Thursday, April 4, 2024

पाठ्यपुस्तक

Book शब्द जर्मन भाषा के Beak शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है वृक्ष। 

अध्ययन अध्यपान की प्रक्रिया मे पाठ्य पुस्तक का महत्व पूर्ण स्थान है। पाठ्य पुस्तक कक्षा कक्ष की प्रक्रिया मे छात्रों के लिए अधिगम का महत्व पूर्ण साधन होती है। 

अतः पाठ्य पुस्तकों को छात्रों के लिए मित्रवत माना गया है। 


प्रस्तावनाः-

राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा की रूपरेखा 2005 के अनुसार पाठ्यपुस्तकों में इस प्रकार की सामग्री संकलित की जाए जो बच्चों के ज्ञान, समझ, दृष्टिकोण और कौशलों को बनाने संवारने में मददगार हो सके। 

बच्चों के स्थानीय परिवेश व उसके अनुभवों को भी सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में महत्व देते हुए आगे बढ़नें के अवसर पाठ्यपुस्तक में होने चाहिए। 

पाठ्यपुस्तकें ऐसी हों जो अपने विषय की प्रकृति से संबंध रखे और बच्चे उसको पढ़ते हुए अपना सोचना विचारना जारी रख सकें न कि ज्ञान को मात्र प्रदत्त के रूप में ग्राहय करें। 


पाठ्य पुस्तक का अर्थः


पाठ्य पुस्तकें वे पुस्तकें हैं जो किसी स्तर के बच्चों की पाठ्‌यचर्यानुसार तैयार की जाती है। इनमें वे तथ्य एवं सूचानाएं संकलित होती हैं, जिनका ज्ञान उस स्तर के बच्चों को देना चाहते हैं। आज की सम्पूर्ण शिक्षा ही पाठ्य-पुस्तकों पर ही आधारित हैं। आज ये पाठ्यपुस्तकें शिक्षा के मुख्य साधन के रूप में प्रयोग की जाती हैं। अतः वर्तमान में पाठ्‌यपुस्तकों का अत्याधिक महत्व है। सभी कक्षाओं के लिए पाठ्यपुस्तकें का होना अनिवार्य है। पाठ्य-पुरातकें शिक्षक के कार्य की परिपूरक होती हैं। पाठ्‌य पुस्तके अध्यापकों के लिए पुस्तकें शिक्षित करने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत है। । शैक्षिक विकास एवं पाठ्यचर्या विकास में पाठ्यपुस्तक चयन एवं लेखन शामिल रहता है। पाठ्यपुस्तक अथवा पुस्तक अनेक प्रकार के कार्य करती है।


पाठ्य पुस्तक की परिभाषाः

हैरोलिकर के अनुसारः पाठ्यपुस्तक ज्ञान, अनुभवों, भावनाओं, विचारों तथा प्रवृत्तियों व मूल संचय का साधन है।


हॉलक्वेस्ट के अनुसारः पाठ्य-पुस्तक शिक्षण क्रियाओं एवं अभिप्रायों के लिए सुव्यवस्थित चिन्तन एवं ज्ञान का लिखित रूप है।

हर्ल आर डगलस के अनुसार-अध्यापकों के अनुभवों एवं विश्लेषण के अनुसार पाठ्यपुस्तक पढने का महत्वपूर्ण आधार है।


पाठ्य पुस्तक की आवश्यकता एवं महत्वः


  • पाठ्यपुस्तके विद्यालय या कक्षा में छात्रों तथा शिक्षकों के लिए विशेष रूप से तैयार की जाती हैं जो विषय से संबंधित पाठ्यवस्तु का प्रस्तुतीकरण करती है। 
  • वास्तव में पाठ्य-पुस्तक की आवश्यकता मार्गदर्शन के लिए पडती है।
  • वर्तमान शिक्षा में बदलते शैक्षिक अंतदृष्टि, विचारों एवं शोध करने व उससे प्राप्त नतीजों के आधारों पर पाठ्‌यपुस्तकों को समय-समय पर बदलने की आवश्यकता है। 
  • पाठ्यपुस्तकें मात्र सूचना आधारित न होकर बच्चों को चिंतन व खुद से करके सीखने अर्थात् ज्ञान का सृजन करने के अवसर देने वाले दृष्टिकोण पर आधारित होनी चाहिए।
  • शासकीय शालाओं में बच्चों की पहुँच में पाठ्यपुस्तकें ही एकमात्र सीखने-सिखाने का प्रमुख संसाधन होती हैं इसलिए बच्चों के लिए गुणवत्ता पूर्ण पाठ्यपुस्तकों का होना आवश्यक है।

पाठ्य पुस्तक का महत्व:-

  • पुस्तकों की सहायता से शिक्षा की प्रक्रिया बहुत ही व्यवस्थित ढंग से चलती है और अध्यापक पूरे समय हेतु योजना बना सकते है।
  • पाठ्यपुस्तकें पाठ्यक्रम में निर्धारित उददेश्यों को पूर्ण करने में सहायक है
  • पाठ्यक्रम के अनुसार विषय का संगठित ज्ञान एक स्थात पर मिल जाता है।
  • जब कक्षा छात्र कक्षा ज्ञान में अधूरे रहते हैं। तब पुस्तकों का सहारा लेकर उस अधूरे ज्ञान को स्पष्ट एवं निश्चित करते हैं। 
  • शिक्षक केवल पथ प्रदर्षक के रूप में कार्य करता है।
  • छात्रों एवं शिक्षकों को यह जानकारी मिलती है कि किस कक्षा स्तर के लिये कितनी विषय-वस्तु का अध्ययन-अध्यापन करना है।
  • छात्रों का मानसिक स्तर इतना नहीं होता कि वे विद्यालय में पढ़ायी हुई विषय-वस्तु को एक ही बार में सीख सकें। उन्हें विषय-वस्तु को कई बार दोहराना भी पड़ता है। इस कार्य में पाठ्यपुस्तकें सहायक है।
  • पाठ्य-पुस्तकें अध्यापक की पूरक होती हैं। अध्यापक के उपस्थित न रहने पर यदि छात्र चाहे तो स्वअध्ययन से पाठ को आगे पढ़ा सकते हैं।
  • छात्रों एवं शिक्षकों के समय की बचत होती है।
  • स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
  • पाठ को दोहराने अथवा गृहकार्य कराना बच्चों को अत्यन्त सहायक सिद्ध होता है।
  • बच्चों में स्वध्याय की आदत का विकास होता है।
  • कक्षा-कार्य तथा मूल्यांकन संभव होता है।
  • बच्चों की स्मरण शक्ति एवं तर्क शक्ति का विकास होता है। मंद बुद्धि तथा प्रतिभाशाली दोनों प्रकार के बच्चों के लिये उपयोगी होती हैं।
  • विषय-वस्तु को तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है जिससे बच्चों के लिए विषय-वस्तु सरल एवं सुगम हो जाती है।
  • पाठ्य-पुस्तकें समस्याओं को हल करने में सहायता करती है तथा कुछ पहेली टाइप समस्याओं से छात्रों का मनोरंजन भी हो सकता है।
  • ज्ञान को व्यवस्थित करने में पाठ्यपुस्तकें सहायक होती हैं।
  • अध्ययन में एकरूपता आ जाती है।
  • शिक्षकों एवं छात्रों को विद्वानों के विचारों से परिचित कराती है।
  • कक्षा शिक्षण की कमियों को दूर करती हैं।
  • परीक्षा लेने में भी पाठ्य-पुस्तकें शिक्षकों की सहायता करती हैं क्योंकि प्रश्न पाठ्य पुस्तकों में से रखकर प्रश्न-पत्रों को पाठ्यक्रम के अनुसार सीमित तैयारी के साथ परीक्षा में अथवा मूल्यांकन में सफल हो जाते हैं।
  • कक्षा-शिक्षण के प्रकरणों को अध्ययन करने तथा अभ्यास के लिए अवसर मिलता है। पुस्तकें परिपाक का साधन है।
  • पाठ्य-पुस्तकें अध्यापक को कक्षा में जानें से पूर्व पाठ की तैयारी करने का अवसर प्रदान करती है।
  • पाठ्य-पुस्तके अध्यापक तथा छात्रों दोनों का समय बचाती है। मितव्ययी होती है। इनसे अध्ययन की आदतों का विकास होता है।
  • छात्रों को कम मूल्य पर समस्त आवश्यक तथा महत्वपूर्ण तथा तथ्य सूचनाएँ एक पुस्तक में ही एकत्रित मिल जाती हैं। जिससे उन्हें इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं होती। 
  • पाठ्य-पुस्तकों के माध्यम से छात्र भी अध्ययन कर सकते हैं. तथा गृहकार्य करने में भी वे सहायता प्राप्त कर सकते हैं। अध्यापक को गृहकार्य प्रदान करने में पुस्तकें पर्याप्त सहायक हो सकती है।
  • पाठ्य-पुस्तकों की सहायता से एक साथ सभी छात्रों को पढ़ाया जा सकता है।
  • छात्रों को निर्धारित पाठ्यक्रम का ज्ञान पाठ्य-पुस्तकों से ही होता है। वे ज्ञात कर सकते हैं कि वर्ष भर में उन्हें कितना पढ़ना है तथा कितना वे पढ़ चुके हैं।

  • मौन अध्ययन का अभ्यास पाठ्य-पुस्तकों के द्वारा ही कराया जा सकता है। मौन अध्ययन छात्रों को स्वाध्याय की प्रेरणा देता है। 
  • प्रत्येक अध्यापक मौखिक शिक्षण में निपुण नहीं हो सकता। सामान्य बुद्धि के अध्यापक के लिए पाठ्य-पुस्तकों का सहयोग आवश्यक हो जाता है।

शिक्षा की डाल्टन पद्धति एवं योजना प्रणाली में पाठ्य-पुस्तकों की परम आवश्यकता होती है। बालक अपनी रूचि के अनुसार करते हैं। पाठ को मानसिक विकार्य पाठ्य-पुस्तकों के बिना सम्भव नहीं है। अध्यापक द्वारा बताई गई अनेक बातें छात्र कक्षा में भूल बार बात सुनकर याद कर लें। अतः यह आवश्यक हो जाता है जाते हैं; उनकी स्मरण शक्ति इतनी तीव्र नहीं होती कि वे एक. पुनः दोराह लें।


पाठ्य पुस्तक के दो तत्व होते हैं। 
अ) आंतरिक तत्व          ब) बाह्य तत्व

① आंतरिक तत्व :-

(ⅰ) पुस्तक की विषय सामग्री कक्षा स्तर के अनुकूल हो

(ⅱ) पाठ्यपुस्तक का निर्माण छात्रो की रुचि को केन्द्रित करके किया जाना चाहिए

(iii) पाठ्‌यपुस्तकें छात्रो की भावात्मक व मानसिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाली होनी चाहिए जैसे - प्राथमिक स्तर पर दैनिक व्यवहार, घर, विद्यालय, माता-पिता, परिवार, जानवर इत्यादि विषयो का सचित्र वर्णन होना चाहिए।

(iv) उच्च प्राथमिक स्तर पर कहानी, एकांकी, कविताएँ इत्यादि का वर्णन होना चाहिए । 

(V) रोचकता, उद्देश्यता, व्यवहारिकता होनी चाहिए

(Vi) मौलिकता एवं नैतिकता से युक्त

(vii) शीर्षक का उचित समावेश शीर्षक के अनुसार पाठ का निरुपण

(viii) समाज व राष्ट्र की आवश्यकता के अनुकूल
(ix) मनोवैज्ञानिक आवश्यकता के अनुकूल

(x ) पाठ्‌य‌पुस्तक की सामग्री बच्चों के परिवेश से जुड़ी हो

(Xi) भाषा बच्चों के परिवेश से मिलती जुलती तथा प्रभाव पूर्ण होनी चाहिए

(Xii) व्याख्या, अभ्यास व गृहकार्य के प्रश्न दिए हो। 


② बाह्य तत्व :-

(i) नामकरण अच्छा होना चाहिए

(ii) सजिल्द

(iii) कवर रंगीन एवं सचित्र

(iv) स्पष्ट मुद्रण

(V) आकार मध्यम

(vi) कागज - उचित स्तर ( जल्दी फटे नहीं, जल्दी गले नहीं)

