्काल अशुद्धि ठीक करने की सुविधा भाषा प्रयोगशाला में अधिक संभव है ।

पुनर्बलन प्राप्त होता है और आत्मविश्वास बढ़ता है और कक्षा में  दुहराने में जो समय लगता है उस की बचत होती है ।

भाषा प्रयोगशाला के प्रकार :- 

भाषा प्रयोगशाला कई प्रकार की हो सकती है।

1  तार की दृष्टि से :- 

तार युक्त प्रयोगशाला :- विद्यार्थी को निश्चित स्थान पर बैठना पड़ता है ।

तार मुक्त प्रयोगशाला :-  समस्त व्यवस्था का तार मुक्त होने के कारण बैटरी चालित व रिसीवर होने के कारण विद्यार्थी बूथ को कहीं भी उठाया वह रखा जा सकता है।

 काफी सरल व कम खर्चीली है ।


2 प्रोग्राम की दृष्टि से:- 

प्रोग्राम से तात्पर्य उस पाठ्य सामग्री से है जो शिक्षक प्रसारित करता है । एक साथ एकाधिक प्रोग्राम प्रसारित किए जा सकते हैं । 1 से 4 तक ।

3 विद्यार्थी की क्रियाशीलता की दृष्टि से :- 

क्रिया हीन  प्रयोगशाला:- इसमें विद्यार्थी के पास ना कोई माइक होता है ना कोई टेप रिकॉर्डर।

दूसरी ओर शिक्षक कंसोल से सेवाएं प्रसारण के कुछ नहीं कर सकता।

जिसके फलस्वरूप शिक्षक विद्यार्थी कोई बातचीत नहीं कर सकता।

ओडियो एक्टिव प्रयोगशाला:-  इस प्रकार की प्रयोगशाला में विद्यार्थी हैंडसेट की सहायता से प्रसारित पाठकों को तो सुन ही सकता है पर साथ ही  माइक के माध्यम से दोहराए गए पाठ को स्वयं भी सुन सकता है और अध्यापक के पास तक भी भेज सकता है ।

विद्यार्थी के पास अपना टेप रिकॉर्डर नहीं होता जिससे वह मास्टर टेप के पाठ को और अपने उच्चारण को टेप कर  सके।  इसको ही ब्रॉडकास्ट प्रयोगशाला भी कहते हैं।

श्रव्य क्रियाशील मिलान (ओडियो एक्टिव कम्पेयर ) :- विद्यार्थी मास्टर टैब को सुन सकता है दोहराता है और रिकॉर्ड भी करता है।

 यह सबसे अधिक सुविधाजनक है ।

भारतीय भाषा संस्थान मैसूर तथा इसके विभिन्न केंद्र मैसूर ,भुवनेश्वर, पटियाला, केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा ,लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकैडमी मसूरी आदि स्थानों पर इस प्रकार की ही प्रयोगशाला है ।

इसको पुस्तकालय प्रयोगशाला भी कहते हैं ।इसका आधुनिक रूप डायल प्रयोगशाला है।

 दूरस्थ नियंत्रण रिमोट कंट्रोल भी संभव है।

 स्थान के अनुसार 8,16 ,32,40 बूथ लगाए जा सकते हैं शिक्षक को अनेक सुविधाएं प्राप्त है ।टेप रिकॉर्डर से पाठ प्रसारित करना, माइक से प्रसारण, हैंडसेट का उपयोग। इस प्रकार शिक्षक  पाठ प्रसारित करने में ही सक्षम नहीं वरन  पूरा पूरा नियंत्रण रख सकता है।


Saturday, August 22, 2020

ध्वन्यात्मक विधि और भाषा संसर्ग विधि

ध्वन्यात्मक विधि :- 

प्रवर्तक :- माइकल सेमर (1935) ।

प्राथमिक अवस्था में इस विधि का प्रयोग किया जाता है।

इस विधि में बालकों के सामने समान ध्वनि वाले शब्द लिखने का अवसर दिया जाता है जिससे बालक कम समय में बहुत सारे शब्द आसानी से सीख लेता है ।

जैसे :- नल चल कल , नाम धाम काम पाम ।

भाषा शिक्षण के दौरान जब भक्ति कालीन कवियों की कविताओं को पढ़ाते हैं तो इस विधि का उपयोग किया जाता है क्योंकि उन कविताओं में प्रथम व द्वितीय पंक्तियों के अंतिम ध्वनि समान रूप से उच्चारित होती है ।

इस विधि का प्रयोग उच्चारण कौशल के विकास के लिए किया जाता है।

अंग्रेजी भाषा के उच्चारण के लिए इस विधि का प्रयोग किया गया था।

इस विधि में शब्दों वाक्य खंडों और वाक्यों की ध्वनियों पर अधिक ध्यान दिया जाता है।

इस विधि में ध्वनियों का , उनके उच्चारण तथा अक्षर विन्यास का भी अभ्यास हो जाता है ।

यह विधि संश्लेषणात्मक कहलायी जाती है क्योंकि इनमें अक्षर से प्रारंभ करते हैं और अक्षरों के जोड़ या संश्लेषण से शब्द बनाते हैं।


भाषा संसर्ग विधि :- 

 प्राथमिक कक्षाओं में व्याकरण पढ़ाने की यही प्रणाली लाभदायक है ।

इस प्रणाली में व्याकरण के नियमों का ज्ञान कराए बिना भाषा के स्वरूप का अनुकरण करने का अवसर प्रदान कर छात्रों को भाषा के शब्द रूप का प्रयोग करना सिखाया जाता है ।

इसके द्वारा प्रारंभिक कक्षाओं में रचना तथा अभ्यास द्वारा भाषा का शुद्ध  प्रयोग कराया जाता है।

प्राथमिक स्तर पर बच्चों को व्यावहारिक व्याकरण का ज्ञान देने के लिए यह विधि उपयोगी है।

भाषा संसर्ग विधि के दोष:- 

व्याकरण के नियमों का ज्ञान नहीं हो पाता ।

समय अधिक खर्च होता है।

व्याकरण का सैद्धांतिक ज्ञान नहीं दिया जाता (भण्डारकर विधि द्वारा दिया जाता है।)

यह मनोवैज्ञानिक अवश्य है क्योंकि विद्यार्थियों को बुद्धि और तर्क से काम लेना पड़ता है ।

भाषा की शिक्षा दी जा सकती है व्याकरण कि नहीं ।

भाषा शिक्षण की विधि कही जा सकती है व्याकरण शिक्षण की नहीं ।

व्याकरण के नियमों का व्यवस्थित ज्ञान भी नहीं हो पाता।





द्विभाषी विधि और सैनिक विधि

 द्विभाषी विधि और सैनिक विधि :-

Creadit For BY 

JAMES LANE





द्विभाषी विधि:-  प्रवर्तक डोडसन ।

H.N. शास्त्री के अनुसार :- "द्विभाषी विधि को व्याकरण अनुवाद विधि व प्रत्यक्ष विधि के मध्य का सेतु कहा जाता है।"

द्विभाषी विधि अंग्रेजी फ्रेंच रूसी आदि विदेशी भाषाएं पढ़ाने के काम में ली जाती है।

बालक मातृभाषा प्रत्यक्षीकरण के साथ सीखता है।

इसमें प्रत्येक शब्द को अनुदित नहीं किया जाता ।

हिंदी में इसी के समान एक दूसरी विधि अनुवाद विधि है।

द्विभाषी विधि में केवल मातृ भाषा के शब्दों का तथा अनुवाद विधि में पूरा का पूरा अनुवाद करके शिक्षण किया जाता है।

यह एक ऐसी प्रकार की विधि है जिसमें 2 भाषाओं के शब्दों को एक साथ जोड़ कर वाक्य बनाए जाते हैं और दो तीन बार इस व्यवहार को अपनाने से बालक नवीन भाषा में पूरा वाक्य बोल लेता है ।

जैसे :- लो आम -  लो मैंगो -  टेक आम- टेक मैंगो।

वर्तमान समय में इस विधि का वास्तविक रूप में प्रयोग उस स्थान पर होता है जहां अलग-अलग भाषाओं के जानकार लोगों के बीच संवाद को बनाए रखने के लिए कोई एक व्यक्ति उनके बीच में द्विभाषीये  का काम करता है।

