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Thursday, April 4, 2024

पाठ्यपुस्तक

Book शब्द जर्मन भाषा के Beak शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है वृक्ष। 

अध्ययन अध्यपान की प्रक्रिया मे पाठ्य पुस्तक का महत्व पूर्ण स्थान है। पाठ्य पुस्तक कक्षा कक्ष की प्रक्रिया मे छात्रों के लिए अधिगम का महत्व पूर्ण साधन होती है। 

अतः पाठ्य पुस्तकों को छात्रों के लिए मित्रवत माना गया है। 


प्रस्तावनाः-

राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा की रूपरेखा 2005 के अनुसार पाठ्यपुस्तकों में इस प्रकार की सामग्री संकलित की जाए जो बच्चों के ज्ञान, समझ, दृष्टिकोण और कौशलों को बनाने संवारने में मददगार हो सके। 

बच्चों के स्थानीय परिवेश व उसके अनुभवों को भी सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में महत्व देते हुए आगे बढ़नें के अवसर पाठ्यपुस्तक में होने चाहिए। 

पाठ्यपुस्तकें ऐसी हों जो अपने विषय की प्रकृति से संबंध रखे और बच्चे उसको पढ़ते हुए अपना सोचना विचारना जारी रख सकें न कि ज्ञान को मात्र प्रदत्त के रूप में ग्राहय करें। 


पाठ्य पुस्तक का अर्थः


पाठ्य पुस्तकें वे पुस्तकें हैं जो किसी स्तर के बच्चों की पाठ्‌यचर्यानुसार तैयार की जाती है। इनमें वे तथ्य एवं सूचानाएं संकलित होती हैं, जिनका ज्ञान उस स्तर के बच्चों को देना चाहते हैं। आज की सम्पूर्ण शिक्षा ही पाठ्य-पुस्तकों पर ही आधारित हैं। आज ये पाठ्यपुस्तकें शिक्षा के मुख्य साधन के रूप में प्रयोग की जाती हैं। अतः वर्तमान में पाठ्‌यपुस्तकों का अत्याधिक महत्व है। सभी कक्षाओं के लिए पाठ्यपुस्तकें का होना अनिवार्य है। पाठ्य-पुरातकें शिक्षक के कार्य की परिपूरक होती हैं। पाठ्‌य पुस्तके अध्यापकों के लिए पुस्तकें शिक्षित करने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत है। । शैक्षिक विकास एवं पाठ्यचर्या विकास में पाठ्यपुस्तक चयन एवं लेखन शामिल रहता है। पाठ्यपुस्तक अथवा पुस्तक अनेक प्रकार के कार्य करती है।


पाठ्य पुस्तक की परिभाषाः

हैरोलिकर के अनुसारः पाठ्यपुस्तक ज्ञान, अनुभवों, भावनाओं, विचारों तथा प्रवृत्तियों व मूल संचय का साधन है।


हॉलक्वेस्ट के अनुसारः पाठ्य-पुस्तक शिक्षण क्रियाओं एवं अभिप्रायों के लिए सुव्यवस्थित चिन्तन एवं ज्ञान का लिखित रूप है।

हर्ल आर डगलस के अनुसार-अध्यापकों के अनुभवों एवं विश्लेषण के अनुसार पाठ्यपुस्तक पढने का महत्वपूर्ण आधार है।


पाठ्य पुस्तक की आवश्यकता एवं महत्वः


  • पाठ्यपुस्तके विद्यालय या कक्षा में छात्रों तथा शिक्षकों के लिए विशेष रूप से तैयार की जाती हैं जो विषय से संबंधित पाठ्यवस्तु का प्रस्तुतीकरण करती है। 
  • वास्तव में पाठ्य-पुस्तक की आवश्यकता मार्गदर्शन के लिए पडती है।
  • वर्तमान शिक्षा में बदलते शैक्षिक अंतदृष्टि, विचारों एवं शोध करने व उससे प्राप्त नतीजों के आधारों पर पाठ्‌यपुस्तकों को समय-समय पर बदलने की आवश्यकता है। 
  • पाठ्यपुस्तकें मात्र सूचना आधारित न होकर बच्चों को चिंतन व खुद से करके सीखने अर्थात् ज्ञान का सृजन करने के अवसर देने वाले दृष्टिकोण पर आधारित होनी चाहिए।
  • शासकीय शालाओं में बच्चों की पहुँच में पाठ्यपुस्तकें ही एकमात्र सीखने-सिखाने का प्रमुख संसाधन होती हैं इसलिए बच्चों के लिए गुणवत्ता पूर्ण पाठ्यपुस्तकों का होना आवश्यक है।