(vii) अक्षरों का आकार मध्यम

(viii) अनुक्रमणिका एवं सम्पादक का पूर्ण विवरण

(ix) मूल्य अंकित होना चाहिए (कम लागत होनी चाहिए)


विशेषताएँ:- पाठ्‌यपुस्तक साधन व साध्य दोनों है।

पाठ्‌यपुस्तक की सर्वप्रथम रचना- कौमेनियत 1657

केन्द्रीय शिक्षा बोर्ड की पाठ्‌यपुस्तक सलाहकार समिति का मानना है कि -" बिना पाठ्‌यपुस्तक के शिक्षा की व्यवस्था ठीक वैसी ही होगी जैसे बिना डेनमार्क के राजकुमार के हेमलेट की कल्पना" । 

पाठ्यपुस्तकों का महत्व -

  1. *आत्मविश्वास में वृद्धि
  2. *अध्ययन - अध्यापन का सेतु उचित मार्गदर्शन
  3. *ज्ञान के स्थायीकरण का कार्य
  4. *स्वाध्याय के विकास में सहायक
  5. *ज्ञान के साथ मनोरंजन का कार्य
  6. *भाषा तत्वों का ज्ञान
  7. *भाषायी कौशलों के विकास में सहायक
  8. *शब्द भण्डार में वृद्धि।


हिन्दी शिक्षण विधि अभ्यास प्रश्न


अभ्यास प्रश्न


1 अनुकरण विधि में 'भाषा' और 'शैली' से संबंधित सही उत्तर है-

(अ) दोनों  छात्र की  (स) शिक्षक, छात्र की

(बु) छात्र, शिक्षक की (द) दोनों शिक्षक की

Ans ब) 

 2. अनुकरण विधि किस कक्षा स्तर के लिए उपयुक्त है? 

(अ) उच्च स्तर

(ब) प्राथमिक स्तर

(स) सभी स्तर

(द) माध्यमिक स्तर

Ans द) 

3 . अनुकरण विधि का प्रयोग किया जाता है-

(अ) रचना शिक्षण में

(ब) द्वितीय भाषा शिक्षण में

(स) अभिव्यक्ति की शिक्षा में

(द) उपर्युक्त सभी में

Ans द) 

4. अनुकरण विधि का उच्च स्तर पर परिष्कृत रूप है-

(अ) आगमन विधि

(ब) उ‌द्बोधन विधि

(स) आदर्श विधि

(द) रूपरेखा विधि

Ans स) 

5. बच्चों को लेखन (अक्षर) का अभ्यास कराने में उपयुक्त विधि है-

अ) अनुकरण विधि

ब) आगमन विधि

स) अर्थबोध विधि

द) रूपरेखा विधि

Ans अ) 

6. छात्रों को नवीन परिस्थितियों से उचित सामना करने में समर्थ बनाने वाली विधि है-

(अ) निरीक्षण विधि (स) निगमन विधि

(ब) इकाई विधि (द) सूत्र विधि

Ans ब) 

7. इकाई विधि का दोष है-

(अ) कौशल अविकसित करना

(ब) क्रमिकता का अभाव 

(स) प्रशिक्षण की विधि होना

(द) शिक्षण सामग्री का बंटवारा

Ans ब) 

8. इकाई विधि का सबसे बड़ा गुण है-

अ) प्राकृतिक परिस्थितियों द्वारा कौशल विकास

ब) एक इकाई को समग्र शिक्षण करना

स) शिक्षण सामग्री को क्रमिकता से प्रस्तुत करना

द) इनमें से कोई नहीं

Ans अ) 

9. प्रत्यक्ष विधि का द्वितीय भाषा सिखाने का मुख्य सिद्धांत नहीं है

अ) बातचीत द्वारा

ब) व्याकरण द्वारा

स) मौखिक अभ्यास द्वारा

द) व्यावहारिक रूप में

Ans ब) 

10. प्रत्यक्ष विधि से किस प्रणाली विधि के दोष स्वयं दूर हो जाते है

(अ) व्याकरण-अनुवाद (ब) भाषा-वैज्ञानिक

(स) सैनिक-विधि       द) गठन-पद्धति

Ans अ) 

11. निम्न में से प्रत्यक्ष विधि के संबंध में सत्य है- 

(अ) सभी संज्ञा शब्दों का ज्ञान कराती है।

(ब) सभी वाक्यों रचनाओं का ज्ञान कराती है। 

(स) उपर्युक्त दोनो

(द) इनमें से कोई नहीँ। 

Ans द)

12. प्रत्यक्ष विधि से संबंधित असत्य कथन है-

अ) व्याकरण सहायता का अभाव

ब) व्यावहारिकता पर बल

स) अनुवाद का अभाव

द) सैद्धान्तिकता पर भी बल

Ans  द) 

13. द्वितीय भाषा शिक्षण की सर्वाधिक प्रचलित एवं प्राचीनतम पद्धति है

अ) प्रत्यक्ष विधि

ब) व्याकरण-अनुवाद

स) भाषा वैज्ञानिक विधि

द) आगमन विधि

Ans  ब) 

14. किस विधि पर द्वितीय भाषाओं की 'स्वयं शिक्षण मालाएँ' आधारित है-

(अ) व्याख्यान

(ब) प्रत्यक्ष विधि

(स) व्याकरण-अनुवाद

(द) आगमन विधि

Ans स) 

15. कौनसा अनुवाद व्याकरण विधि का दोष है?

(क) अवैज्ञानिक पद्धति

(ख) भाषा गठन की समस्या

(ग) अनुवाद पर अधिक बल

(घ) समानार्थी शब्दों की समस्या

(अ) क, ग, घ

(ब) ख, ग, घ

(स) क, ख

(द) क, ख, ग, घ

Ans द) 

16. बोलने की अपेक्षा लिखने-पढ़ने पर तथा भाषा की अपेक्षा भाषा तत्वों पर अधिक बल देती है-

(अ) व्याकरण-अनुवाद विधि

(ब) भाषा-वैज्ञानिक विधि

(स) श्रव्य-भाष्य विधि

(द) आगमन-निगमन विधि

Ans अ) 

17.द्विभाषी विधि का प्रयोग उपयोगी है-

(अ) नर्सरी कक्षा

(ब) प्राथमिक कक्षा

(स) माध्यमिक कक्षा

(द) उच्च कक्षा

Ans द) 

18.द्विभाषी पद्धति है

(अ) मातृभाषा की

(ब) अन्यभाषा की

(स) दोनों की

(द) इनमें से कोई नहीं

Ans ब) 

19. निम्न में से द्विभाषी पद्धति से संबंधित सही कथन नहीं है-

(अ) अनुवाद शिक्षण द्वारा

(ब) सम्मेलनों व गोष्ठियों में प्रयोग

(स) छोटी कक्षाओं में असंभव

(द) मातृभाषा शिक्षण में उपयोगी '

Ans  द

20 किस विधि में भाषा संघटना पर बल दिया जाता है?

(अ) सैनिक विधि

(ब) प्रत्यक्ष विधि

(स) अनुवाद विधि

(द) सूत्र विधि

Ans अ) 

21. सेना विधि किस विधि के दोषों को दूर करती है?

(अ) सूत्र विधि

(ब) दूरस्थ शिक्षण 

(स) वाचन विधि 

(द) प्रत्यक्ष विधि

Ans द) 

22. कौनसी विधि 'आर्मी मैथड़' से संबंधित नहीं है?

(अ) श्रव्य-भाष्य

(ब) भाषा वैज्ञानिक

(स) अनुकरण-परिष्करण

(द) अन्तर्बोध

Ans द) 

23.निम्न में से कौनसा कथन सैनिक विधि के संबंध में गलत है

(अ) यह द्वितीय भाषा शिक्षण विधि है।

(ब) इसमें सिद्धान्तों की जगह कौशलों का अभ्यास कराया जाता है।

(स) यह मौखिक कथनों पर बल देती है।

(द) यह संवाद का अर्थ बताना, उसे याद कराती है।

Ans द) 

24. माइकिल सेमर (1535) द्वारा प्रतिपादित विधि है-

(अ) प्रत्यक्ष विधि

(ब) सैनिक विधि

(स) अभिक्रमित अधिगम

(द) ध्वन्यात्मक विधि

Ans द) 

25. ध्वन्यात्मक विधि में सर्वप्रथम सिखाएँ जाते है?

(अ) व्यंजन

(ब) वाक्य

(स) स्वर

(द) शब्द

Ans  स) 

26. ध्वन्यात्म विधि किस के आधार पर विकसित की गई है?

(अ) प्रत्यक्ष विधि

(ब) रोमन विधि

(स) सूत्र विधि

(द) व्याख्यान विधि

Ans  ब) 

27. कौनसा ध्वन्यात्मक विधि का दोष है?

(अ) वाचन शिक्षण में उपयोगी होना 

(ब) वर्ण-ध्वनि को अलग-अलग मानना

(स) केवल हिंदी शिक्षण में उपयोगी होना

(द) वर्ण पर अधिक बल देना

Ans  ब) 

28. दूरस्थ शिक्षण विधि किस शिक्षा से अधिक निकट है?

(अ) अनौपचारिक

(ब) निरोपचारिक

(स) औपचारिक

(द) पारम्परिक

Ans ब) 

29. किस शिक्षण बिधि में तकनीकी साधनों का प्रयोग किया जाता है

(अ) सूत्र विधि

(ब) व्याख्यान विधि

(स) दूरस्थ विधि

(द) श्रुत लेखन विधि

Ans  स) 

30. दूरस्थ विधि से संबंधित नहीं है-

(अ) स्वाध्ययन

(ब) तकनीकी सहायता

(स) व्यवस्थित सामग्री 

(द) नियन्त्रण

Ans द) 

31. दूरस्थ विधि से संबंधित कथन है-

(अ) प्रत्यक्ष शिक्षण कार्य

(ब) शिक्षण का भार बढ़ना

(स) व्यक्तिगत रूचि

(द) अनियमित योजना

Ans स) 

(37) निम्न में से मौन वाचन का प्रकार नहीं है-

(अ) अनुकरण वाचन 

(ब) वैयक्तिक वाचन

(स) द्रुतवाचन

(द) समवेत वाचन

Ans स) 

33. प्राथमिक कक्षाओं में 'उच्चारण शुद्धि' में उपयोगी शिक्षण विधि है। 

(अ) श्रुत लेखन विधि (ब) प्रत्यक्ष विधि

(स) वैयक्तिक मौन वाचन (द) वाचन विधि

Ans द) 

34.वाचन की कौनसी विधि संकोची छात्रों के लिए उपयोगी है?

(अ) वैयक्तिक वाचन

(ब) मौन वाचन

(स) समवेत वाचन

(द) आदर्श वाचन

Ans स

35. वाचन विधि से संबंधित लाभ नहीं है-

(अ) लिखित अभिव्यक्ति

(ब) स्वाध्याय में रूचि

(स) अर्थबोध में प्रभावी

(द) प्रवाहशीलता व स्पष्टता

Ans अ

36 . पर्यवेक्षित अध्ययन विधि में शिक्षक का कार्य नहीं है-

(अ) निरीक्षण

(ब) निर्देशन

(स) समस्या समाधान

(द) स्वाध्याय अध्ययन

Ans द 

37. पर्यवेक्षित अध्ययन विधि का अन्य या दूसरा नाम है-

(अ) निर्देशित स्वाध्याय प्रणाली

(ब) विश्लेषणात्मक प्रणाली

(स) अभिक्रमित अध्ययन प्रणाली

(द) साहचर्य प्रणाली

Ans अ

38. कौनसा सोपान पर्यवेक्षित अध्ययन विधि का नहीं है?