जैसे:- राहुल गांधी का South  में भाषण।



सैनिक विधि :-  दूसरे विश्व युद्ध के समय जब अमेरिका में सैनिकों की कमी आ गई थी तब अमेरिकी सरकार ने क्रियात्मक अनुसंधान के आधार पर सेना में अनपढ़ लोगों की भर्ती की तथा उन लोगों को भाषा सिखाने के लिए एएसटीपी-- (आर्मी स्पेशलाइज्ड ट्रेनिंग प्रोग्राम )शुरू किया और 15 से 20 लोगों का समूह बनाते हुए सिर्फ भाषा के आधार पर अनपढ़ सैनिकों को भाषा का ज्ञान करवाया , इसलिए इसे श्रव्य भाष्य सैनिक विधि या आर्मी मेथोड भी कहते हैं ।

भारतीय परिवेश में जब बालकों को मौखिक रूप से भाषा का ज्ञान दिया जाना होता है उस समय इस विधि का उपयोग किया जाता है।

 इस विधि में शिक्षक स्वयं अथवा टेप द्वारा पूरा पाठ सुनाता है , विद्यार्थी द्वारा उच्चारण एवं अनुकरण करने के कारण इसे अनुकरण परिस्मरण विधि भी कहते हैं ।

प्रत्यक्ष विधि के दोषों का निवारण बहुत कुछ इस विधि द्वारा किया गया है ।

भाषा क्षमता विकसित होती है ।

इसका उद्देश्य बालकों को वास्तविक परिस्थिति में भाषा प्रयोग कर सकने की योग्यता प्रदान करना है ।

इस विधि में भाषा के कौशलों का अभ्यास कराया जाता है

इकाई विधि

 इकाई विधि :

शिक्षा के क्षेत्र में सामान्य रूप से इस पद का प्रयोग 1920 ईस्वी में हुआ ।

जेम्स एमली ने इसे विषय वस्तु के क्षेत्र में संगठन का ढांचा माना है परंतु बाद में उसको शिक्षण विधि के रूप में भी ग्रहण किया गया।

 थॉमस एम रिस्क के अनुसार :- इकाई किसी समस्या या योजना या संबंधित सीखने वाली क्रियाओं की समग्रता या एकता को प्रकट करती है।

 मॉरीसन के अनुसार :- इकाई वातावरण संगठित विज्ञान कला या आचरण का एक व्यापक एवं महत्वपूर्ण अंग होती है जिसे सीखने के फलस्वरूप व्यक्तित्व मे सामंजस्य  जाता है।

 एनसीईआरटी के अनुसार :- इकाई एक निर्देशात्मक युक्ति है जो छात्रों को समवेत रूप में ज्ञान प्रदान करती है । 


इकाई विधि की कुछ प्रमुख विशेषताएं :- 


हेनरी हैरेप (1930) ने प्रस्तुत की है।

1 इकाई किसी रूचि पर आधारित कार्य का एक बड़ा भाग होता है।

2 इकाई ज्ञान की किसी शाखा का तार्किक विभाजन है ।

3 इकाई कार्य पूर्ण अनुभव है जिसमें छात्र एक निश्चित एवं उपयोगी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संलग्न रहते हैं ।

4 इकाई रुचि के विशेष केंद्रों पर आधारित कक्षा के संपूर्ण कार्यों का खंडों में विभाजन है ।

5 इकाई किसी विषय का एक बड़ा विभाग होता है जिसका कोई मूलभूत सिद्धांत या प्रकरण होता है ।

थॉमस के अनुसार:- 

इकाई के शिक्षण के लिए 3 पद दिए हैं।

इकाई की प्रस्तावना :- 

A) छात्रों के ज्ञान को पाठ्यपुस्तक की ओर आकर्षित करना।

B) छात्रों को सीखने के लिए प्रेरित करना।

C) छात्रों को इकाई से संबंधित क्रियाओं में सलग्न करना।

इकाई का विकास :- इस पद से आशय इकाई के निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करना है। इसके लिए निम्न युक्तियों का प्रयोग किया जाता है।

  • व्याख्यान 
  • निर्देशित परीक्षण 
  • सारांश लेखन
  •  विचार-विमर्श 
  • अभ्यास

इकाई की पूर्ति :-  इस पद पर पहुंचकर इकाई को पराकाष्ठा तक पहुँचाया जाता है।

  • छात्रों द्वारा अपने कार्य का मूल्यांकन ।
  • इकाई के कार्य का एकीकरण।
  • शिक्षक द्वारा छात्रों के ज्ञान का मूल्यांकन।
  • अर्जित ज्ञान की अभिव्यक्ति ।
  • इकाई का मूल्यांकन 
  • उपचारात्मक कार्य।

 मॉरीसन द्वारा प्रतिपादित  शिक्षण पद:- 

पूर्व ज्ञान की खोज :- इस पद में शिक्षक इस बात का पता लगाता है कि नवीन इकाई के संबंध में छात्रों को कितना पूर्व ज्ञान है।

इसके लिए वह निम्नलिखित युक्तियां उपयोग में लेता है :-

  1. मौखिक प्रश्न द्वारा
  2. विचार विमर्श द्वारा 
  3. लिखित परीक्षा द्वारा 

प्रस्तुतीकरण :- इस पद में शिक्षक इकाई की विषय वस्तु को छात्रों के समक्ष व्याख्यान द्वारा प्रस्तुत करता है । इसके बाद वह प्रश्नों के माध्यम से यह जानने का प्रयास करता है कि छात्र विषय वस्तु को समझ गए हैं या नहीं यदि छात्र नहीं समझे हैं तो वह पुनः प्रस्तुत करेगा  

आत्मीकरण:-  इस पद में छात्रों को इकाई की विषय वस्तु को आत्मसात करने का अवसर प्रदान किया जाता है।

 इस सोपान पर छात्र निम्नलिखित युक्तियों के माध्यम से विषय वस्तु को आत्मसात करते हैं।

  • अध्ययन द्वारा 
  • लिख कर
  • एक दूसरे से बातचीत करके 
  • शिक्षक से परामर्श द्वारा 

संगठन :- इस पद पर छात्र इकाई की विषय वस्तु को व्यवस्थित रूप में लिखकर ज्ञान को संगठित करते हैं । यदि वे ऐसा करने में सफल होते हैं तो शिक्षक ये समझ लेता है कि वे इकाई की विषय वस्तु को भलीभांति समझ गए ।

वाचन:-  इस पद पर निम्नलिखित दो विधियों को प्राप्त किया जा सकता है ।


आदर्श विधि :- इसके अनुसार प्रत्येक छात्र को इकाई की विषय वस्तु को कक्षा के समक्ष उसी प्रकार प्रस्तुत करना पड़ता है जिस प्रकार शिक्षक ने उनके समक्ष प्रस्तुत किया  था ।


वास्तविक विधि:-  इसके अनुसार कुछ छात्र इकाई का वाचन करते हैं कुछ ऐसे लिखते हैं और कुछ उस पर विचार विमर्श करते हैं शिक्षक उनकी इन विभिन्न क्रियाओं के आधार पर यह निर्णय करता है कि उन्होंने इकाई की विषय वस्तु को किस सीमा तक ग्रहण किया है ।

वायनिंग वायनिंग के अनुसार :-  इस विधि में अधिक समय लगता है साथ ही बार-बार की पुनरावृति से कक्षा का वातावरण भी निरस्त हो जाता है ।

इकाई विधि के लाभ :-  

  1. छात्रों में सहयोग विनम्रता नेतृत्व सहकारिता धैर्य सहनशीलता आदि गुणों का विकास किया जा सकता है ।
  2. छात्रों में उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य करने की भावना उत्पन्न की जा सकती है ।
  3. इसके द्वारा छात्रों में स्वाध्याय की आदत का निर्माण किया जा सकता है ।
  4. इस विधि के द्वारा छात्रों को वातावरण से सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता प्रदान की जाती है।
  5.  यह विधि करके सीखने के सिद्धांत पर बल देती है।
  6.  इसके द्वारा छात्रों में योजना बनाने का उत्पन्न किया जा सकता है ।
  7. यह कार्य को सक्रिय बनाती है ।
  8. प्राकृतिक परिस्थितियों द्वारा कौशल विकास 