पाठ्य पुस्तक का महत्व:-

  • पुस्तकों की सहायता से शिक्षा की प्रक्रिया बहुत ही व्यवस्थित ढंग से चलती है और अध्यापक पूरे समय हेतु योजना बना सकते है।
  • पाठ्यपुस्तकें पाठ्यक्रम में निर्धारित उददेश्यों को पूर्ण करने में सहायक है
  • पाठ्यक्रम के अनुसार विषय का संगठित ज्ञान एक स्थात पर मिल जाता है।
  • जब कक्षा छात्र कक्षा ज्ञान में अधूरे रहते हैं। तब पुस्तकों का सहारा लेकर उस अधूरे ज्ञान को स्पष्ट एवं निश्चित करते हैं। 
  • शिक्षक केवल पथ प्रदर्षक के रूप में कार्य करता है।
  • छात्रों एवं शिक्षकों को यह जानकारी मिलती है कि किस कक्षा स्तर के लिये कितनी विषय-वस्तु का अध्ययन-अध्यापन करना है।
  • छात्रों का मानसिक स्तर इतना नहीं होता कि वे विद्यालय में पढ़ायी हुई विषय-वस्तु को एक ही बार में सीख सकें। उन्हें विषय-वस्तु को कई बार दोहराना भी पड़ता है। इस कार्य में पाठ्यपुस्तकें सहायक है।
  • पाठ्य-पुस्तकें अध्यापक की पूरक होती हैं। अध्यापक के उपस्थित न रहने पर यदि छात्र चाहे तो स्वअध्ययन से पाठ को आगे पढ़ा सकते हैं।
  • छात्रों एवं शिक्षकों के समय की बचत होती है।
  • स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
  • पाठ को दोहराने अथवा गृहकार्य कराना बच्चों को अत्यन्त सहायक सिद्ध होता है।
  • बच्चों में स्वध्याय की आदत का विकास होता है।
  • कक्षा-कार्य तथा मूल्यांकन संभव होता है।
  • बच्चों की स्मरण शक्ति एवं तर्क शक्ति का विकास होता है। मंद बुद्धि तथा प्रतिभाशाली दोनों प्रकार के बच्चों के लिये उपयोगी होती हैं।
  • विषय-वस्तु को तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है जिससे बच्चों के लिए विषय-वस्तु सरल एवं सुगम हो जाती है।
  • पाठ्य-पुस्तकें समस्याओं को हल करने में सहायता करती है तथा कुछ पहेली टाइप समस्याओं से छात्रों का मनोरंजन भी हो सकता है।
  • ज्ञान को व्यवस्थित करने में पाठ्यपुस्तकें सहायक होती हैं।
  • अध्ययन में एकरूपता आ जाती है।
  • शिक्षकों एवं छात्रों को विद्वानों के विचारों से परिचित कराती है।
  • कक्षा शिक्षण की कमियों को दूर करती हैं।
  • परीक्षा लेने में भी पाठ्य-पुस्तकें शिक्षकों की सहायता करती हैं क्योंकि प्रश्न पाठ्य पुस्तकों में से रखकर प्रश्न-पत्रों को पाठ्यक्रम के अनुसार सीमित तैयारी के साथ परीक्षा में अथवा मूल्यांकन में सफल हो जाते हैं।
  • कक्षा-शिक्षण के प्रकरणों को अध्ययन करने तथा अभ्यास के लिए अवसर मिलता है। पुस्तकें परिपाक का साधन है।
  • पाठ्य-पुस्तकें अध्यापक को कक्षा में जानें से पूर्व पाठ की तैयारी करने का अवसर प्रदान करती है।
  • पाठ्य-पुस्तके अध्यापक तथा छात्रों दोनों का समय बचाती है। मितव्ययी होती है। इनसे अध्ययन की आदतों का विकास होता है।
  • छात्रों को कम मूल्य पर समस्त आवश्यक तथा महत्वपूर्ण तथा तथ्य सूचनाएँ एक पुस्तक में ही एकत्रित मिल जाती हैं। जिससे उन्हें इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं होती। 
  • पाठ्य-पुस्तकों के माध्यम से छात्र भी अध्ययन कर सकते हैं. तथा गृहकार्य करने में भी वे सहायता प्राप्त कर सकते हैं। अध्यापक को गृहकार्य प्रदान करने में पुस्तकें पर्याप्त सहायक हो सकती है।
  • पाठ्य-पुस्तकों की सहायता से एक साथ सभी छात्रों को पढ़ाया जा सकता है।
  • छात्रों को निर्धारित पाठ्यक्रम का ज्ञान पाठ्य-पुस्तकों से ही होता है। वे ज्ञात कर सकते हैं कि वर्ष भर में उन्हें कितना पढ़ना है तथा कितना वे पढ़ चुके हैं।
  • मौन अध्ययन का अभ्यास पाठ्य-पुस्तकों के द्वारा ही कराया जा सकता है। मौन अध्ययन छात्रों को स्वाध्याय की प्रेरणा देता है। 
  • प्रत्येक अध्यापक मौखिक शिक्षण में निपुण नहीं हो सकता। सामान्य बुद्धि के अध्यापक के लिए पाठ्य-पुस्तकों का सहयोग आवश्यक हो जाता है।