(अ) मूल्यांकन

(ब) क्रियान्वयन

(स) सामान्यीकरण

(द) नियोजन

Ans स

39. निम्न में से पर्यवेक्षित अध्ययन विधि का लाभ नहीं है-

(अ) स्वाध्याय की प्रेरणा

(ब) अर्थग्रहण में सहायक

(स) गद्य के विकास में अनुपयोगी

(द) अन्तःक्रिया में वृद्धि

Ans स

40. कहानी शिक्षण के कौशलात्मक उ‌द्देश्य हैं

(अ) घ्यानपूर्वक सुनने की दक्षता का विकास

(ब) मौखिक व लिखित आदि कौशलों को विकसित करना

(स) कहानी लेखन में निपुणता विकसित करना

(द) उक्त सभी

Ans द

41. आगमन व निगमन विधियों का मिश्रित रूप कहलाता है-

(अ) भाषा संसर्ग

(ब) विश्लेषणात्मक

(स) अभिक्रमित अनुकरण

(द) पर्यवेक्षितः अध्ययन

Ans ब

42 . आगमन-निगमन (विश्लेषणात्मक) विधि में प्रथम कार्य किया जाता है। 

(अ) विश्लेषण

(ब) सामान्यीकरण

(स) नियम बताना

( द) उदाहरण देना

Ans द

43.


विश्लेषणात्मक विधि सर्वाधिक उपयोगी है-

अ) रचना शिक्षण,

ब) व्याकरण शिक्षण

स) गद्य शिक्षण

द) पद्य शिक्षण

Ans ब

44. विश्लेषणात्मक विधि में कार्य करने व अनुसरण का सही क्रम है-

(अ) उदाहरण-विश्लेषण-सामान्यीकरण परीक्षण

(ब) उदाहरण-परीक्षण सामान्यीकरण-विश्लेषण

(स) उदाहरण-सामान्यीकरेण-परीक्षण-विश्लेषण

(द) उदाहरण-विश्लेषण-परीक्षण-सामान्यीकरण..

Ans अ

45. 'सक्रिय अनुबंध अनुक्रिया' सिद्धांत पर आधारित शिक्षण विधि है

(अ) अभिक्रमित अनुदेशन

(ब) भाषा प्रयोगशाला

(स) यन्त्र विधि

(द) दूरस्थ विधि

Ans अ

46. 'अभिक्रमित अनुदेशन' विधि से संबंधित नहीं है-

(अ) स्वगति

(ब) पुनर्बलन

(स) स्वयं परीक्षण

द) वृहद पद 

Ans द

47. 'अभिक्रमित अनुदेशन विधि' का लाभ नहीं है-

(अ) रूचिनुसार विषयवस्तु चयन

(ब) रचना शिक्षण में

(स) विदेशी भाषा में सुगम

(द) तर्कक्षमता में अनुपयोगी

Ans द

48. निम्न में से अभिक्रमित अनुदेशन का आधार नहीं है-

(अ) छोटे-छोटे पदों का

(ब) सक्रिय अनुबंध अनुक्रिया का पुनर्वलन

(स) व्यक्तिगत विभिन्नता पर

(द) एक विकल्प परीक्षण का

Ans द

49. किस विधि द्वारा कवि के हृदयस्थ भावों को समग्र रूप में प्रस्तुत किया जाता है?

(अ) अभिनय विधि

(ब) कविता पाठ

(स) रसास्वादन

(द) सूत्र विधि

Ans स

50. रसास्वादन विधि का प्रयोग सर्वाधिक उपयोगी है-

(अ) प्राथमिक स्तर

(ब) माध्यमिक स्तर

(स) उच्च स्तर

(द) सभी स्तरों पर

Ans अ

51. रसास्वादन विधि आधारित है-

(अ) भाव

(ब) रस

(स) अर्थ

(द) कला

Ans ब

52. रसास्वादन विधि में निम्न में से किस पर बल नहीं दिया जाता-

(अ) भाव सौंदर्य

(ब) अर्थ बोध

(स) कला सौंदर्य

(द) भावानुभाव

Ans ब

53 प्राचीन व अमनोवैज्ञानिक विधि का उदाहरण है- 

(अ) चित्र रचना विधि

(ब) आदर्श विधि

(स) सूत्र विधि

(द) आगमन विधिना

Ans स

54 . व्याकरण की सूत्र विधि हिंदी में किस भाषा से आई है-

(अ) अंग्रेजी

(ब) अरबी

(स) संस्कृत

(द) बंगला

Ans स

55. पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' पढ़ाने हेतु किस विधि का प्रयोग उत्तम है?

(अ) सूत्र विधि

(ब) आगमन विधि

(स) व्याख्या विधि

(द) इनमें से कोई नहीं

Ans अ

56. सूत्र प्रणाली किस सिद्धान्त पर आधारित नहीं है

(अ) सामान्य से विशिष्ट की ओर

(ब) सूक्ष्म से स्थूल की ओर

(स) सिद्धान्त से उदाहरण की ओर

(द) पूर्ण से अंश की ओर 

Ans द

Friday, March 29, 2024

संस्कृत भाषा कौशल

भाषा कौशल चार होते हैं

सुनना ( श्रवण) L :- 

  • प्रथम कौशल 
  • उद्देश्य:- श्रुत्वा अर्थग्रहण 
  • ध्वनि विज्ञान से संबंधित 


बोलना ( वदन) S :- 

  • द्वितीय कौशल 
  • उद्देश्य:- मौखिक अभिव्यक्ति 
  • ध्वनि विज्ञान से संबंधित


पढ़ना ( पठन) R:- 

  • तृतीय कौशल
  • उद्देश्य:- पठित्वा अर्थग्रहण 
  • लिपि विज्ञान से संबंधित


लिखना ( लेखन) W :- 

  • चतुर्थ कौशल
  • उद्देश्य:- पठितस्य लिखित अभिव्यक्ति
  • लिपि विज्ञान से संबंधित



    इनपुट                                                   आउटपुट

  1. आंतरिक                                       बाह्य
  2. ग्रहणात्मक                                    अभिव्यक्तित्मक
  3. श्रवण                                           भाषण/ वदनम
  4. पठन                                           लेखनम

Sunday, August 6, 2023

विश्लेषण संश्लेषण विधि


महत्त्वपूर्ण तथ्य :- विश्लेषण विधि के शिक्षण सूत्र निगमन विधि के शिक्षण सूत्रों पर आधारित होते हैं लेकिन विश्लेषण विधि की प्रकृति आगमन विधि के समान होती है ।


(वि नि शि) = विश्लेषण - निगमन - शिक्षण सूत्र 

संश्लेषण विधि के शिक्षण सूत्र आगमन विधि के शिक्षण सूत्रों पर आधारित होते हैं लेकिन संश्लेषण विधि की प्रकृति निगमन विधि के समान होती ।

Most Important Fact : 

शिक्षण सूत्रों के प्रश्न में आगमन और संश्लेषण विधि दोनो की ऑप्शन में हो तो संश्लेषण विधि को प्रथम वरीयता दी जानी चाहिए 

विश्लेषण विधि


यह विधि विश्लेषण प्रक्रिया पर आधारित है। गणित की समस्याओं के विश्लेषण में हम इस विधि का उपयोग करते हैं। यह विधि रेखागणित में अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है। इस विधि की सहायता से किसी भी समस्या के कठिन भाग का विश्लेषण करके यह ज्ञात किया जाता है कि इस समस्या का हल किस प्रकार किया जाए? इस प्रकार समस्याओं के विभिन्न भागों का विच्छेदन करने को ही विश्लेषण कहते हैं। 

इस विधि में हम "अज्ञात से ज्ञात की ओर 'निष्कर्षो से ज्ञात तथ्यों की ओर' चलते हैं। इस विधि में जो ज्ञात करना होता है या सिद्ध करना होता है उससे आरम्भ करते हैं कि इसे ज्ञात करने के लिए या सिद्ध करने के लिए हमें पहले क्या ज्ञात करना चाहिए? इस प्रकार ज्ञात करते-करते जो कुछ दिया जाता है, उस तक पहुँच जाते हैं। जटिल समस्याओं को हल करने के लिए इस विधि का ही प्रयोग करते हैं क्योंकि इसके द्वारा उस समस्या को छोटे-छोटे भागों में बाँट लेते हैं जिसके कारण उसका हल ढूंढ़ना सरल हो जाता है। 

मुख्यतया इस विधि का प्रयोग अग्रलिखित परिस्थितियों में किया जाता है- 

i) जब किसी साध्य को हल करना हो

ii) जब रेखागणित में किसी रचना कार्य को हल करना हो।

iii) जब अंकगणित में किसी नवीन समस्या को हल करना हो इस विधि में प्रत्येक पद का अपना महत्त्व तथा आधार होता है। इसलिए किसी समस्या का विश्लेषण ठीक प्रकार से करना चाहिए।


विश्लेषण विधि के गुण

1.यह विधि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित है।

2.इस विधि में बालक स्वयं अपनी समस्याओं के समाधान के लिए हल ढूंढ़ सकता है।

3. किसी प्रमेय की उपपत्ति (Proof) तथा निर्मेय की रचना इस विधि द्वारा ही समझी जा सकती है।

4. इस विधि के द्वारा छात्रों में अन्वेषण करने की क्षमता और आत्म-विश्वास में वृद्धि होती है। 

5. इस विधि से छात्रों में तर्क शक्ति, विचार शक्ति तथा विश्लेषण करने की क्षमता का विकास होता है। 

6. इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान अधिक स्थायी होता है तथा छात्र नवीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहता है।


विश्लेषण विधि के दोष


1. यह विधि छोटी कक्षाओं के छात्रों के लिए उपयुक्त है क्योंकि उस समय उनकी तर्कशक्ति तथा विश्लेषण की क्षमता अधिक विकसित नहीं होती है।

2. इस विधि द्वारा शिक्षण करने पर पाठ्यक्रम को निर्धारित समय में पूरा नहीं किया जा सकता है। 

3. इस विधि द्वारा समस्या को हल करने में अधिक समय लगता है क्योंकि विश्लेषण तथा तर्क की प्रक्रिया लम्बी होती है। 

4.विश्लेषणात्मक विधि का उपयोग तभी संभव है जब हमें ज्ञात तथ्यों तथा अज्ञात निष्कर्षों की जानकारी है। 

5. प्रत्येक अध्यापक इस विधि के प्रयोग करने में सफल नहीं हो सकता है ।



संश्लेषण विधि :- 


यह विधि संश्लेषण कार्य पर आधारित है। संश्लेषण का अर्थ- * अलग-अलग भागों को जोड़ना है।" इस विधि में 'ज्ञात से अज्ञात' की ओर चलते हैं। जब कोई समस्या सामने आती है तो सबसे पहले दी गई समस्त सूचनाओं को एकत्र करते हैं और फिर उसे हल करते। हैं।


संश्लेषण में एक तथ्य की सत्यता की जाँच की जाती है, परंतु इससे प्रस्तुत समस्या का वास्तविक रूप ज्ञात नहीं हो पाता है। गणित शिक्षक को ज्यामिति तथा रेखागणित शिक्षण करते समय विश्लेषण एवं संश्लेषण दोनों विधियों का एक साथ प्रयोग करना चाहिए। सर्वप्रथम समस्या का विश्लेषण करना चाहिए जिससे छात्र यह जान सके कि कोई रचना कार्य या किसी पद का उपयोग क्यों किया गया है? तथा समस्या का हल ज्ञात करने में इससे क्या सहायता मिलेगी ? इस प्रकार इस विधि द्वारा प्रस्तुत हल संगठित क्रमबद्ध तथा सरलता से समझा जा सकता है।

समस्याओं को शीघ्रता, स्वच्छता और स्पष्टता से हल करने की दृष्टि से यह एक उपयुक्त विधि है।


विश्लेषण तथा संश्लेषण विधि में अंतर 


1. विश्लेषण विधि में छात्रों को नवीन ज्ञान प्राप्त करने के अवसर मिलते हैं।विश्लेषण विधि द्वारा छात्रों में आत्म-निर्भरता तथा आत्म- विश्वास का विकास होता है। विश्लेषण विधि से समस्याओं को शीघ्र एवं स्वच्छता से हल करना सीख सकते हैं।

संश्लेषण विधि में  छात्रों को पहले से तैयार सामग्री उपलब्ध हो जाती है जिससे उन्हें अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता है। इसमें आत्मनिर्भरता तथा आत्मविश्वास की कमी रहती है क्योंकि छात्र समस्याओं का हल स्वयं नहीं खोजता है।


2. विश्लेषण विधि द्वारा इस बात का स्पष्ट उत्तर मिलता है कि रचना का कोई पद या उपपत्ति का कोई पद क्यों लिया गया है.? 