 इकाई विधि के दोष  :- 

  1. यह विधि अन्य विधियों की भांति सभी प्रकार के ज्ञान उपार्जन के लिए उपयुक्त नहीं है।
  2.  इसके द्वारा हम छात्रों को अनुभूति का पाठ नहीं दे सकते अर्थात इसके द्वारा छात्रों में सौंदर्य भावना का विकास नहीं किया जा सकता है।
  3.  इसके ना तो शिक्षण पद ही निश्चित है ना ही उनके लिए समय की सीमा ही निर्धारित है ।
  4. शिक्षक की जरा सी असावधानी से छात्रों का बहुमूल्य समय बर्बाद हो सकता है ।
  5. इन शिक्षण पदों का सभी विषयों के शिक्षण में प्रयोग नहीं किया जा सकता है ।
  6. क्रमिकता का अभाव रहता है। 


Thursday, August 20, 2020

लिखना कौशल

 लिखना कौशल / लेखन कौशल :- 

 बालक द्वारा सीखी गई विषय वस्तु के ध्वनि रूप को लिखकर अभिव्यक्त करना लेखन कौशल कहलाता है ।

कौशलों के क्रम में यह अंतिम कौशल माना जाता है लेकिन मैडम मारिया के अनुसार यह तीसरा कौशल होता है ।

 कठिनाई के स्तर में यह सबसे कठिन कौशल है , इसका संबंध मूर्त, लिखित व भावाभिव्यक्ति से होता है।

 यह पठन कौशल पर निर्भर करता है ।

पठन कौशल में बालक शब्द से अर्थ की ओर बढ़ता है तथा लेखन कौशल में बालक अर्थ से शब्द की ओर बढ़ता है

 

 लेखन कौशल के उद्देश्य तथा महत्व :- 

1 बालकों को शब्दों को शुद्ध लिखने की योग्यता प्रदान करना।

2 इसमें बालकों की ज्ञानेंद्रियां सक्रिय रहती हैं ।

3 बालक शब्दों को सही सही उचित प्रकार से लिखना सीखता है।

4 दूरस्थ व्यक्ति को लिखित संदेश भेजने के लिए लिखित भाषा का ही सहारा लिया जाता है ।

5 व्यापारिक गतिविधियों में भी लिखित भाषा का प्रयोग होता है ।

6 विद्यालय तथा महाविद्यालयों में पाठ्य पुस्तक लिखित रूप में होती हैं ।

7 परीक्षाओं में भी जिसका सुंदर लेखन होता है उसे अच्छे अंक मिलते हैं इसलिए लेखन कौशल अनिवार्य है।

8  पूर्वजों की धरोहर को सम्भाले रखने के लिए लिखित भाषा का उपयोग किया जाता है।

 लेखन के प्रकार :- 

 लेखन के तीन प्रकार होते हैं ।

1  प्रतिलेख  :- प्रतिलेख में छात्र स्वतंत्र रूप से किसी पुस्तक या पत्र-पत्रिका के किसी भाग का अनुकरण करके अपनी कॉपी में लिखता है। लेखन सामग्री बालकों की रूचि के अनुसार होनी चाहिए । कक्षा 4 ,5 ,6 में प्रतिलेख का अभ्यास कराया जा सकता है ।

2 अनुलेख :- अनुलेख का अर्थ है किसी लिखावट के पीछे या बाद में लिखना अर्थात सुलेख का पर्यायवाची अनुलेख है । कक्षा 3 तक अनुलेख का अभ्यास कराया जा सकता है। प्राथमिक कक्षाओं में अनुलेख का विशेष महत्व है।

3 श्रुतिलेख :- श्रुतलेख सुना हुआ लेख है । इसमें अध्यापक बोलता है और छात्र सुनकर बोली हुई सामग्री लिखता है। सुनने समझने की योग्यता के शिक्षण और परीक्षण का श्रुतलेख अच्छा साधन है।

इसका उद्देश्य छात्रों की श्रवण इंद्रियों को प्रशिक्षित करना है ।

➡️श्रुतलेख में अध्यापक अधिक से अधिक तीन बार बोलता है।

सुलेख :- माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के सेवानिवृत्त सचिव श्री तेज कर डांडिया ने बालकों के सुलेख को सुधारने के लिए एक योजना चलाई है इस योजना का नाम "सुलेख लेखन की प्यास जगाओ है।"

"महात्मा गांधी के शब्दों में सुलेख व्यक्ति की शिक्षा का एक आवश्यक पहलू है" ।

हिन्दी मे अनुवर्तन कार्य:- 

लिखित कार्य में संशोधन के पश्चात जो त्रुटियां अशुद्धियां शुद्ध की जाती हैं उनका पुनरावलोकन छात्र फिर से करना चाहिए ।

अनुवर्तन हेतु शब्दाभ्यास,वर्तनी का अभ्यास इत्यादि करके अनुवर्तन कार्य संपन्न कराया जाता है।

जिन अशुद्धियों को बालक अधिकतर करते हो उन्हें कक्षा में सभी छात्रों के सामने शुद्ध रूप से स्पष्ट किया जाना चाहिए 

छात्र द्वारा अशुद्ध शब्दों को 5 से 10 बार लिखकर शुद्ध लेखन का अभ्यास करना चाहिए




Wednesday, August 19, 2020

पढ़ना कौशल पठन कौशल

 पठन कौशल/वाचन कौशल/ पढ़ना कौशल:- 

वचन शब्द वाक्  धातु से बना है।

वाचन :- वाचन का अर्थ होता है पढ़ना।

इसमें बालकों को किसी भी लिखे हुए अंश को पढ़ने योग्य बनाया जाता है।

विषय वस्तु को अर्थ ग्रहण करते हुए मनोयोग पूर्वक पढ़ना पठन कौशल कहलाता है।

यह कौशल सुनना बोलना कौशल की तुलना में कठिन होता है।

मनोवैज्ञानिक क्रम में यह तीसरा कौशल है।

इस कौशल द्वारा प्राप्त ज्ञान ज्यादा समय तक स्थाई रहता है

वाचन के दो भेद हैं।

व्यक्तियों की संख्या के आधार पर:- व्यक्तिगत पठन और सामूहिक पठन।

ध्वनि के आधार पर :- सस्वर वाचन और मौन वाचन ।

वाचन के उद्देश्य तथा महत्व :- 

बालकों को शुद्ध पढ़ना सिखाना 

बालकों में किसी भी लिखे हुए लेख को पढ़ने की क्षमता उत्पन्न करना 

वाचन का ज्ञान हमें सामाजिक सम्मान देता है 

वाचन ही साक्षरता का प्रमाण पत्र प्रदान करता है 

भाषा की विविधता का ज्ञान वाचन द्वारा ही होता है

वाचन ही हमें विविध शैलियों से परिचित करवाता है 

वाचन मनुष्य को पूर्ण बनाता है

नि:संकोच बोलने की प्रवृति का विकास ।

A) सस्वर वाचन :- 

जब बच्चा स्वर सहित पठन करता है तो उसे सस्वर वाचन कहते हैं। वाचन की यह प्रथम अवस्था है ।

सस्वर वाचन से उच्चारण शुद्ध होता है ।

सस्वर वाचन वाचन शक्ति का विकास करता है ।

सस्वर वाचन दो प्रकार का होता है ।

1) व्यक्तिगत वाचन।

2) सामूहिक वचन:- 

 व्यक्तिगत वाचन :- 

एक व्यक्ति द्वारा किया गया सस्वर वाचन व्यक्तिगत वाचन  कहलाता है ।

यह वाचन अध्यापक तथा विद्यार्थी दोनों द्वारा किया जा सकता है ।

अध्यापक सस्वर वाचन उस समय करता है जब उसे विद्यार्थी के समक्ष परिच्छेद को पढ़ाता है ।

जब अध्यापक विद्यार्थी को पढ़ने के लिए कहता है तब विद्यार्थी भी सस्वर वाचन करता है।

 सामूहिक या समवेत वाचन :- 

जब एक से अधिक विद्यार्थी मिलकर ऊंचे स्वर में पढ़ते हैं तो उसे समवेत या सामूहिक वचन कहते हैं । यह प्राय: छोटी कक्षाओं में होता है ।

इसके अंतर्गत एक विद्यार्थी पाठ पड़ता है और शेष विद्यार्थी उसका अनुकरण करते हैं।

सस्वर वाचन के गुण :- 

1 शुद्ध उच्चारण :-  सस्वर वाचन में वर्णों तथा शब्दों के शुद्ध उच्चारण पर बल दिया जाता  है यदि उच्चारण की तनिक भी अशुद्धि हो जाए तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है जैसे ग्रह और गृह, सामान और समान।

2 उचित ध्वनि निर्माण:-  जिस वर्ण का जहां से उच्चारण होता है उसे वहीं से करना चाहिए जैसे 'क' वर्ण का कंठ से 'च' का तालू से ।