शिक्षा की डाल्टन पद्धति एवं योजना प्रणाली में पाठ्य-पुस्तकों की परम आवश्यकता होती है। बालक अपनी रूचि के अनुसार करते हैं। पाठ को मानसिक विकार्य पाठ्य-पुस्तकों के बिना सम्भव नहीं है। अध्यापक द्वारा बताई गई अनेक बातें छात्र कक्षा में भूल बार बात सुनकर याद कर लें। अतः यह आवश्यक हो जाता है जाते हैं; उनकी स्मरण शक्ति इतनी तीव्र नहीं होती कि वे एक. पुनः दोराह लें।


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पाठ्य पुस्तक के दो तत्व होते हैं। 
अ) आंतरिक तत्व          ब) बाह्य तत्व

आंतरिक तत्व :-

(ⅰ) पुस्तक की विषय सामग्री कक्षा स्तर के अनुकूल हो

(ⅱ) पाठ्यपुस्तक का निर्माण छात्रो की रुचि को केन्द्रित करके किया जाना चाहिए

(iii) पाठ्‌यपुस्तकें छात्रो की भावात्मक व मानसिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाली होनी चाहिए जैसे - प्राथमिक स्तर पर दैनिक व्यवहार, घर, विद्यालय, माता-पिता, परिवार, जानवर इत्यादि विषयो का सचित्र वर्णन होना चाहिए।

(iv) उच्च प्राथमिक स्तर पर कहानी, एकांकी, कविताएँ इत्यादि का वर्णन होना चाहिए । 

(V) रोचकता, उद्देश्यता, व्यवहारिकता होनी चाहिए

(Vi) मौलिकता एवं नैतिकता से युक्त

(vii) शीर्षक का उचित समावेश शीर्षक के अनुसार पाठ का निरुपण

(viii) समाज व राष्ट्र की आवश्यकता के अनुकूल
(ix) मनोवैज्ञानिक आवश्यकता के अनुकूल

(x ) पाठ्‌य‌पुस्तक की सामग्री बच्चों के परिवेश से जुड़ी हो

(Xi) भाषा बच्चों के परिवेश से मिलती जुलती तथा प्रभाव पूर्ण होनी चाहिए

(Xii) व्याख्या, अभ्यास व गृहकार्य के प्रश्न दिए हो। 


बाह्य तत्व :-

(i) नामकरण अच्छा होना चाहिए

(ii) सजिल्द

(iii) कवर रंगीन एवं सचित्र

(iv) स्पष्ट मुद्रण

(V) आकार मध्यम

(vi) कागज - उचित स्तर ( जल्दी फटे नहीं, जल्दी गले नहीं)

(vii) अक्षरों का आकार मध्यम

(viii) अनुक्रमणिका एवं सम्पादक का पूर्ण विवरण

(ix) मूल्य अंकित होना चाहिए (कम लागत होनी चाहिए)


विशेषताएँ:- पाठ्‌यपुस्तक साधन व साध्य दोनों है।

पाठ्‌यपुस्तक की सर्वप्रथम रचना- कौमेनियस 1657

केन्द्रीय शिक्षा बोर्ड की पाठ्‌यपुस्तक सलाहकार समिति का मानना है कि -" बिना पाठ्‌यपुस्तक के शिक्षा की व्यवस्था ठीक वैसी ही होगी जैसे बिना डेनमार्क के राजकुमार के हेमलेट की कल्पना" । 

पाठ्यपुस्तकों का महत्व -

  1. *आत्मविश्वास में वृद्धि
  2. *अध्ययन - अध्यापन का सेतु उचित मार्गदर्शन
  3. *ज्ञान के स्थायीकरण का कार्य
  4. *स्वाध्याय के विकास में सहायक
  5. *ज्ञान के साथ मनोरंजन का कार्य
  6. *भाषा तत्वों का ज्ञान
  7. *भाषायी कौशलों के विकास में सहायक
  8. *शब्द भण्डार में वृद्धि।


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