संश्लेषण विधि द्वारा केवल यह प्रदर्शित किया जाता है कि उपपत्ति या रचना का प्रत्येक पद सही है, परन्तु सही क्यों है? यह बात स्पष्ट नहीं होती।


3.विश्लेषण का अर्थ किसी समस्या को उसके विभिन्न भागों से विभाजित करना है।

संश्लेषण का अर्थ समस्या के विभिन्न छोटे-छोटे भागों को एकत्रित करके निर्धारित लक्ष्य की ओर बढ़ना है।


4. विश्लेषण विधि के द्वारा खोज करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है। इस विधि में अज्ञात से ज्ञात की ओर चलते हैं।

संश्लेषण विधि में खोजे गए तथ्यों को संक्षेप में लिखा जाता है।इस विधि में ज्ञात से अज्ञात की ओर चलते हैं तथा समस्या में दी गई बातों को आधार मानकर निष्कर्ष प्राप्त करते हैं।

5.विश्लेषण विधि में छात्रों को अपनी मानसिक शक्तियों का उपयोग करने का पूर्ण अवसर मिलता है। इस विधि में शिक्षक तथा छात्र दोनों ही सक्रिय रहते हैं। 

संश्लेषण विधि में बालकों को मानसिक शक्ति के उपयोग के कोई अवसर नहीं मिलते हैं। इसके द्वारा छात्रों को रटने की आदत पड़ती है। इसमें छात्र निष्क्रिय तथा शिक्षक का चिंतन क्रियाशील रहता है।

6. विश्लेषण विधि एक दीर्घ विधि है। इसमें परिश्रम और समय दोनों ही अधिक लगता है।

संश्लेषण विधि में समय तथा परिश्रम दोनो ही लगते हैं। यह एक सूक्ष्म विधि है। 

Saturday, August 5, 2023

गणित आगमन निगमन विधि

 आगमन विधि


आगमन विधि में अनुभवों, प्रयोगों तथा उदाहरणों का विस्तृत अध्ययन करके नियम बनाए जाते हैं इस विधि द्वारा शिक्षण करते समय शिक्षक बालकों के समक्ष कुछ विशेष परिस्थितियाँ एवं उदाहरण प्रस्तुत करता है। 

इन उदाहरणों के आधार पर बालक तार्किक ढंग से विचार-विमर्श करते हुए किसी विशेष सिद्धांत, नियम अथवा सूत्र पर पहुँचते हैं। 

नियमों, सूत्रों आदि का प्रतिपादन करते समय इस विधि में बालक अपने अनुभवों, मानसिक शक्तियों तथा पूर्व ज्ञान का प्रयोग करता है। यह एक सामान्य अनुमान है कि कोई बालक कुछ विशेष परिस्थितियों या उदाहरणों को देखकर या अनुभव करके उनमें पाई जाने वाली एकरूपता को निष्कर्ष के रूप में अपना लेता है। 

उदाहरण के लिए जलने वाली विभिन्न वस्तुओं के पास गर्मी का अनुभव करके बालक यह धारणा बना लेता है कि जलने वाली वस्तुएँ गर्मी उत्पन्न करती है। 

आगमन विधि इसी प्रकार की अवधारणाओं पर आधारित है। इसलिए इस विधि को आगमन या सामान्यानुमान विधि कहते हैं।

परिभाषा


यंग के अनुसार इस विधि में बालक विभिन्न स्थूल तथ्यों के आधार पर अपनी मानसिक शक्ति का प्रयोग करते हुए स्वयं किसी विशेष सिद्धांत, नियम अथवा सूत्र पर पहुँचता है।


लैण्डल के अनुसार जब बालकों के समक्ष अनेक तथ्यों, उदाहरणों एवं वस्तुओं को प्रस्तुत किया जाता है, तत्पश्चात् बालक स्वयं ही निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास करते हैं, तब वह विधि आगमन विधि कहलाती है। 

कार्य विधि

आगमन विधि द्वारा शिक्षण करते समय उदाहरणों से नियमों की ओर, विशेष से सामान्य की ओर तथा स्थूल से सूक्ष्म की ओर अग्रसर रहते हैं। अत: छात्र स्वयं भिन्न-भिन्न स्थूल तथ्यों के आधार पर अपनी मानसिक शक्ति का प्रयोग करते हुए उदाहरणों के आधार पर किसी निष्कर्ष अथवा सामान्यीकरण पर पहुँचता है। इस प्रक्रिया को ही आगमन की प्रक्रिया कहते हैं।


आगमन विधि के पद / सोपान (Steps in Inductive Method) - इस विधि द्वारा शिक्षण करते समय मुख्यरूप से निम्नलिखित पदों सोपानों का प्रयोग किया जाता है

 i) विशिष्ट उदाहरणों का प्रस्तुतीकरण


ii) निरीक्षण करना


iii) नियमीकरण या सामान्यीकरण करना


iv) परीक्षण एवं सत्यापन करना

ट्रिक - उ नि नि परी 

i) विशिष्ट उदाहरणों का प्रस्तुतीकरण (Presentation of Specific Examples)- इस सोपान में अध्यापक द्वारा बालकों के समक्ष एक ही प्रकार के कई उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं तथा बालकों की सहायता से उन उदाहरणों का हल (Solution) प्राप्त कर लिया जाता है।


ii) निरीक्षण करना (Observation)- प्रस्तुत किए गए उदाहरणों का हल ज्ञात करने के बाद बालक उनका निरीक्षण करते हैं तथा अध्यापक के सहयोग से किसी परिणाम या निष्कर्ष पर पहुँचने की चेष्टा करते हैं।


iii)नियमीकरण या सामान्यीकरण करना(Generalization) - प्रस्तुत किए गए उदाहरणों का निरीक्षण - करने के बाद अध्यापक तथा बालक तर्कपूर्ण ढंग से विचार-विमर्श करके किसी सामान्य सूत्रों, सिद्धान्त या नियम को निर्धारित करते हैं।

iv) परीक्षण एवं सत्यापन (Testing and Verification) - किसी सामान्य सूत्रों, सिद्धान्त या नियम का निर्धारण करने के पश्चात् बालक अन्य उदाहरणों अथवा समस्यात्मक प्रश्नों की सहायता से निर्धारित नियमों का परीक्षण एवं सत्यापन करते हैं। 

इस प्रकार उपर्युक्त सोपानों का अनुसरण करते हुए बालक आगमन विधि द्वारा ज्ञान अर्जित करते हैं तथा उनकी विभिन्न मानसिक शक्तियों का भी विकास होता है।

आगमन विधि के गुण एवं विशेषताएँ [Merits of Inductive Method ] 

1. यह एक वैज्ञानिक विधि है क्योंकि इस विधि द्वारा अर्जित ज्ञान प्रत्यक्षतथ्यों पर आधारित होता है। 

2. इस विधि के द्वारा बालक को नियम, सूत्रों का निर्धारण एवं सामान्यीकरण की प्रक्रिया का ज्ञान हो जाता है।

3. इस विधि में बालक स्वयं उदाहरण, निरीक्षण और परीक्षण के द्वारा ज्ञान अर्जित करते हैं, इसलिए इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान अधिक स्थायी होता है।

4.आगमन विधि द्वारा बालकों की आलोचनात्मक, निरीक्षण एवं तर्कशक्ति का विकास होता है।

 5. यह विधि मनोवैज्ञानिक है क्योंकि इसमें मनोविज्ञान के विभिन्न महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का अनुकरण किया जाता है।

6. इस विधि द्वारा बालकों को स्वयं कार्य करने की प्रेरणा मिलती है जिससे उनमें आत्म-निरीक्षण तथा आत्म-विश्वास की वृद्धि होती है। 

7. इस विधि की सहायता से गणित के विभिन्न नियमों, सम्बन्धों तथा नवीन सिद्धान्तों आदि का प्रतिपादन करने में सहायता मिलती है 

8. यह छोटी कक्षाओं के लिए अति उपयोगी एवं उपयुक्त विधि है ।

9.इसके द्वारा बालकों में गणित के प्रति उत्सुकता एवं रुचि बनी रहती है 

10. इस विधि में बालक उदाहरणों की सहायता से स्वयं ज्ञान प्राप्त करते है जिसके कारण वे थकान का अनुभव नहीं करते तथा नवीन ज्ञान की प्राप्ति में सक्रिय बने रहते हैं।

11. सभी प्रकार के बालकों के लिए उपयुक्त विधि है 

12. इसके द्वारा प्राप्त ज्ञान स्थाई होता है।

13. यह बाल केंद्रित विधि है।

आगमन विधि की सीमाएँ या दोष (Limitations or Demerits of Inductive Method)

यह बात बिल्कुल सच है कि आगमन विधि गणित शिक्षण की एक महत्त्वपूर्ण विधि है। बहुत सी विशेषताएँ लाभ होते हुए भी इस विधि की अपनी कुछ सीमाएँ (दोष) भी हैं जो निम्नलिखित हैं-


1. इस विधि की गति अत्यन्त धीमी है जिससे इसके द्वारा ज्ञान प्राप्ति में समय और परिश्रम अधिक लगता है। 

2. इस विधि का प्रयोग करने के लिए पर्याप्त बुद्धि, सूझ-बूझ एवं परिश्रम की आवश्यकता होती है। अतः सभी स्तरों के बालकों के लिए इसके द्वारा ज्ञान प्राप्त करना आसान नहीं है।

3.यह विधि निम्न कक्षाओं के लिए ही उपयोगी है क्योंकि उच्च कक्षाओं में पाठ्यक्रम इतना विस्तृत होता है कि इस विधि द्वारा सम्पूर्ण ज्ञान सीमित समय में प्राप्त करना संभव नहीं है।

4.अनुभवी एवं योग्य अध्यापक ही इस विधि का सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकते हैं। 

5. इस विधि द्वारा बालकों में समस्या समाधान की योग्यता एवं क्षमता में विकास सम्भव नहीं है।

6. नियमीकरण अथवा सामान्यीकरण के लिए प्रत्यक्ष उदाहरणों का चयन एवं प्रस्तुतीकरण शिक्षक एवं शिक्षार्थी के लिए आसान काम नहीं है।

7. इस विधि द्वारा प्राप्त परिणाम पूर्णतया सत्य नहीं होते, उनकी सत्यता इस बात पर निर्भर करती है कि वह परिणाम कितने उदाहरणों पर आधारित है, क्योंकि कोई भी परिणाम नियम आदि) जितने अधिक विशिष्ट उदाहरणों पर आधारित होता है, उसकी विश्वसनीयता एवं सत्यता उतनी ही अधिक होती है।


आगमन विधि के सूत्र :- ट्रिक ( आ वि स् ज्ञात) = आगमन विधि, विशिष्ट ,स्थूल ,ज्ञात 

  • ज्ञात से अज्ञात की ओर 
  • प्रत्यक्ष से प्रमाण की ओर 
  • स्थूल से सूक्ष्म की ओर 
  • विशिष्ट से सामान्य की ओर 
  • उदाहरण से नियम की ओर 