3 उचित बल तथा विराम का प्रयोग :- सस्वर वाचन करते समय विद्यार्थी को यह पता होना चाहिए कि विराम कहां लगाना है,कहां अधिक रुकना है ,कहां कम रुकना है। जैसे- रोको, मत जाने दो। :- रोकने के लिये आदेश 

 रोको मत,जाने दो :-  ना रोकने के लिये आदेश  ।

उचित हाव भाव:-  सस्वर पाठ करते समय पाठ्य सामग्री के अनुसार हवाओं का प्रदर्शन करना चाहिए श्रृंगार का भाव अलग होता है क्रोध का भाव अलग होता है और वीरता का भाव अलग होता है।


वाचन के अन्य भेद :- 

1 आदर्श वाचन :- अध्यापक द्वारा विषय वस्तु को उचित आरोह अवरोह प्रभाव और स्पष्ट उच्चारण के साथ पढ़ना आदर्श वाचन कहलाता है ।

यह व्यक्तिगत होता है ।

2 अनुकरण वाचन :-  अध्यापक द्वारा प्रस्तुत आदर्श वाचन का विद्यार्थियों द्वारा ठीक वैसा ही दौरान अनुकरण वाचन कहलाता है।

 यह व्यक्तिगत व सामूहिक दोनों प्रकार का होता है ।

मौन वाचन :-  विषय वस्तु को बिना आवाज या ध्वनि के पढ़ना मौन वाचन कहलाता है ।

इसके तीन प्रकार होते हैं ।

1 गहन मौन वाचन :-  किसी भी सारगर्भित विषय वस्तु का गहन अर्थ करते हुए बालक द्वारा किया जाने वाला बिना ध्वनि का वाचन गहन मौन वाचन कहलाता है ।

इसमें विषय वस्तु कठिन हो सकती है ।

2 द्रुत मौन वाचन :-  किसी विषय वस्तु का दौहरान सरल विषय वस्तु का पठन व पृष्ठ में शब्द को ढूंढना इन क्रियाओं को करने में जो वाचन होता है वह द्रुत मौन वाचन कहलाता है।

3  सामान्य मौन वाचन :- यह एक प्रकार का औपचारिक मौन वाचन है जिसका उद्देश्य मनोरंजन अवकाश के समय का सदुपयोग करना भी हो सकता है ।

विशेष :- मौन वाचन का उद्देश्य विद्यार्थियों में स्वाध्याय की प्रवृत्ति विकसित करना । 

कक्षा कक्ष में अनुशासन स्थापित करना । 

अवकाश के समय का सदुपयोग करना ।

गहन वाचन से बालकों में एकाग्रता का विकास होता है। 

तीव्र वाचन से बालकों मे पठन गति का विकास होता है।

मौन वाचन बालकों में चिंतनशीलता का विकास करता है।

संकोची प्रवृति के बालकों के लिये समवेत या सामूहिक वाचन उपयोगी है ।

वाचन कौशल की विधियाँ :- 

1 देखो और कहो विधि:- इस विधि में अक्षरों का ज्ञान ना कराकर शब्दों का ज्ञान कराया जाता है । पूरे शब्द को श्यामपट्ट पर लिख दिया जाता है और अक्षरों की पहचान के  स्थान पर शब्द के स्वरूप की पहचान कराई जाती है। यह प्राथमिक ,उच्च प्राथमिक स्तर पर उपयोगी है । इस विधि में छात्रों में कल्पना शक्ति व रचनात्मक शक्ति का विकास होता है , अर्थात यह विधि सृजनशील छात्रों के लिए ही उपयोगी है ।जैसे :- कमल, नयन ,पावक ।

2 ध्वनि साम्य विधि :- मनोवैज्ञानिक विधि है। प्राथमिक स्तर के लिए उपयोगी है। इसमें एक समान ध्वनि वाले शब्द सिखाए जाते हैं जैसे :- आम काम धाम नाम चाम आदि । इस विधि में छात्र अनावश्यक व निरर्थक शब्द सीख लेता है ।

जैसे :- धर्म कर्म मर्म ।

3 अक्षर बोध विधि :- यह पुरानी विधि है इसमें बालकों को अक्षरों का ज्ञान कराया जाता है बालकों का अधिकांश समय वर्णमाला को रखने में चला जाता है  ।

क, म, ल = कमल 

4 भाषा शिक्षण की यंत्र विधि :- यह एक आधुनिक विधि है इसमें ग्रामोफोन में पाठ भरा जाता है जिसे सुनकर बालक उसका अनुकरण करके पढ़ने का अभ्यास करते हैं यह व्यय साध्य विधि है।

टेप रिकॉर्डर , कैसट, सहायक चित्र, सहायक पुस्तक।

 5 समवेत पाठ विधि :- इस विधि में छोटे पद्य या गीत सुविधा पूर्वक सिखाया जा सकते हैं। इसमें अध्यापक पाठ के अंश को स्वयं भाव पूर्ण रीति से पढाता है तथा छात्रों से उसकी आवृत्ति करने के लिए कहता है ।

6 संगत विधि/ साहचर्य विधि :-  मोंटेसरी द्वारा प्रयुक्त इस विधि में बहुत सी वस्तु चित्र खिलौनों आदि के आगे उनके नाम कारणों पर लिख दिए जाते हैं और उन सभी कारणों को मिला दिया जाता है फिर वही नाम उस वस्तु के आगे रखना होता है । यह विधि मनोवैज्ञानिक विधि है।

सभी शब्दों का ज्ञान नहीं कराया जा सकता है जैसे प्रेम ,घृणा , ईश्वर , आत्मा इत्यादि।

यह विधि कमजोर छात्रों के लिये उपयोगी है।

नोट:- इस विधि मे भाषा की इकाई शब्द को माना जाता है।

7 समग्र भाषा विधि:-  इस विधि में अक्षर ,ध्वनि, वाक्य आदि को क्रम से एक साथ ही बनाना सिखाया जाता है ।यह विधि व्यवहारिक विधि नहीं है ।

8 संप्रेषण या वाचन विधि :- इस विधि में ध्वनियों को उच्चारण आरंभ से ही कराया जाता है शिक्षक वर्णमाला सिखाते समय ध्वनियों के शुद्ध उच्चारण का स्थान छात्र को बता देता है।


पठन कौशल में आने वाली कठिनाई  :- 

1 शिक्षक का अपूर्ण होना  

2 वर्ण पहचान में कठिनाई 

3 बालक को वर्णों के उच्चारण स्थान का ज्ञान ना होना 

4 तुतलाना

5 कठिन शब्दों के पठन में परेशानी 

6 पूर्वाग्रह से ग्रसित 

7 प्रयत्न लाघव 

8 क्षेत्रीयता का प्रभाव 

9 नाक में पठन ।

 उपाय :- 

1 बालकों को वर्णों के  उच्चारण स्थानों का परिचय करना चाहिए।

2 व्याकरण का ज्ञान प्रदान करना चाहिए ।

3 ध्वनि संकेत और विराम चिन्हों का ज्ञान भी कराना चाहिए ।

4 अध्यापक द्वारा आदर्श रूप में स्पष्ट रूप से पढ़ना चाहिए।

5  बालकों को स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अवसर देना चाहिए




Monday, August 17, 2020

बोलना कौशल

  बोलना कौशल :- 

1 सीखने की कौशल में दूसरा कौशल है ।

2 यह पूर्ण रूप से सुनना कौशल पर निर्भर करता है ।

3 सुने हुए भावों को अर्थपूर्ण शब्दों में बोलकर अभिव्यक्त करना बोलना कौशल कहलाता है ।

4 यह कौशल अभ्यास का अनुकरण का गुणज माना जाता है।

5 इस कौशल के विकास हेतु बालक को ज्यादा से ज्यादा सुनने के अवसर उपलब्ध कराने चाहिए ।

6 बालक को वाद विवाद संवाद अंत्याक्षरी में भाग लेने हेतु प्रेरित करना चाहिए ।

7 अध्यापक को चाहिए कि वह वाणी का उचित आरोह अवरोह तथा स्पष्ट रूप से व्याख्यान प्रस्तुत करें।

 8 बालक को सही वातावरण उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

9 वार्तालाप में मुहावरे और लोकोक्तियां को भी उचित स्थान दिया जाना चाहिए।

10 यदि बालक उच्चारण की अशुद्धता करें तो उसे रोककर शुद्ध उच्चारण का अभ्यास कराना चाहिये।