प्राथमिक स्तर पर रेखागणित पढ़ाने के लिए सबसे उपयुक्त विधि है 

( रेखागणित पढ़ाने के लिए सबसे उपयुक्त विधि विश्लेषण विधि है ) सभी स्तरों पर 


अगर प्राथमिक स्तर पूछा जाए तो आगमन विधि ।



निगमन विधि (Deductive Method):-  

निगमन विधि आगमन विधि के बिल्कुल विपरीत है। इस विधि में निगमन तर्क (Deductive Logic) का प्रयोग किया जाता है। निगमन विधि का प्रयोग मुख्यतः बीजगणित, रेखागणित तथा त्रिकोणमिति में किया जाता है क्योंकि गणित के इन उपविषयों में विभिन्न सम्बन्धों, नियमों और सूत्रों का प्रयोग होता है। व्यावहारिक रूप में प्रत्येक नियम अथवा सूत्रों को सत्यापित करना असम्भव ही होता है। निगमन विधि में अभिधारणाओं (Assumptions ), आधारभूत तत्त्वों (Postulates ) तथा स्वयंसिद्धियों (axioms) की सहायता ली जाती है। इस विधि का प्रयोग उच्च कक्षाओं के शिक्षण में अधिक किया जाता है।

कार्य विधि (Procedure):- 

  •  निगमन विधि में सूक्ष्म से स्थूल की ओर (Proceed from abstract to concrete ), 
  • सामान्य से विशिष्ठ की ओर (Proceed from general to particular) 
  •  प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर  
  • नियम से उदाहरण की ओर (Proceed from general rule to example) अग्रसर होते हैं।

इस विधि में बालकों के सम्मुख सूत्रों, नियमों, निष्कर्षो तथा सम्बन्धों आदि को प्रत्यक्ष रूप में प्रस्तुत किया जाता है। बताए गए नियमों, सिद्धान्तों एवं सूत्रों को बालक याद करके कण्ठस्थ कर लेते है। सामान्यतः अध्यापक बालकों को निम्न प्रकार की बातें बताते हैं-

(i) (a + b)(c+d)= ac+ad+ bc+nd आदि सूत्रों का ज्ञान

(ii) किसी त्रिभुज के तीनों कोणों का योग दो समकोण या 180° होता है।

(iii)किसी वृत्त की परिधि  = 2πr आदि ज्यामितीय सूत्रों का ज्ञान।

(iv) साधारण ब्याज ज्ञात करने का सूत्र = मूलधन x दर x समय /100 

(v) इसी प्रकार त्रिकोणमिति में भी sinπ/2 = 1 

निगमन विधि में छात्र सीधे सूत्र का प्रयोग करके प्रश्नों को हल कर लेते हैं तथा भविष्य में प्रयोग करने के लिए उन सूत्रों एवं नियमों को याद कर लेते हैं।


निगमन विधि के पद / सोपान (Steps in Deductive Method) 

Trick : नि सा सू नि 

1. नियम / सूत्र / सिद्धांतों का ज्ञान ( नियम का ज्ञान ) 

2. आँकड़ों के आधार पर परीक्षण ( सामान्यीकरण)

3. सिद्धांतों / सूत्रों का प्रयोग( सूत्रीकरण)

4. उदाहरणों के आधार पर सिद्धांतों का पूर्ण सत्यापन करना( निरीक्षण ) 


निगमन विधि के गुण एवं विशेषताएँ




1. इस विधि के प्रयोग से गणित का कार्य अत्यन्त सरल एवं सुविधाजनक हो जाता है।

2. निगमन विधि द्वारा बालकों की स्मरण शक्ति विकसित होती है, क्योंकि इस विधि का प्रयोग करते समय बालकों को अनेक सूत्र याद करने पड़ते हैं।

3. इस विधि द्वारा ज्ञानार्जन की गति तीव्र होती है, क्योंकि बालक समस्या हल करते समय सीधे सूत्रों का प्रयोग करते हैं। 

4. जब समयाभाव हो तो उन परिस्थितियों में इस विधि का उपयोग करना चाहिए। 

5. रेखागणित में स्वयंसिद्धियों, अंकगणित में पहाड़े आदि को पढ़ाने के लिए इसी विधि का प्रयोग किया जाता है। 

6. इस विधि का प्रयोग करने पर शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों को कम परिश्रम करना पड़ता है।

7. इस विधि द्वारा कम समय में अधिक ज्ञान प्रदान किया जा सकता है।

8. इस विधि द्वारा नियमों, सिद्धान्तों एवं सूत्रों की सत्यता की जाँच आसानी से की जा सकती है।

9. इस विधि के प्रयोग से बालक अभ्यास कार्य शीघ्रता तथा आसानी से कर सकते हैं।

10. यह विधि संक्षिप्त होने के साथ-साथ व्यावहारिक भी है।




निगमन विधि की सीमाएँ या दोष

(Limitations or Demerits of Deductive Method)

आगमन विधि की भाँति निगमन विधि भी गणित शिक्षा की एक महत्त्वपूर्ण विधि है, जिसकी अपनी विशेषताएँ हैं, परन्तु फिर भी इस विधि में कुछ कमियों अथवा सीमाएँ हैं। इस विधि के प्रमुख दोष निम्नलिखित है-


1.यह विधि मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के विपरीत है क्योंकि यह स्मृति-केन्द्रित विधि है। 

2.यह विधि खोज करने की अपेक्षा रटने की प्रवृत्ति पर अधिक बल देती है 

3. इस विधि में बालक यंत्रवत् कार्य करते हैं क्योंकि उन्हें यह पता नही रहता कि वे अमुक कार्य इस प्रकार ही क्यों कर रहे हैं? 

4.इस विधि द्वारा अर्जित किया गया ज्ञान अस्पष्ट एवं अस्थायी होता है, क्योंकि उसे वह अपने स्वयं के प्रयासों से नहीं प्राप्त करते हैं।

5. इस विधि में तर्क, चिन्तन एवं अन्वेषण जैसी शक्तियों को विकसित करने का अवसर नहीं मिलता है।

6. यह विधि छोटी कक्षाओं के लिए उपयोगी नहीं है, क्योंकि छोटी कक्षाओं के बालकों के लिए विभिन्न सूत्रों, नियमों आदि को समझना बहुत कठिन होता है।

7. इस विधि के प्रयोग से अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया अरुचिकर तथा नीरस बनी रहती है। 

8. इस विधि द्वारा बालकों को नवीन ज्ञान अर्जित करने के अवसर नहीं मिलते हैं।


आगमन एवं निगमन विधि में अन्तर


यह हम जानते हैं कि आगमन एवं निगमन विधि एक दूसरे की पूरक हैं, फिर भी दोनों की कार्यविधि, क्रियान्वयन तथा प्रकृति में अन्तर है। इन दोनों विधियों के अन्तर को निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।

1.आगमन विधि में ' विशिष्ट से सामान्य', 'उदाहरण से नियम' तथा 'स्थूल से सूक्ष्म' की ओर शिक्षण सूत्रों का प्रयोग किया जाता है।

* निगमन विधि में 'सामान्य से विशिष्ट', 'नियम से उदाहरण तथा 'सूक्ष्म से स्थूल' की ओर शिक्षण सूत्रों का प्रयोग किया जाता है।



2.आगमन विधि में बालक एक अनुसंधानकर्ता के रूप में कार्य करता है तथा स्वयं सक्रिय रहकर नियम या सूत्र ज्ञात करता है।

* निगमन विधि में बालक को नियम अथवा सूत्र पहले से बता दिए जाते हैं। बालक खोजे गए नियम अथवा सूत्रों की पुष्टि मात्र ही कर पाता है।


3. आगमन विधि द्वारा छात्रों में खोज इसमें छात्रों को खोज प्रवृत्ति प्रवृत्ति का विकास होता है।

* निगमन विधि में खोज प्रवृति विकसित करने का अवसर नहीं मिलता है।


4. आगमन विधि अध्यापन (Teaching) की श्रेष्ठ विधि है 

* निगमन विधि अध्ययन या अधिगम(Learning )की श्रेष्ठ विधि है।




5. आगमन विधि छोटी कक्षाओं के शिक्षण में अधिक उपयोगी है। इस विधि में बालक स्वयं नियम एवं सूत्रों का निर्धारण करते हैं. जिससे उनमें आत्मविश्वास एवं आत्म-निर्भरता जैसे गुणों का विकास होता है।

* निगमन विधि उच्च कक्षाओं के लिए अधिक उपयोगी है। इसमें नियम या सूत्रों को पहले बता दिया जाता है जिससे उनमें आत्मविश्वास की कमी रहती है।



6. "आगमन विधि नवीन ज्ञान की खोज करने में सहायक है यह एक वैज्ञानिक विधि है जिससे छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास होता है। यह विधि खोज या अनुसंधान का मार्ग है। 

* निगमन विधि में बालकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होने के अवसर नहीं मिलते हैं। यह अनुकरण का मार्ग है क्योंकि बालक बताए गए नियमों या सूत्रों का अनुकरण करता है। 

7. आगमन विधि में शिक्षक व शिक्षार्थी दोनों ही सक्रिय रहते हैं अतः यह छात्र केंद्रित विधि है। यह विधि मौलिक एवं रचनात्मक कार्यों पर बल देती है।

* निगमन विधि में शिक्षक ही अधिक सक्रिय रहता है शिक्षार्थी एक मूक श्रोता होता है। यह अध्यापक केंद्रित है। यह विधि समस्या समाधान पर अधिक बल देती है।




8.आगमन विधि द्वारा अध्ययन की प्रक्रिया रुचिकर हो जाती है। इस विधि में प्रत्येक पद या सोपान का महत्त्व होता है तथा बालक उनको लिखना सीख जाते हैं।

* निगमन विधि में  अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया नीरस हो जाती है। इस विधि में बालक बहुत से पदों को लिखना नहीं सीख पाते हैं।

9. अधिगम विधि की  गति धीमी होती है जिससे परिश्रम व समय अधिक लगता है। यह एक मनोवैज्ञानिक विधि है जो कि अवबोध-केंद्रित है।

* निगमन विधि की गति तीव्र होती है इसमें छात्र शिक्षक द्वारा दिए गए ज्ञान का प्रयोग करते हैं। जिससे परिश्रम व समय कम लगता है।यह अपेक्षाकृत अमनोवैज्ञानिक | है तथा स्मृति-केंद्रित है

आगमन एवं निगमन विधि में सम्बन्ध

 यर्थाथ रूप में आगमन एवं निगमन विधि एक दूसरे की पूरक हैं, इसलिए प्रारम्भ में आगमन विधि द्वारा उदाहरणों की सहायता से नियमों तथा सूत्रों का प्रतिपादन करना चाहिए। उसके बाद निगमन विधि द्वारा उनका उपयोग तथा अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि गणितीय नियमों एवं सूत्रों को याद करने तथा उनका उचित उपयोग करके समस्याओं को शीघ्रता से हल करने के लिए निगमन विधि ही काम आती है।


गणित शिक्षण में आगमन एवं निगमन दोनों विधियाँ उसी प्रकार आवश्यक हैं जिस प्रकार चलने के लिए हमें दोनों पैरों की आवश्यकता होती है। आगमन विधि का प्रमुख आधार ज्ञान की उत्पत्ति एवं विकास है जबकि निगमन विधि में ज्ञान की शाश्वत प्रस्तुति ही मुख्य आधार होती है। अतः आगमन विधि अग्रगामी है तथा निगमन विधि उसकी सहगामी दोनों ही विधियों एक-दूसरे की कमियों को दूर करती हैं। इस प्रकार आगमन विधि से सूत्रों तथा नियमों को प्रतिपादित करने के पश्चात् निगमन विधि से आगे बढ़ने तथा अभ्यास करवाने की प्रक्रिया को ही आगमन निगमन विधि Inductive Deductive Method) कहते हैं। अतः गणित विषय सम्बन्धी नवीन तथ्यों, नियमों, सिद्धान्तों और सूत्रों का ज्ञान आगमन विधि द्वारा दिया जाना चाहिए तथा उसका उपयोग व अभ्यास निगमन विधि द्वारा करना चाहिए। दोनों विधियों के समन्वित रूप को निम्न उदाहरण द्वारा और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है।

शिक्षण विधि तथा प्रविधि में अंतर

 गणित शिक्षण विधियाँ (Methods of Mathematics Teaching)


  • शिक्षण अथवा अध्यापन विधियों का शिक्षा के उद्देश्यों से घनिष्ठ संबंध है। शिक्षण विधियों का उद्देश्य केवल बालकों को कुछ बातों का ज्ञान प्रदान करना ही नहीं, बल्कि अध्यापक व बालकों के पारस्परिक संबंधों में सजीवता लाना है।

  • विधि (Method) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा से हुई है। जिसका अर्थ है तरीका (Mode) अथवा रास्ता या मार्ग (Way)। इस प्रकार विधि से आशय "वैज्ञानिक ज्ञान तथा कुशलताओं को एक अध्यापक द्वारा अपने विद्यार्थियों तक पहुँचाने व हस्तान्तरित करने के मार्ग अथवा तरीके से है।"

  • ज्ञान के संसार की छात्रों के मस्तिष्क में व्याख्या करने की प्रक्रिया ही विधि कहलाती है।

  • ज्ञान के संसार में ज्ञान, अनुभव, रुचि, मनोवृत्ति, कौशल आदि समाहित होते हैं। अर्थात् ज्ञान के संसार में व्यवहार के तीनों पक्ष- संज्ञानात्मक, भावात्मक व मनो शारीरिक अथवा गत्यात्मक पक्ष सम्मिलित रहते हैं।


परिभाषा


  1. टेलीरण्ड- विधि शिक्षक की शिक्षक होती है।
  2. वोल्टेअर :- प्रत्येक विधि में कुछ अच्छाइयों होती है। कोई भी विधि पूर्णतया अच्छी नहीं होती।
  3. ब्रॉन्डी :- विदेशों अथवा विभिन्न गतिविधियों के क्रम की औपचारिक संरचना से है। विधि शब्द या पद में शिक्षण की प्रविधियाँ एवं युक्तियों दोनों ही सम्मिलित होती हैं।
  4. स्पेन्सर : यथासंभव बच्चों को कम से कम बताया जाए और अधिक से अधिक खोजने के लिए फुसलाया या लालापित किया जाना चाहिए। विधि (Method) :- वह प्रक्रिया जिसके द्वारा किसी लक्ष्य की प्राप्ति संभव है।


युक्तियाँ (Devices) प्रत्येक विधि के अंतर्गत युक्तियों का प्रयोग किया जाता है जैसे वर्णन करना, प्रश्न करना, प्रयोग प्रदर्शन आदि युक्तियाँ कहलाती हैं। ये युक्तियों सीखने की क्रिया में सहायता देती हैं। ये युक्तियाँ विधियों से भिन्न हैं, परंतु उनके अंतर्गत इनका प्रयोग किया जाता है तथा एक विधि के अंतर्गत कई युक्तियों का प्रयोग संभव है।


प्रविधि (Techniques) प्रविधि किसी युक्ति के अंतर्गत प्रयोग की जाती है। शिक्षण कार्य के दौरान शिक्षक की वास्तविक क्रियाएँ ही प्रविधि हैं। यह किसी भी युक्ति को एक विशेष रूप देती हैं। उदाहरण- प्रश्न करना एक युक्ति है, परंतु प्रश्न किस प्रकार का हो, प्रश्नों की गति क्या हो, प्रश्न करने में शिक्षक के हाव-भाव कैसे हो, प्रश्नों का वितरण कैसा हो आदि सभी क्रियाएँ प्रविधि कहलाती हैं।

 निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि विधि एक योजना है जिसके अंतर्गत युक्ति तथा युक्ति के अंतर्गत प्रविधियाँ आती हैं।



शिक्षण विधि तथा प्रविधि में अंतर 

  1. विधि का सीधा या प्रत्यक्ष संबंध शिक्षण के उद्देश्यों से होता हैं जबकि प्रविधि अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित होती है ।
  2. शिक्षण विधियां परंपरागत मानव संगठन पर आधारित होती है  जबकि प्रविधियां आधुनिक मानव संगठन सिद्धांत पर आधारित होती है
  3. शिक्षण विधियों में कैसे पर अधिक बल दिया जाता है जबकि प्रविधियों में किसके साथ पर अधिक बल दिया जाता है।
  4. विधियों में मैक्रो उपागम का अनुसरण किया जाता है जबकि प्रविधियों में सूक्ष्म उपागम का अनुसरण किया जाता है ।
  5. विधियां मनोवैज्ञानिक, सामाजिक , दार्शनिक , आर्थिक पहलुओं पर आधारित होती है जबकि प्रविधियों में तार्किक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है ।
  6. विधियों का मुख्य उद्देश्य प्रभावशाली शिक्षण करना होता है जबकि प्रविधियों का मुख्य उद्देश्य प्रभावी अधिगम परिस्थिति उत्पन्न करना होता है।
  7. शिक्षण विधियों में विभिन्न कार्य और उनके प्रस्तुतिकरण पर अधिक ध्यान दिया जाता है जबकि प्रविधियों में छात्रों के व्यवहार और संबंधों पर अधिक ध्यान दिया जाता है ।
  8. शिक्षण विधि के अंतर्गत शिक्षण की दिशा एवम् गति का निर्धारण किया जाता है जबकि प्रविधि शिक्षण में प्रयुक्त मुख्य विधि पर निर्भर करती है।

Friday, August 4, 2023

गणित शिक्षण के उद्देश्य तथा लक्ष्य

गणित शिक्षण के लक्ष्य एवं उद्देश्य

जैसा कि हम जानते हैं कि शिक्षा एक उद्देश्य आधारित प्रक्रिया है, इसलिए शिक्षण गतिविधियाँ कभी भी बिना किसी उद्देश्य के नहीं की जा सकतीं।

समाज द्वारा निर्धारित मान्यताओं के आधार पर शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण करना तथा केवल मूल्यों के संदर्भ में किया जाता है इसीलिए समाज की परिस्थितियों के अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों में परिवर्तन होते रहते हैं। 

 कई शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षण की संपूर्ण प्रक्रिया को त्रिध्रुवीय प्रक्रिया भी कहा है, जिसमें मुख्य रूप से लक्ष्य, साधन और साक्षात् तीन ध्रुव स्पष्ट किये गये हैं। 

इस प्रकार कक्षा में पढ़ाने से पहले शिक्षक कुछ उद्देश्य (लक्ष्य) निर्धारित करता है। निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शिक्षक कुछ साधन निर्धारित करता है, मुख्यतः पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियाँ आती हैं।

शिक्षण की इस त्रि-ध्रुवीय संरचना को मूल्यांकन प्रणाली भी कहा जाता है। यह प्रणाली संपूर्ण शिक्षण प्रक्रिया के लिए आधार प्रदान करती है। 

 डॉ. बी. एस ब्लूम ने इस प्रकार दर्शाया है- 


शिक्षण उद्देश्य 

अध्ययन-सीखने की स्थितियाँ या सीखने के अनुभव

उपलब्धि या व्यवहार में परिवर्तन का मूल्यांकन

उपर्युक्त त्रिकोणीय संबंध से स्पष्ट है कि इस प्रक्रिया के ये तीनों ध्रुव न केवल एक-दूसरे से सह-संबंधित हैं, बल्कि एक-दूसरे पर निर्भर भी हैं, जिसके कारण वे एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। मूल्यांकन प्रणाली वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि-

 1. सीखने के उद्देश्यों को किस हद तक हासिल किया गया?

 2. कक्षा में प्रदान किए गए सीखने के अनुभव किस हद तक प्रभावी थे?

 3. बच्चों के व्यवहार में क्या बदलाव आया? 

 वस्तुतः उद्देश्य  उत्त + दिश के योग से बनता है। यहां उत्त का मतलब ऊपर की ओर और दिश का मतलब दिशा दिखाना है। इस प्रकार उद्देश्य का शाब्दिक अर्थ उच्च दिशा दिखाना है। 

 जॉन ड्यूटी के अनुसार, उद्देश्य एक पूर्व निर्धारित लक्ष्य है जो किसी कार्रवाई को प्रेरित करता है या व्यवहार को प्रेरित करता है।

गणित शिक्षण के उद्देश्य 

गणित शिक्षण के मूल्य और उद्देश्य दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और आश्रित भी हैं। इसलिए गणित के विभिन्न मूल्यों को ध्यान में रखते हुए हम गणित और इन विभिन्न मूल्यों का अध्ययन करते हैं

गणित शिक्षण का उद्देश्य उपलब्धि है। गणित शिक्षण के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-

1. बौद्धिक उद्देश्य 

2. प्रायोगिक उद्देश्य

3. अनुशासनात्मक उद्देश्य

4. नैतिक उद्देश्य

5. सामाजिक उद्देश्य

6. सांस्कृतिक उद्देश्य

7. सौन्दर्यात्मक था कलात्मक उद्देश्य

8. जीविकोपार्जन संबंधी उद्देश्य 

9. आनंद प्राप्ति एवं अवकाश के सदुपयोग का उद्देश्य

10. वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संबंधित उद्देश्य 

11. अन्तर्राष्ट्रीय उद्देश्य

अन्य शिक्षा शास्त्रियों एवं लेखकों ने गणित शिक्षण के इन विभिन्न उद्देश्यों को निम्न प्रकार से भी वर्गीकृत किया है-



प्राप्य उद्देश्य (Objectives)


एक उद्देश्य की प्राप्ति में जिन छोटी-छोटी बातों का सहारा लेना पड़ता है उनको उस उद्देश्य के प्राप्य उद्देश्य कहते हैं। 

एक उद्देश्य के लिए कई प्राप्य उद्देश्य हो सकते हैं। NCERT के परीक्षा एवं मूल्यांकन नामक दस्तावेज के अनुसार प्राप्य उद्देश्य वह बिन्दु है जिसकी दिशा में कार्य किया जाता है, एक सुनियोजित परिवर्तन है जिसे किसी क्रिया के द्वारा प्राप्त किया जाता है तथा जिसके लिए हम कार्य करते हैं।

प्राप्य उद्देश्यों की प्राप्ति अध्यापक कक्षा में ही करता है इसलिए इनको कक्षोपयोगी उद्देश्य भी कहते हैं। इनके द्वारा शिक्षण को उचित दिशा प्रदान की जाती है जिससे अध्यापक के प्रयास सफल हों और उन प्रयासों का लाभ विद्यार्थियों को भी मिल सके। यथार्थ रूप में प्राप्य उद्देश्य यह कथन होता है जो वांछनीय व्यवहारगत परिवर्तनों की ओर संकेत करता है।


उद्देश्य तथा प्राप्य उद्देश्यों में अंतर

1. उद्देश्य का क्षेत्र व्यापक होता है जबकि प्राप्य उद्देश्य का क्षेत्र सीमित होता है।

2. उद्देश्य दीर्घकालीन होते हैं जबकि प्राप्य उद्देश्य अल्पकालीन या तत्कालीन होते हैं 

3. उद्देश्य अस्पष्ट तथा अनिश्चित होते हैं जबकि प्राप्य उद्देश्य निश्चित तथा स्पष्ट होते हैं

4. उद्देश्य की प्राप्ति में विद्यालय,समाज तथा सम्पूर्ण राष्ट्र जिम्मेदार होता है जबकि प्राप्य उदेश्य की प्राप्ति की जिम्मेदारी प्राय: शिक्षक की होती है।

5. उद्देश्य प्राप्ति का मापन तथा मूल्यांकन संभव नहीं है जबकि प्राप्य उद्देश्य का मापन तथा मूल्यांकन किया जा सकता है।

6. उद्देश्य का संबंध शिक्षा तथा भविष्य से होता है जबकि प्राप्य उद्देश्य शिक्षा में ही निहित होते हैं तथा शिक्षण से संबंधित होते हैं । इनका संबंध किसी विशेष प्रकरण से ही होता है।

7. उद्देश्य का स्त्रोत समाजशास्त्र,दर्शन शास्त्र, तथा सम्पूर्ण शिक्षा शास्त्र से होता है जबकि प्राप्य उद्देश्य का मुख्य स्त्रोत मनोविज्ञान होता है।