  मौखिक अभिव्यक्ति की महत्ता :- 

1 दैनिक जीवन में मौखिक अभिव्यक्ति का महत्व  ।

2 व्यावसायिक कार्य में सहायक

 3 कहानी सुनना तथा सुनाना 

4 चित्र वर्णन

 5 कविता पाठ 

6 ज्ञानार्जन का महत्वपूर्ण साधन 

7 वार्तालाप अभिव्यक्ति का साधन 

8 अभिव्यक्ति एक व्यवसाय।

9 भाषा शिक्षण में बोलचाल का महत्व 

10 व्यक्तित्व विकास का महत्वपूर्ण साधन है ।



अभिव्यक्ति शिक्षण के उद्देश्य :- 

A विद्यार्थियों को विचारों को सरलता से व्यक्त करने की क्षमता प्रदान करना 

B विद्यार्थियों में बोलने की  झिझक और संकोच को दूर करना 

C सरल तथा स्पष्ट भाषा में वार्तालाप करने की आदत विकसित करना 

D विद्यार्थी को सफल वक्ता बनाना 

E छात्रों को शुद्ध उच्चारण का प्रयोग करना सिखाना

F पूछे गए प्रश्नों का स्पष्ट और सही उत्तर दे सकने की योग्यता उत्पन्न करना 

G विद्यार्थियों को मधुरता पूर्वक शिष्टाचार के नियमों का पालन करते हुए दूसरों से वार्तालाप करना सिखाना

H उचित समय पर उचित शब्दों का प्रयोग करने की योग्यता प्राप्त करने की क्षमता विकसित करना।


मौखिक अभिव्यक्ति को कुशल बनाने हेतु विभिन्न अवसर:-

1  प्रश्नोत्तर 

2अंताक्षरी  

3वाद विवाद प्रतियोगिता 

4 संवाद

 5 वर्णन 

6 सांस्कृतिक कार्यक्रम

7 कहानी कथन

8 कवि सम्मेलन 

9 अभिनय ।


अशुद्ध  उच्चारण के कारण :-

 1 शिक्षक द्वारा अशुद्ध उच्चारण ।

2 मनोवैज्ञानिक कारण भय ।

3 असावधानी 

 4 क्षेत्रीय प्रभाव 

5 सामाजिक प्रभाव 

6 प्रयत्न लाघव।

 7 बनकर बोलना 

8 उच्चारण शिक्षण का अभाव ।

9 अज्ञान

 10 ध्वनि यंत्र में विकार विकार।


 उच्चारण दोषों के निराकरण के उपाय:- 

 1 शिक्षक द्वारा ध्वनि तत्व का ज्ञान कराना 

2 शुद्ध बोलने वालों की संगत 

3 अध्यापक द्वारा शुद्ध उच्चारण 

4 प्रेम पूर्ण व्यवहार

5  अनुकरण विधि का प्रयोग है 

6  प्रतियोगिता आयोजित कराना ।


वर्तनी :- 

शब्दों में निहित अक्षरों या वर्णों को शुद्ध रूप में तथा सही क्रम में लिखा जाता है ।

शुद्ध वर्तनी का प्रभाव उच्चारण तथा रचना के अन्य रूपों पर पड़ता है।

 वर्तनी की अशुद्धियों के कारण :- 

  • अशुद्ध उच्चारण 
  • व्याकरण की अनभिज्ञता 
  • उच्चारण की विषमता 
  • लिपि का अधूरा ज्ञान 
  • असावधानी
  •  प्रांतीय प्रभाव
  •  मन स्थिति सामान्य ना होना 
  • लेखन अभ्यास का अभाव
  •  शीघ्रता से लिखना।



 निराकरण :- 

  • शिक्षक द्वारा लिपि का पूर्ण ज्ञान कराना 
  • व्याकरण का पूर्ण कराना
  •  शुद्ध उच्चारण की शिक्षा देना 
  • लिखने का अभ्यास करवाना
  •  शब्दकोश का प्रयोग करना 
  • बच्चे पर व्यक्तिगत ध्यान देना

Monday, August 10, 2020

सुनना कौशल

  भाषायी कौशल :- 




भाषायी कौशलों का विकास बच्चा सुनकर बोलकर पढ़कर लिखकर विचारों का आदान प्रदान करता है । यही भाषायी कौशल कहे जाते हैं ।

कौशल में प्रवीणता के लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है ।

बच्चे में अनुकरण की प्रवृत्ति होने के कारण वह कौशल का अनुकरण बड़ी तीव्रता से करता है ।

कौशल चार होते हैं ।

1 सुनना  

2 बोलना 

3 पढ़ना 

 4 लिखना  

फ्रबैल महोदय के अनुसार इनका क्रम---L~~~~>S~~~~>R~~~~>W  ।

जबकि साहचर्य विधि के प्रवर्तक महोदया मारिया मांटेसरी ने इनका क्रम ---सुनना~~~> बोलना~~~> लिखना---> व पढ़ना बताया है ।

इनके अनुसार बालक को लिखने से पहले पढ़ना सिखाना "मुद्रण पर भौकना" के समान है ।

सुनने से लिखने की तरफ कठिनता बढ़ती जाती है अर्थात सबसे सरल कौशल सुनना व सबसे कठिन कौशल लिखना है । 

सुनना कौशल :- सुनकर अर्थ ग्रहण करना।

बोलना कौशल:- बोलकर अभिव्यक्ति देना।

पढ़ना कौशल :- पढ़ कर अर्थ ग्रहण करना।

लिखना कौशल:- लिखकर अभिवक्ति देना।


सुनना और पढ़ना ग्र्ह्यात्मक कौशल तथा बोलना और लिखना अभिव्यंजना कौशल कहा जाता है।

पढ़ना और लिखना कौशल अनिवार्य कौशल कहलाते हैं।



 सुनना कौशल :-- सुनकर अर्थ ग्रहण करना ही श्रवण कौशल है।

इसे प्राथमिक कौशल कहते हैं क्योंकि इसका विकास सबसे पहले किया जाता है


 श्रवण  कौशल को आधार कौशल माना जाता है ।

श्रवण कौशल के उद्देश्य:--

1 सुनकर अर्थ ग्रहण करना 

2 सूरत सामग्री को मनोयोग पूर्वक सुनने की प्रेरणा

 3 सुनकर महत्वपूर्ण तथ्यों का चयन करना

 4 भक्ता के मनोभावों को समझने की निपुणता 

5  ध्यान पूर्वक सुनना

 6 उच्चारण को सुनकर शुद्ध उच्चारण का अनुकरण करना ।

 श्रवण कौशल शिक्षण की विधियां

 सस्वर वाचन

 प्रश्नोत्तर करना

 कहानी कहना व सुनाना 

श्रुतलेख 

भाषण 

वाद विवाद

 दृश्य श्रव्य सामग्री जैसे टेप रिकॉर्डर रेडियो चलचित्र दूरदर्शन आदि 

इसके लिए बालकों को अधिक से अधिक संवाद करने के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए 

उनको अंताक्षरी व वाद विवाद के लिए प्रेरित करना चाहिए 

इस कौशल का विकास परिवार जन समाज के लोग विद्यालय शिक्षक व मित्र मंडली के द्वारा होता है।

श्रवण कौशल के तत्व :-

सुनने वाले का मुख्य मंडल प्रसन्न होना चाहिए ।

मनोयोग पूर्वक ध्यान केंद्रित करके सुनना चाहिए।

 श्रोता की बैठने की सही स्थिति होनी चाहिए 

सुनते समय अन्य कोई काम नहीं करना चाहिए 

सुनने में शीघ्रता अनुचित है ।

सुनते समय किसी से वार्तालाप नहीं करना चाहिए।

 श्रोता में भाषा की ध्वनियों व शब्दों का ज्ञान होना चाहिए

 श्रोता में सुनने की तत्परता सुनने में उसकी रुचि होना आवश्यक है।

श्रवण कौशल में दोष के कारण

1 मौखिक कार्य का अभाव 

2 कक्षा में कठोर नियंत्रण 

3 पाठ्यवस्तु की कठिनता

 4 एक साथ दो काम

 5  श्रवण इंद्रियों का बाधिक  होना।




Sunday, August 9, 2020

पद्य शिक्षण विधियां Part 2

 पद्य शिक्षण विधियां Part 2 





1 खण्डान्वय विधि:- 

  • दूसरा नाम:-  प्रश्नोत्तर विधि 
  • प्रवर्तक :- सुकरात।
  •  अध्यापक पूरे पद्य( ऐतिहासिक महत्व की ) को छोटे-छोटे खंडों में विभक्त कर लेता है और इन खंडों की अलग-अलग व्याख्या करता है ।
  • फिर सभी खंडों को जोड़कर पूरे पद्य की व्याख्या करता है एवं अर्थ समझाता है ।
  • यह विधि अध्यापक केंद्रित है ।
  • उच्च प्राथमिक स्तर पर उपयोगी है।