8. उद्देश्य में प्राप्य उद्देश्य समाहित होते हैं जबकि प्राप्य उद्देश्य ,उद्देश्य का ही एक भाग होते हैं।

9. उद्देश्य में व्यक्तिनिष्ठता (Subjectvity) होती है जबकि प्राप्य उद्देश्य वस्तुनिष्ठ होते हैं।

10. उद्देश्य प्रत्येक समाज , राष्ट्र की आवश्यकता एवम् आकांक्षाओं के अनुसार परिवर्तनशील होते हैं जबकि प्राप्य उद्देश्य निश्चित होते हैं तथा प्रत्येक विषय या प्रकरण के लिए भिन्न भिन्न होते हैं।


शिक्षण उद्येश्यों का वर्गीकरण : -

शिकागो विश्वविद्यालय में डॉ. बी. एस. ब्लूम तथा उनके सहयोगियों ने व्यवहार के तीनों पक्षों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया। ज्ञानात्मक पक्ष के प्राप्य उद्देश्यों का ब्लूम ने (1956) में, भावात्मक पक्ष के प्राप्य उद्देश्यों का करथवाल (Krathwohl) ने (1964) में तथा मनोशारीरिक या क्रियात्मक पक्ष के प्राप्य उद्देश्यों का सिम्पसन ( Simpson ) ने (1969) में वर्गीकरण प्रस्तुत किया। निम्नलिखित सारणी द्वारा शिक्षण उद्देश्यों के वर्गीकरण को प्रस्तुत किया जा सकता है-




उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखने के लिए कार्य सूचक क्रियाओं की सहायता प्राप्त की जाती है। बी.एस. ब्लूम व RCEM प्रणाली में इन्हें मानसिक योग्यताएँ (Mental Abilities) अथवा (Specifications) का नाम दिया 



1. ज्ञानात्मक पक्ष 


A. ज्ञान

1) प्रत्यास्मरण करना।

 2) पहचान करना।

3) परिभाषित करना।

4) कथन देना।

5) लेखन कार्य करना।

6) सारणीकरण करना ।

7) चयन करना।


B. बोध

व्याख्या करना 

इंगित करना 

सूत्रीकरण करना 

प्रस्तुति करना

वर्गीकृत करना

चयन करना 

अनुवाद करना 

उदाहरण देना 


C. प्रयोग 

गणना करना 

जांच करना 

प्रदर्शन करना

निर्मित करना 

प्रयुक्त करना 

भविष्यवाणी करना 


D. विश्लेषण

विभाजित करना 

निष्कर्ष निकालना

तुलना करना 

विभेदीकरण करना 

पृथक्करण करना

औचित्य ठहराना


E. संश्लेषण 

तर्क करना 

वाद विवाद करना 

सामान्यीकरण करना 

सारांश प्रस्तुत करना 

संबंध स्थापित करना 


F. मूल्यांकन 

निर्णय लेना 

चिन्हित करना 

आलोचना करना

प्रतिवाद करना 

भूल खोजना




2. भावात्मक पक्ष : 

A आग्रहण 

श्रवण करना 

स्वीकार करना

प्रत्यक्षीकरण करना

चाहना


B. अनुक्रिया

उत्तर देना

विकसित करना

सारणी बनाना

चयन करना


C. अनुमूल्यन

प्रभावित करना

भाग लेना

अभिवृद्धि करना


D. प्रत्ययीकरण

संबंध स्थापित करना

प्रदर्शित करना

तुलना करना

विश्लेषण करना


E. व्यवस्थापन

सहसंबंध बनाना

निश्चय करना

रूप देना


F. चरित्रीकरण

पुनरावृति करना

परिवर्तन करना

समन्वय करना





3. क्रियात्मक पक्ष

A. उद्दीपन

निर्मित करना

रेखाचित्र खींचना 


B. कार्य करना


C. नियंत्रण


D. समायोजन 

प्रारूप करना


E. स्वाभाविकरण


F. आदत निर्माण 


एन.सी.ई.आर.टी. के अनुसार शिक्षण उद्देश्य एवं व्यवहारगत परिवर्तन कार्य-सूचक-क्रियाओं की सूची


प्राप्य / शिक्षण उद्देश्य                   कार्य-सूचक-क्रियाएँ


1. ज्ञानात्मक उद्देश्य

(i) गणित के तथ्यों, सिद्धांतों, संकेतों का पुनः स्मरण करना।
ii) गणित के तथ्यों, सिद्धांतों, संकेतों, आकृतियों को पहचानना ।
iii) गणित संबंधी विभिन्न क्रियाओं एवं विधियों का ज्ञान करना।
iv) गणित के सिद्धांतों, नियमों, सूत्रों का ज्ञान करना। 
v) गणित संबंधी प्रत्ययों की परिभाषाओं का ज्ञान करना।


2. अवबोधात्मक उद्देश्य 

i) गणित के सिद्धांतों, सूत्रों, नियमों का विश्लेषण करना।

(ii) गणित के विभिन्न प्रत्ययों में अंतर, तुलना एवं संबंध स्थापित करना।

iii) व्याख्या करना।

(iv) गणित की क्रियाओं में त्रुटि का पता लगाना।

v) गणित के ज्ञान को क्रमबद्ध रूप से व्यक्त करना।

vi) अनुमान लगाना।

vii) उदाहरण देना।


3. अनुप्रयोगात्मक उद्देश्य


 i) सर्वोत्तम विधि का चयन करना।

 (ii) किसी समस्या को हल करने हेतु विचार व्यक्त करना।

 iii) त्रुटि में सुधार करना।


 4. कौशलात्मक उद्देश्य


 i) गणित की विभिन्न गणनाओं को सरलता, शीघ्रता व शुद्धता से करना।

(ii) गणित की विभिन्न आकृतियों के सुंदर चित्र, चार्ट, मॉडल बनाना।

 (iii) रेखा गणित की विभिन्न नापों को पढ़ना।

 iv) लेखाचित्र पढ़ना।

v) पैमाना मानकर विभिन्न प्रकार के लेखाचित्र बनाना।

(vi) त्रुटिपूर्ण यंत्रों में त्रुटि का पता लगाकर उनमें सुधार करना।

vii) गणना तथा गणित संबंधी अन्य प्रक्रियाओं को करने के लिए तालिकाओं,यंत्रों का प्रयोग कर सकने में प्रवीणता उत्पन्न करना।


 5. अभिरुच्यात्मक उद्देश्य

i) गणितज्ञों की जीवनियों को पढ़ना।

(ii) गणित अध्यापक एवं विद्यार्थियों के मध्य मधुर संबंध स्थापित होना। 

iii) विद्यार्थी-विद्यार्थी के मध्य मधुर संबंध स्थापित होना। 

(iv) गणित की समस्या को हल करने में निरंतर प्रयत्नशील रहना।

 v) गणित की समस्याओं से संबंधित अधिक से अधिक प्रश्न पूछना।

vi) पुस्तकालयों एवं वाचनालयों में जाकर पढ़ना।

(vii) गणित संबंधी विभिन्न पहेलियाँ पूछना एवं निर्माण करना।

viii) गणित संबंधी चित्रों को एकत्रित कर एलबम बनाना।

ix) गणित के क्लबों की क्रियाओं में रुचि लेना ।


6. अभिवृत्यात्मक उद्देश्य 


i ) गणित के प्रति धनात्मक एवं आशावादी दृष्टिकोण रखना।

ii) कार्य को व्यवस्थित तरीके से करने की आदत डालना।

iii) असफलताओं से विचलित ना होना। 

(iv) प्रत्येक कार्य को आत्मविश्वास एवं धैर्य के साथ करना।



शिक्षण उद्येश्यों को व्यावहारिक भाषा में लिखने की विधियां 

1.) रॉबर्ट मेगर उपागम  : 

रॉबर्ट मेगर में सन् 1962 में अभिक्रमित अनुदेशन के उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखने पर विशेष महत्व दिया। उन्होंने शैक्षिक उद्देश्यों को ज्ञानात्मक ,भावात्मक को व्यावहारिक रूप में लिखने में अधिक रुचि ली तथा उसके लेखन की विधि विकसित की।

 लेखन विधि में मेगर ने ब्लूम के वर्गीकरण को आधार मानकर प्रत्येक के लिए उसके उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखने के लिए कार्यसूचक क्रियाओं की सूची तैयार की।

2)रॉबर्ट मिलर उपागम   :

उद्देश्यों को व्यवहारिक रूप में लिखने की मिलर की विधि , मेगर की विधि की तुलना में कुछ कठिन है।

इस विधि का निर्माण रॉबर्ट मिलर (1952) ने सैन्य अनुदेशन के लिए शैक्षिक उद्देश्यों को व्यवहार रूप में लिखने के लिए किया।।


मिलर के अनुसार:- किसी भी उद्देश्य को व्यावहारिक रूप में लिखने के लिए तीन तत्वों का होना अनिवार्य है- 

i)संकेत अनुमान

ii) अनुक्रिया

iii) पृष्टपोषण 

3) R.C.E.M. उपागम :- क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय मैसूर ने एक नवीन विधि का विकास किया, जिसे RCEM प्रणाली कहते हैं।

इस उपागम ने अनुदेशनात्मक उद्देश्यों को व्यवहारपरक शब्दावली में लिखने के लिए कार्यपरक पदों का प्रयोग कर मानसिक प्रक्रियाओं या मानसिक योग्यताओं का प्रयोग किया।

RCEM प्रणाली का आधार ब्लूम की टैक्सोनोमी ही है ।

सभी उद्देश्यों को 17 मानसिक क्रियाओं के रूप में प्रस्तुत किया।


उद्देश्यों की प्राप्ति में गणित अध्यापक की भूमिका


1.गणित के इतिहास तथा गणितज्ञों की जीवनी से परिचित करवाना। 

2. उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग करना।

3. मानसिक विकास के लिए पर्याप्त अवसर करना।

.4 सृजनात्मक तथा क्रियात्मक अनुभव प्रदान करना। 

5. ज्ञान को दैनिक तथा जीवन से संबंधित करना।

6.समय को आवश्यकतानुसार प्रयोग में लाना।

7.सभी लाभों के साथ निष्पक्ष प्रेम तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना। 

8.लिखित के साथ साथ मौखिक और प्रायोगिक कार्य को भी उचित स्थान देना।

9 दिए गए गृहकार्य एवं कक्षाकार्य की नियमित जाँच करना। 

10 उचित एवं नवीन प्रविधियों का प्रयोग करना।

11 छात्रों में स्पष्टता, नियमितता, कठिन परिश्रम तथा अनुशासन आदि गुणों का विकास करना आदि।


गणित शिक्षण के सामान्य उद्देश्य :- 

गणित शिक्षण के सामान्य उद्देश्य :-

NCERT के दस्तावेज, गाइड लाइन्स एण्ड सिलेबी फार सेकण्डरी स्टेज (IX-X), 1988 के अनुसार माध्यमिक स्तर पर गणित शिक्षण के निम्न उद्देश्य बताए गए हैं-


1.छात्रों को गणित की शब्दावली, संकेतों, प्रत्यय, सिद्धांतों, प्रक्रिया आदि की जानकारी देना तथा समझने की योग्यता विकसित करना।

2.बीजगणित के आधारभूत कौशलों का विकास करना। 

3. ज्यामितीय तथा ड्राइंग संबंधी कुशलताओं का विकास करना।

4. जीवन की व्यावहारिक समस्याओं के समाधान में गणित के ज्ञान तथा कौशलों का उपयोग करना।

5. विश्लेषण, सोचने समझने, कारण बताने तथा तर्क करने की योग्यताओं का विकास करना।

6. गणितीय तालिकाओं का समस्या समाधान में उपयोग करने की योग्यता का विकास करना।

7. आधुनिक तकनीकी युक्तियों-कैलकुलेटर, कम्प्यूटर आदि को प्रयोग में लाने के लिए आवश्यक कौशलों का विकास करना।