2  व्यास विधि :-

  •  प्रवर्तक महर्षि वेदव्यास ।
  • व्यास विधि व्याख्या विधि का ही रूप है ।
  • भावात्मक पाठ के लिए सर्वश्रेष्ठ विधि है ।
  • इस विधि में अध्यापक पूरे पद्य को पूर्ण विस्तार के साथ अध्ययन करवाता है।
  •  अध्ययन के बीच बीच में उदाहरण दृष्टांत संबंधित बातें भी बताता है।
  •  छात्रों को इस विधि द्वारा रसानुभूति  होती है।
  •  यह विधि माध्यमिक व उच्च माध्यमिक कक्षाओं के लिए उपयुक्त मानी जाती है।
  •  इस विधि में समय अधिक लगता है अतः विद्यालय स्तर पर यह विधि उपयुक्त नहीं है।
  • अमनोवैज्ञानिक विधि है।



3  समीक्षा विधि :-


  • इससे विधि में छात्र स्वयं गुण दोष की समीक्षा करता है
  • अध्यापक केवल संदर्भ ग्रंथों की जानकारी देता है 
  • इस विधि में छात्र सक्रिय रहता है ।
  • यह विधि भी व्याख्या विधि का ही एक रूप है ।
  • यह पूर्ण विधि है जो व्याख्या विधि के बाद प्रयोग में लाई जाती है ।
  • मनोवैज्ञानिक विधि है।
  •  



4  तुलना विधि  :- 

समभाव वाली रचनाओं के द्वारा तुलना करके अध्ययन करवाया जाता है 

जैसे 1 कवि की अन्य रचना के साथ तुलना करना जिसमें लगभग मिलती-जुलती बात कही गई हो।

 2अन्य कवि की रचना से तुलना करना 

3 अन्य भाषा के कवि के साथ तुलना करना।

  •  यह विधि माध्यमिक व उच्च माध्यमिक स्तर पर उपयोगी है ।
  • इस विधि में रस अनुभूति होती है ।
  • इस विधि में सबसे ध्यान रखने वाली बात यह है कि अध्यापक को स्वाध्यायी व पारंगत होना चाहिए।
  • इस विधि द्वारा बालकों के ज्ञान व तर्क शक्ति में वृद्धि होती है। 


5 रसास्वादन विधि :- 

  • रसास्वादन विधि का प्रयोग कविता पाठ करने में किया जाता है ।
  • इस विधि का उद्देश्य बालकों को रस व आनंद की प्राप्ति करने में सक्षम बनाना है।
  •  यह विधि प्राथमिक स्तर पर उपयोगी है ।
  • मनोवैज्ञानिक विधि है।
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पद्य शिक्षण विधियां Part 1

 पद्य शिक्षण विधियाँ Part 1





परिभाषा :-

 आचार्य विश्वनाथ :-  रस पूर्ण वाक्य ही काव्य है ।

आचार्य जगन्नाथ :- सुंदर अर्थ बताने वाले शब्द ही पद्य हैं।

HW अर्डेन:- शब्दों से खेलना ही पद्य है ।




पद्य शिक्षण के उद्देश्य

1 अनुभूति 

2 सौंदर्य अनुभूति 

3 कल्पना शक्ति का विकास 

4 पूर्ण मनोयोग के साथ कविता सुनने के योग्य बनाना

 5 कविता के प्रति रुचि व प्रेम उत्पन्न करना

 6 कविता की विभिन्न शैलियों से परिचय करवाना 

7 छंद अलंकार रस आदि का ज्ञान देना 

8 छात्रों को अपने देश की संस्कृति धर्म दर्शन आदि की जानकारी देना। 

9 गति याति लय भाव अभिनय द्वारा श्लोक पढ़ने में दक्षता प्राप्त करना

10 छंद संबंधी ज्ञान प्राप्त करना

11 सर्जनात्मक शक्ति का विकास करना

12 उच्चारण ज्ञान में दक्षता प्राप्त करना


कविता शिक्षण में छात्रों में रुचि का विकास करने के साधन :- 

1 कविता का प्रभावशाली सस्वर वाचन करना 

2 कविता कंटेस्ट करके बच्चों को सुनाना

 3 विभिन्न उत्सवों पर कविता पाठ का आयोजन करना ।

4 अंत्याक्षरी प्रतियोगिता का आयोजन करवाना

 5 किसी विषय विशेष पर कविता पाठ करवाना ।

6 कविता पाठ प्रतियोगिता का आयोजन करवाना।



पद्य शिक्षण की विधियां:- 

1 अभिनय विधि :- 

यह पद्य शिक्षण की सर्वश्रेष्ठ विधि है क्योंकि इसमें अध्यापक अभिनय व गीत की सहायता से पद का शिक्षण करता है जिससे कक्षा में एक स्वस्थ वातावरण बनता है।

  •  इसमें बाल गीतों के साथ अभिनय करते हुए कविता का शिक्षण करवाया जाता है ।
  • इस विधि में  उद्दीपन कौशल का उपयोग किया जाता है ।
  • प्राथमिक स्तर के लिए उपयोगी है।
  •  इस विधि में रस अनुभूति होती है ।
  • अतः यह विधि बाल केंद्रित विधि तथा मनोवैज्ञानिक विधि है ।
  • इस विधि से स्थाई ज्ञान की प्राप्ति होती है।



2 गीत विधि :-

 कविता शिक्षण की सबसे उत्तम प्रणाली गीत विधि को माना गया है क्योंकि इस विधि में कविता में आने वाले उतार-चढ़ाव का ध्यान रखते हुए लय व ताल के साथ कविता का सस्वर वाचन करना है  ।

  • इस विधि में अध्यापक एक पंक्ति गाता है तथा बाद में विद्यार्थी उसका अनुकरण करते हैं ।
  • जैसे :- जॉनी जॉनी यस पापा ॰॰॰॰॰॰ इस कविता को याद कराना।


3 अर्थ बोध प्रणाली :-

  •  यह विधि गीत प्रणाली से एक स्तर आगे है।
  •  इस विधि में अध्यापक एक पंक्ति को स्वयं गाता है तथा विद्यार्थी उसका अनुकरण करते हैं बाद में वह उस पंक्ति का अर्थ विद्यार्थियों को समझाता है ।
  • इस विधि में गीत का प्रभाह बीच-बीच में रुक जाता है ।
  • इसमें कविता को गद्य की तरह पढ़ाया जाता है।
  •   सबसे नीरस विधि है अतः विद्यार्थियों की रुचि व तारतम्यता में बाधा आती है । यह विधि उच्च प्राथमिक स्तर पर उपयोगी है ।
  • यह एक अमनोवैज्ञानिक विधि है।


4 व्याख्यान विधि :- 

  • इसमें अध्यापक पद्य का वाचन करता है तथा शब्दश: बालकों को अर्थ समझाता है 
  • इस विधि में केवल अध्यापक ही सक्रिय रहता है ।
  •  यह विधि माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक स्तर पर उपयोगी है ।

व्याख्यान विधि के तीन चरण होते हैं 

1 प्रसंग :- इसमें कवि तथा कविता का परिचय दिया जाता है।

2 व्याख्या :-  इसमें कठिन निवारण किया जाता है 

प्रवचन द्वारा :- 

 विलोम शब्द पर्यायवाची द्वारा अर्थ बताया जाता है इसमे सीधा अर्थ नहीं बताया जाता है।

व्याख्या द्वारा :-

 दृष्टांत उदाहरण जिससे बालक अर्थ बता दें।

 व्याकरण द्वारा :-  

संधि समास उपसर्ग आदि के द्वारा अर्थ बताया जाता है ।

3 विषय:-  भाव विशेष छंद अलंकार इन के बारे में बताया जाता है ।

यह विधि अमनोवैज्ञानिक  विधि है।


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Friday, August 7, 2020

नाटक शिक्षण विधियां


 नाटक शिक्षण या एकांकी शिक्षण:-

  • एकांकी मे किसी एक घटना को लेकर नाटक का एक लघु रूप समाहित किया जाता है। नाटक में विभिन्न घटनाएं होती हैं। 
  • एकांकी मे कोई एक घटना या एक दो दृश्यों का नाटकीकरण होता है।
  • नाटक मे अभिनय तत्व पाया जाता है।
  • भरतमुनि के नाट्यशास्त्र मे अभिनय, अवस्था अनुकृति का रूप है।

  • नाटक शिक्षण के उद्देश्य :-
  • बालकों को अभिनय कला मे निपुण बनाना।
  • समाज तथा देश की परिस्तिथियों से अवगत कराना।
  • छात्रों को प्रभावशाली व शुद्ध वार्तालाप में दक्ष बनाना।
  • छात्रों मे भावानुसार , उचित लय गति व हाव भाव के साथ सस्वर वाचन की योग्यता विकसित करना
  • नाटक की तकनीकों से अवगत कराना।
Credit Unsplash






  • नाटक शिक्षण विधियां :- 
  • A अभिनय विधियाँ:- 
  • a) कक्षा अभिनय 
  • b) रंगमंच अभिनय 


  • 1) कक्षा अभिनय:- 
  • नाटक शिक्षण की सर्वश्रेष्ट विधि। व्यवहारिक विधि है।
  • छात्रों को कक्षा में ही पात्र बनाकर बिना साज सज्जा के संवाद व अभिनय करवाया जाता है।
  • अतिरिक्त व्यय नहीं होता।
  • समय कम लगता है।
  • छात्र स्वयं करके सीखता है 
  • मनोवैज्ञानिक विधि 


  • 2) रंगमंच विधि:- 
  • पूर्ण साज सज्जा के साथ मंच पर अभिनय कराया जाता है।यह विधि व्यवहारिक विधि नहीं है क्योंकि इसमे समय तथा श्रम दोनो ज्यादा लगते हैं।
  • खर्चीली विधि है।

  • B) व्याख्यान विधि :- 
  • अर्थ कथन विधि भी कहते हैं।
  • इसमे अध्यापक स्वयं छात्रों के सामने सस्वर वाचन करता है। तथा कठिन शब्दों के अर्थ को समझाते हुये व्याख्या करता है।

  • तीन चरण होते हैं :-- 

  • संदर्भ - नाटककार + नाटक परिचय 


  • व्याख्या - काठिन्य निवारण, विषय वस्तु की जानकारी, उदाहरण , नाट्य तत्वों की समीक्षा।


  • विशेष - मूल बात / सार 


  • अध्यापक सक्रिय रहता है।


  • छात्र मात्र श्रोता बनकर सुनते रहते हैं।

  • प्रभावकारी विधि नहीं है।

  • दोष :- अभिनय तत्व का अभाव ।

  • C) आदर्श नाट्य विधि:- 

  • इस विधि मे केवल अध्यापक द्वारा सभी पात्रों  का अभिनय किया जाता है।
  • इस विधि के लिये अध्यापक का अभिनय कला मे निपुण होना चाहिए।

  • D) समीक्षा विधि:
  • इस विधि मे नाटकीय तत्वों की समीक्षा की जाती है।
  • नाटकीय तत्व 7 होते हैं।
  • 1 कक्षा वस्तु 
  • 2 संवाद
  • 3 पात्र
  • 4 देशकाल
  • 5 भाषा शैली
  • 6 उद्देश्य 
  • 7 अभिनय।

  • दोष :- अभिनय तत्व का अभाव ( केवल जानकारी दी जाती है।)

  • E) संयुक्त विधि/ समवाय विधि/ समवेत विधि/ सहयोग विधि:-  नाटक की सभी विधियों का मिश्रण 
  • व्याख्या भी नाटकीयकरण भी नाटकीय तत्वो की समीक्षा भी तथा अभिनय तत्वों की जानकारी भी दी जाती है।

  • विद्यालय स्तर पर नाटक शिक्षण की सर्वश्रेष्ट विधि है।


  • अभिरुचि प्रश्न :- 

  • 1 नाटक शिक्षण की सर्वश्रेष्ट विधि है।
  • अ  व्याख्यान विधि 
  • ब रंगमंच विधि 
  • स समवाय विधि 
  • द अभिनय विधि।
  • उत्तर -रंगमंच



  • 2 विद्यालय स्तर पर नाटक शिक्षण की सर्वश्रेष्ट विधि है।
  • अ  समवाय विधि
  • ब रंगमंच विधि
  • स अभिनय विधि
  • द आदर्श विधि
  • उत्तर - समवाय विधि।


  • 3 आदर्श विधि मे अभिनय किया जाता है।
  • अ  अध्यापक द्वारा
  • ब अध्यापक व छात्र द्वारा
  • स छात्रों द्वारा 
  • द  बाहर से आने वाले विशेषज्ञ द्वारा।
  • उत्तर - अध्यापक द्वारा

  • 4 नाटक का प्राण तत्व किसे कहा गया है।
  • अ  अभिनय 
  • ब व्याख्या
  • स समीक्षा 
  • द पात्र
  • उत्तर - अभिनय

  • 5 उपन्यास व नाट्य मे किस तत्व का अन्तर होता है।
  • अ  अभिनय 
  • ब व्याख्या
  • स समीक्षा 
  • द भाषा शैली।
  • उत्तर - अभिनय

Tuesday, August 4, 2020

अर्थ कथन विधि


गद्य शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की गद् धातु से हुई है।
जिसका अर्थ होता है -स्पष्ट करना।
गद्य शिक्षण का उद्देश्य छात्रों मे पठन की योग्यता का विकास करना है।

आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने गद्य को " कवियों की कसौटी " कहा है।

साहित्य दर्पण के अनुसार वृत बंध हीन रचना ही गद्य है।

1 प्रस्तावना-- गद्य शिक्षण को प्रारंभ करने का प्रथम सोपान है।
इसे किसी वार्तालाप से प्रारंभ किया जाता है।
पाठ के उद्देश्य से परिचित कराया जाता है।

2 वाचन-- प्रस्तावना व ऊद्देश्य कथन के बाद अध्यापक उचित आरोह अवरोह का ध्यान रखते हुये शुद्ध उच्चारण सहित विरामादि चिह्नों को ध्यान मे रख कर प्रभावपूर्ण ढंग से आदर्श वाचन किया जाता है।

3 काठिन्य निवारण--
कठिन शब्दों का स्पष्टीकरण आवश्यक होता है।
इसके लिये निम्न प्रविधियाँ प्रयोग मे ली जाती हैं।
A चित्र दिखाना
B प्रतिमूर्ति दिखाकर
C मानचित्र दिखाकर
D प्रत्यक्ष पदार्थ दिखाकर
E संकेत द्वारा
F अभिनय द्वारा
G विलोम द्वारा
H सन्धि विच्छेद द्वारा
I समास विग्रह द्वारा
J व्याख्या द्वारा
आदि

4 विश्लेषण :- यह कार्य प्रश्नोत्तर के माध्यम से किया जाना चाहिए।
विचार विश्लेषण के बाद पुन: अध्यापक द्वारा आदर्श वाचन और छात्रों द्वारा सस्वर वाचन किया जाना चाहिए।


गद्य शिक्षण का महत्व :-
1 विचारानुभूति होना
2 मानसिक बौद्घिक विकास
3 सृजनात्मक क्षमता का विकास
4 व्याकरण का ज्ञान
5 उच्चारण की शिक्षा
6 शब्द भण्डार मे वृद्धि
7 गद्य की विभिन्न विधाओं का ज्ञान
8 भाषायी कौशल का ज्ञान।
9 छात्रों को मौन पठन मे दक्ष बनाना
10 बालकों मे स्वाध्याय की आदत का विकास करना
11 छात्रों मे कहानी को द्रुत गति से पढ़कर अर्थ समझने की क्षमता का विकास करना।


गद्य शिक्षण की विधियाँ
1 अर्थ कथन विधि:-
इस विधि मे कठिन शब्दों का अर्थ,वाचन के साथ बताया जाता है।
इसमे अध्यापक द्वारा गद्य का मौखिक पठन किया जाता है
जहां कही जरुरत होती है वहां पर स्पष्ट करने के लिये कथन भी करता है
अध्यापक अपनी ओर से सब कुछ बताता है। बच्चे निष्क्रिय श्रोता के रूप मे रहते हैं।