8. गणित में रुचि पैदा करना तथा गणितीय प्रतियोगिताओं, गणित परिषद् की गतिविधियों में रूचि विकसित करना।

9. गणित के ज्ञान की अन्य क्षेत्रों में उपयोगिता की सराहना करना।। 

10. गणित की सौन्दर्यता तथा समस्या समाधान की शक्ति की प्रशंसा करना। 

11. महान गणितज्ञों, विशेषतया भारतीय गणितज्ञों के योगदान की सराहना करना।

12. ध्यान केंद्रित करने की योग्यता, आत्म-निर्भरता तथा खोजपूर्ण आदतों का विकास करना।

 13. वैज्ञानिक तथा वास्तविक दृष्टिकोण विकसित करना।

14. बालक के व्यक्तित्व का बहुमुखी तथा अनुरूप विकास करना। 

15. बालक को तकनीकी व्यवसायों के लिए तैयार करना।

16. बालक के मस्तिष्क को एक विशेष प्रकार का अनुशासन प्रदान करना।


NCF 2005 के अनुसार गणित शिक्षण के उद्देश्य

गणित की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चे की गणितीकरण की क्षमताओं का विकास करना है। स्कूली गणित का सीमित लक्ष्य है 'लाभप्रद' क्षमताओं का विकास, विशेषकर अंक ज्ञान संख्या से जुड़ी क्षमताएँ, सांख्यिकी संक्रियाएँ, माप, दशमलव व प्रतिशत। इससे उच्च लक्ष्य है। बच्चे के साधनों को विकसित करना ताकि यह गणितीय ढंग से सोच सके व तर्क कर सके, मान्यताओं के तार्किक परिणाम निकाल सके. और अमूर्त को समझ सके। इसके चीजों को करने और समस्याओं को सूत्रबद्ध करने व उनका हल ढूंढने की क्षमता का विकास करना आता है।

गणित का अर्थ और प्रकृति Meaning and Nature Of Mathematics

गणित की शुरुआत ऋग्वेद से हुई है।

गणित एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है. इसलिए इसकी शिक्षाओं का आदान-प्रदान या हस्तांतरण करने से पहले यह जानना आवश्यक और महत्वपूर्ण है कि गणित क्या है? इसे क्यों सिखाया जाना चाहिए?और इसकी प्रकृति क्या है? 

 गणित शब्द की उत्पत्ति 'गण' धातु से हुई है जिसका अर्थ है 'गिनना'। 

 'गणित' शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द ' मैथेमेटा' से हुई है, जिसका अर्थ है 'चीजें' (विषय) जिनका अध्ययन किया जाता है। 

 गणित का शाब्दिक अर्थ :-  वह शास्त्र जिसमें गणनाओं की प्रधानता होती है !

 गणित अंक ,संख्याओं , अक्षरों, प्रतीकों आदि संक्षिप्त संकेतों का वह विज्ञान है जिसकी सहायता से परिमाण, दिशा एवं स्थान का बोध होता है।


 परिभाषा :-

  • लिंडसे:- गणित भौतिक विज्ञानों की भाषा है और निश्चय ही मानव मस्तिष्क में उत्पन्न इससे उत्तम अन्य कोई भाषा नही है। ( प्रशंसात्मक मूल्य) 
  • कोरेंट तथा रॉबिंस:- गणित मानव मस्तिष्क द्वारा वर्णित इच्छाओं का क्रियात्मक पक्ष है। 
  • रोजर बेकन:-  गणित सभी विज्ञानों का प्रवेश द्वार ( सिंह द्वार) और कुंजी है। 
  • हॉगवेन - गणित सभ्यता एवं संस्कृति का दर्पण है।( सांस्कृतिक मूल्य) 
  • बेंजामिन पीयर्स :- गणित एक विज्ञान है जो आवश्यक निष्कर्ष निकालता है।( बौद्धिक मूल्य)
  • गैलीलियो :- गणित वह भाषा है जिसमें ईश्वर ने संपूर्ण विश्व या ब्रह्मांड को लिखा है।
  • बर्थलॉट :- गणित भौतिक अनुसंधान का एक आवश्यक उपकरण है। 
  • आइंस्टीन :- गणित क्या है, यह उस मानवीय सोच का परिणाम है जो अनुभवों से स्वतंत्र और सत्य के अनुरूप है। 
  • हार्वर्ड समिति :- गणित को अमूर्त प्रकृति के विज्ञान के रूप में परिभाषित किया जा सकता।
  • कांट :- विज्ञान केवल उसी सीमा तक सत्य है, जहाँ तक उसमें गणित का प्रयोग किया गया है।
  • लीबनिज़ :- संगीत अंकगणितीय संख्याओं के संबंध में मानव अवचेतन मन का एक आधुनिक गुप्त अभ्यास है।(सौंदर्यात्मक तथा कलात्मक मूल्य)
  • हर्बर्ट स्पेंसर:- मनोविज्ञान में गणित का उपयोग न केवल संभव है बल्कि आवश्यक भी है।
  • लॉक:- गणित वह तरीका है जिसके द्वारा बच्चों का मन या मस्तिष्क विकसित होता है तर्क करने की आदत स्थापित हो जाती है।
  • डेविड व्हीलर:- अधिक गणित जानने की अपेक्षा यह जानना अधिक उपयोगी है कि गणितीयकरण कैसे किया  जाए।
  • वेदांग ज्योतिष:- मोरों के सिर पर मुकुट और साँपों के सिर पर रत्नों की भाँति, वेदांग नामक विज्ञानों में गणित का स्थान सर्वोच्च है।
  • कॉम्टे :- गणित के बिना शुरू होने वाला सभी वैज्ञानिक ज्ञान झूठा है - यह त्रुटिपूर्ण है।
  • डटन:- गणित तार्किक विचार, सटीक कथन और सत्य कथन शक्ति प्रदान करता है.( नैतिक मूल्य)
  • नेपोलियन- देश की प्रगति का गणित की प्रगति से गहरा संबंध है।( सामाजिक मूल्य) 
  • युंग:- यदि विज्ञान की रीढ़ की हड्डी गणित को हटा दिया जाए तो संपूर्ण भौतिक सभ्यता निस्संदेह नष्ट हो जायेगी।  लोहे, गैस और बिजली के इस युग में आप चाहे जिस भी दृष्टि से देखें,गणित सर्वोपरि है. 
  • प्लेटो :- जो छात्र ज्यामिति नहीं समझ सकते वे इस विद्यालय में नहीं आ सकते।
  • बार्टेड रसैल :- गणित एक ऐसा विषय है , जिसमें हम यह भी जानते हैं कि हम किसके बारे में बात कर रहे हैं और न ही यह जान पाते हैं कि हम जो कह रहे हैं वह सत्य है। 
  • मार्शल एच स्टोन :- गणित ऐसा अमूर्त व्यवस्था का अध्ययन है जो अमूर्त तत्त्वों से मिलकर बनी है। इन तत्त्वों को मूर्त रूप में परिभाषित किया गया है। 
  • हब्श :- गणित मस्तिष्क को तीक्ष्ण एवं तीव्र बनाने का वही काम करती है जो किसी औजार को तेज करने में काम आने वाला पत्थर।
  • गॉस :- गणित, विज्ञान की रानी है।
  • बेल :- गणित को विज्ञान का नौकर माना जाता है। -
  • गिब्स:- गणित एक भाषा है।
  • कॉमटे :- वह सभी वैज्ञानिक शिक्षा जो गणित को साथ लेकर नहीं चलती, अनिवार्यत: अपने मूल रूप में दोषपूर्ण है। 
  • व्हाइटहैड - व्यापक महत्त्व की दृष्टि से गणित सभी प्रकार की औपचारिक निगमनात्मक तार्किक योग्यता का विकास है। 

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर गणित के संबंध में सारांश के रूप में हम कह सकते हैं कि-

1. गणित स्थान तथा संख्याओं का विज्ञान है।


2. गणित गणनाओं का विज्ञान है।

3. गणित माप-तौल (मापन), मात्रा (परिमाण) तथा दिशा का विज्ञान है। 

4. गणित विज्ञान की क्रमबद्ध, संगठित तथा यथार्थ शाखा है। 

5. इसमें मात्रात्मक तथ्यों तथा संबंधों का अध्ययन किया जाता है।

6. यह विज्ञान का अमूर्त रूप है। 

7. यह तार्किक विचारों का विज्ञान है।

8. गणित के अध्ययन से मस्तिष्क में तर्क करने की आदत स्थापित होती है। 

9. यह आगमनात्मक तथा प्रायोगिक विज्ञान है।

10. गणित वह विज्ञान है जिसमें आवश्यक निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

गणित की प्रकृति (Nature of Mathematics) :-

विद्यालय पाठ्यक्रम में सम्मिलित किए जाने वाले प्रत्येक विषय के कुछ उद्देश्य तथा उसकी संरचना होती है जिसके आधार पर उस विषय की प्रकृति निश्चित होती है। गणित की प्रकृति को निम्न बिन्दुओं द्वारा भली-भाँति समझा जा सकता है-

1. गणित में संख्याएँ, स्थान, दिशा तथा मापन या माप-तौल का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।

2. गणित की अपनी भाषा है। भाषा का तात्पर्य- गणितीय पद, गणितीय प्रत्यय, सूत्र, सिद्धान्त तथा संकेतों से है जो विशेष प्रकार के होते हैं तथा गणित की भाषा को जन्म देते हैं।

3. गणित के ज्ञान का आधार हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। 

4. इसके ज्ञान का आधार निश्चित होता है जिससे उस पर विश्वास किया जा सकता है।

5. गणित का ज्ञान यथार्थ, क्रमबद्ध, तार्किक तथा अधिक स्पष्ट होता है,जिससे उसे एक बार ग्रहण करके आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।

6. गणित में अमूर्त प्रत्ययों को मूर्त रूप में परिवर्तित किया जाता है, साथ ही उनकी व्याख्या भी की जाती है। 

7. गणित के नियम, सिद्धांत, सूत्र सभी स्थानों पर एक समान होते हैं जिसमें उनकी सत्यता की जाँच किसी भी समय तथा स्थान पर की जा सकती है।

8. इसमें सम्पूर्ण वातावरण में पाई जाने वाली वस्तुओं के परस्पर सम्बन्ध तथा संख्यात्मक निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

9. इसके अध्ययन से प्रत्येक ज्ञान तथा सूचना स्पष्ट है तथा उसका सम्भावित उत्तर निश्चित होता है।

10.इसके विभिन्न नियमों, सिद्धांतों, सूत्रों आदि में संदेह की संभावना नहीं रहती है। 

11. गणित के अध्ययन से आगमन, निगमन तथा सामान्यीकरण की योग्यता विकसित होती है।

12. गणित के अध्ययन से बालकों में आत्म-विश्वास और आत्म-निर्भरता का विकास होता है।

13. गणित की भाषा सुपरिभाषित, उपयुक्त तथा स्पष्ट होती है।

14. गणित के ज्ञान से बालकों में प्रशंसात्मक दृष्टिकोण तथा भावना का विकास होता है। 

15. इससे बालकों में स्वस्थ तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होता है।

16. इसमें प्रदत्तों अथवा सूचनाओं को आधार मानकर संख्यात्मक निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

17. गणित के ज्ञान का उपयोग विज्ञान की विभिन्न शाखाओं यथा- भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान तथा अन्य विषयों के अध्ययन में किया जाता है। 

18. गणित विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के अध्ययन में सहायक ही नहीं,बल्कि उनकी प्रगति तथा संगठन की आधारशिला है। 

19. इसकी प्रकृति अमूर्त से मूर्त की ओर होती है 

20. गणित का सभी विषयों के साथ सहसंबंध होता है ।


पाठ्यपुस्तक

Book शब्द जर्मन भाषा के Beak शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है वृक्ष।  अध्ययन अध्यपान की प्रक्रिया मे पाठ्य पुस्तक का महत्व पूर्ण स्थान है।...