इस विधि मे छात्रों को सोचने समझने का अवसर नहीं मिलता।
इस कारण यह विधि अमनोवैज्ञानिक विधि है।
यह एक नीरस विधि है।

प्रत्यक्ष विधि Direct methods


प्रत्यक्ष विधि को सुगम विधि/ प्राकृतिक विधि / निर्बाध विधि भी कहते हैं।
प्रवर्तक - गुइन महोदय

प्रत्यक्ष विधि का अर्थ होता है-वस्तुओं को प्रत्यक्ष रूप मे दिखाना।
तात्पर्य यह है कि वस्तुओं व जीव जन्तुओं का चित्र अथवा प्रतिमान दिखा कर क्रियाओं को करके दिखाना।

प्राथमिक स्तर के लिए उपयोगी

17वी सदी मे जौह्न कमेनियस ने यह विचार रखा कि भाषा को व्यवहारिकता के आधार ओर पढ़ाया जाना चाहिए
इसलिए भण्डारकर विधि के स्थान पर किसी अन्य विधि की आवश्यकता सबसे पहले जौन कमैनियस ने महसूस की।


सबसे पहले इस विधि का प्रयोग 1901 मे फ्रांस मे अन्ग्रेजी भाषा के लिये किया गया।
भारत मे इसका प्रयोग 20 वीं शताब्दी के प्रथम दशक मे बंगाल मे श्री टिपिंग ने की।
मुंबई मे लाने वाले श्री फैजर थे।
मद्रास मे लाने वाले श्री येट्स थे।



इस विधि मे तीन बातों का ध्यान रखा जाता है।
1 मातृभाषा का प्रयोग वर्जित है।
2 मौखिक कार्य को प्रधानता दी जानी चाहिए
3 वस्तु ओर शब्द के मध्य सीमा सम्बंध स्थापित कर पढ़ाया जाता है।


इस पद्धति का मुख्य सिद्घांत यह है कि जिस प्रकार बालक अनुकरण द्वारा मातृभाषा सीख लेता है उसी प्रकार बालक श्रवण और अनुकरण द्वारा दूसरी भाषा भी सीख सकता है ।

इस विधि मे सीमित शब्दावली का ही ज्ञान दिया जाता है।
अनेक ऐसे शब्द होते है जिनकी व्याख्या नही हो सकती है। जैसे भाववाचक संज्ञा के उदाहरण।

श्रवण कर बोलना कौशल पर जोर दिया जाता है।
पढना और लिखना कौशल गौण हो जाते है।


जैसे अ से अनार
इ से इमली
उ से उल्लु
इनको चित्रो के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप मे दिखा कर पढाया जाता है।

अनुभूति और अभिव्यक्ति मे सीधा सम्बंध होना चाहिए ।

इस विधि मे उन्ही शब्दों का ज्ञान दिया जा सकता है जो मूर्त रूप म उपस्थित हों तथा उन्हे कक्षा कक्ष मे लाया जा सके।

इस विधि से लेखन तथा व्याकरण का ज्ञान रह जाता है ।
इस विधि मे वाक्य सरंचना का ज्ञान न्ही दिया जाता है।

इस विधि मे वार्तालाप मौखिक कार्य एवं बोलने पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है।

इस विधि मे अन्य भाषा को स्वतंत्र एवं पृथक भाषा के रूप मे पढ़ाया जाता है।

इस विधि मे सम्पूर्ण वाक्य को इकाई माना जाता है।

इस विधि मे अन्य भाषा के अध्ययन के समय अन्य भाषा मे ही आदेश निर्देश दिये जाते हैं।
उसी भाषा मे विचार अभिव्यक्ति की जाती है।


Sunday, August 2, 2020

रचना शिक्षण विधि

रचना शिक्षण विधि:- 


रचना शब्द का अर्थ - बनाना ,सजाना और क्रमबद्ध करके प्रस्तुत करना।
बालक जब बोलना- लिखना सीख जाता है, तो वह अपने भावों और विचारों को दूसरों के लिये सार्थक एवं प्रभावी ढंग से मौखिक या लिखित रूप से प्रकट करता है।
रचना भावों एवं विचारों की कलात्मक अभिव्यक्ति है।


रचना के दो प्रकार होते हैं।
1 मौखिक रचना 
2 लिखित रचना

रचना शिक्षण की विधियाँ 
A) चित्र वर्णन विधि:-- 
अध्यापक छात्रों के सामने कोई चित्र प्रस्तुत करता है तथा छात्रो को उस चित्र को देख कर वर्णन करने के लिये कहता है।
यदि छात्र मौखिक वर्णन करता है तो मौखिक रचना होती है।
लिखित रचना जैसे हाथी का चित्र दिखा कर हाथी पर पांच वाक्य लिखो

यह विधि प्राथमिक स्तर के लिये उपयोगी है।

B) शब्द प्रदान विधि :- 
इस विधि मे अध्यापक अपनी ओर से या छात्रों के सहयोग से शब्द श्यामपट्ट पर लिखता है तथा छात्रो को उस शब्द को या शब्दों को केंद्र मे रख कर रचना करने के लिये कहता है।
जैसे किसी कहानी की आउट लाईन दे कर पूरी कहानी लिखवाना ।

छात्र उन शब्दों को केंद्र मे रख कर लिखित या मौखिक रचना करता है।

सभी स्तरो के लिये उपयोगी है।

C) वाक्य प्रदान विधि/ रूपरेखा विधि:-
इस विधि के अन्तर्गत अध्यापक द्वारा वाक्य प्रदान किया जाता है।
छात्र उस वाक्य को केंद्र मे रख कर रचना करते है।
यह विधि उच्च प्राथमिक स्तर के लिये उपयोगी है।

D) अनुकरण विधि:- 
शिक्षक जैसे बोले वैसा ही नकल करना अनुकरण कहलाता है।
इस विधि मे बालक को प्रारंभ मे अक्षर ज्ञान कराया जाता है।
प्राथमिक स्तर के लिए उपयोगी इस स्तर पर लिखना व बोलना सिखाती है।
माध्यमिक स्तर पर रचना करने के लिये प्रयोग मे लायी जाती है।
इस विधि मे 3 प्रकार का अनुकरण होता है।

a) उच्चारण अनुकरण :- 
अध्यापक जैसा बोले वैसा ही बालक उसकी ध्वनियों का अनुकरण करे तो उसे उच्चारण अनुकरण कहते हैं।

b) लेखन अनुकरण :- 
शिक्षक के द्वारा लिखे हुये शब्दों का वैसा ही अनुकरण करना लेखन अनुकरण कहलाता है।

C) रचना अनुकरण/ प्रवचन विधि :- 
इस विधि मे शिक्षक बालकों के सामने एक रचना प्रस्तुत करता है और उसी रचना का अनुकरण कर एक नवीन रचना लिखने के लिये कहा जाता है।
इस अनुकरण मे भाषा तो बालक की होती है परंतु उसे शैली के लिये अध्यापक द्वारा बताई जाने वाली रचना पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
जैसे दिवाली पर निबंध बता कर होली पर लिखने के लिये कहना।

E) प्रश्नोत्तर विधि:- 
इस विधि मे शिक्षक प्रश्न पूछता है ओर बालक उसका उत्तर देता है।
यह विधि प्राथमिक स्तर के लिए उपयोगी है।

F) उद्बोधन विधि :- 
प्रश्नोत्तर विधि का ही विकसित रूप है
इसका उद्देश्य पाठ से सम्बंधित क्रमबद्ध और व्यवस्थित विचार उत्पन्न करना है।
इस विधि का उपयोग ऐतिहासिक,भौगोलिक आदि विषयों के लिये किया जाता है।

G) विषय प्रबोधन विधि:- 
यह विधि उच्च कक्षाओं मे नाटक और कहानी की रचना शिक्षण के लिये उपयोगी है।
इसके अन्तर्गत शिक्षक पहले सभी पहलुओं को प्रस्तुत करता है और समझाता है 
बालक प्रस्तुत पहलुओं को स्वयं के विवेक ,कल्पना , तर्क के आधार पर रचना करता है।

H) मन्त्रणा विधि :- 
इसे अध्ययन विधि/ प्रणाली भी कहा जाता है।
इसके अन्तर्गत विषय से सम्बंधित पुस्तकों,लेखों,पत्रिकाओं तथा अन्य संदर्भ ग्रंथ का अध्ययन बालक द्वारा स्वयं किया जाता है।

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विज्ञान शिक्षण विधियां पार्ट 1

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