Wednesday, August 26, 2020

संस्कृत शिक्षण विधियां

शिक्षण विधि :- किसी भी कक्षा में पढ़ाते समय एक शिक्षक का पढ़ाने का जो तरीका होता है उसे शिक्षण विधि कहते हैं । शिक्षण विधि का क्षेत्र सीमित होता है यह केवल एक शिक्षक एवं एक कक्षा को ही प्रभावित करती है ।

शिक्षण प्रणाली :- एक विद्यालय सुबह से लेकर शाम तक जिस तरीके से संचालित होता है उसे शिक्षण प्रणाली कहते हैं, शिक्षण प्रणाली का क्षेत्र व्यापक होता है यह संपूर्ण विद्यालय को प्रभावित करता है ।

व्याकरण शिक्षण:- 

ऊद्देश्य:- भाषाज्ञानम्ं ।


सामान्य जानकारियां - 

व्याकरण शब्द वि + आँड् + कृ धातु + ल्युट प्रत्यय  के योग से बना है ।

व्याकृयंंते व्युत्पाद्य्ंते शब्दा: अनेन इति व्याकरणम।

अर्थात जिस शास्त्र के द्वारा शब्द की उत्पत्ति या रचना का ज्ञान करवाया जाता है उसे व्याकरण शास्त्र कहते हैं ।

प्रधानम् च षडअन्गेषु  व्याकरणम्।

वेद के 6 अंगों में व्याकरण को सबसे प्रधान अंग माना जाता है ।

मुखम् व्याकरणम् स्मृतम् ।

वेद के 6 अंगों में व्याकरण को वेद पुरुष के मुख अंग के रूप में स्वीकार किया जाता है ।

व्याकरण = मुखम।

ज्योतिष = चक्षु ।

निरुक्त = श्रोतुम (कान)।

कल्प:- हस्तौ (हाथ) 

शिक्षा :-  घ्राणम ( नाक)

छन्द :-  पादौ(पैर)।

महर्षि पतंजलि ने एवं किशोर दास बाजपेई ने व्याकरण को शब्दानुशासन कहकर पुकारा है ।

किशोरी दास बाजपेई ने व्याकरण को भाषा का भूगोल भी कह कर पुकारा है।

 डॉक्टर स्वीट महोदय के अनुसार भाषा का व्यवहारिक विश्लेषण व्याकरण है ।

व्याकरण को भाषा शिक्षण का सर्वश्रेष्ठ मार्ग भी कहा जाता है।

व्याकरण को भाषा का मेरुदंड भी कहा जाता है।

संस्कृत व्याकरण के अंतर्गत पाणिनी, वररुचि एवं पतंजलि व्याकरण शास्त्र के सर्वश्रेष्ठ विद्वान हुए माने जाते हैं।

इन तीनों को मुनित्रय के नाम से भी पुकारा जाता है।

इन तीनों में भी महर्षी पाणिनी सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण हुए हैं , उन्होंने व्याकरण के नियमों को अपनी अष्टाध्याई रचना में सूत्रों के नाम से प्रतिपादित किया है । पाणिनी ने वाक्य को ही भाषा की इकाई माना है।

महर्षि वररुचि ने पाणिनी द्वारा बनाए गए सूत्रों में संशोधन करते हुए लगभग 1500 वार्तिक लिखे हैं ।

पतंजलि ने पाणिनि के सूत्रों की सरल शब्दों में व्याख्या की इनके द्वारा बनाए गए नियम इष्ठि के नाम से एवं उनकी रचना महाभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है।

व्याकरण शास्त्र का उच्चारण में बहुत अधिक महत्व माना जाता है।

व्याकरण की प्रशंसा करते हुए एक पिता अपने पुत्र से कहता है  यद्यपि बहूनाधीषे  तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्  स्वजन: श्वजनो मा भूत सकलम् शकलं सकृच्छ्कृत ( सकृत + शकृत )।

बहुत से शास्त्रों का अध्ययन किए हुए पुत्र से पिता कह रहा है कि हे पुत्र तुमनेेेे बहुत शास्त्रों का अध्ययन कर लिया है फिर भी तुम व्याकरण को अवश्य पढो।

स्वजन = परिजन।

श्वजन = कुत्ता।

सकलम = संपूर्ण ।

शकलम = टुकड़ा ।

सक्रत= एक बार ।

शकृत =  गोबर।

व्याकरण शिक्षण की विशिष्टता:- 

बालकों को भाषा के नियमोंं का ज्ञान करवाना ।

बालकों को शब्दों एवं वाक्य रचना का ज्ञान करवाना ।

बालकों को शब्द रूप व धातु रूप का ज्ञान करवाना ।

बालकों में तर्क एवं चिंतन शक्ति का विकास करना ।

बालकों में भाषा के चारों मूलभूत कौशलों का क्रमबद्ध विकास करना ।

महर्षि पतंजलि ने व्याकरण के निम्नलिखित 5 प्रयोजन माने हैं ।

 रक्षोहगमल्घ्वसन्देहा:  

 रक्षा = वैदिक ज्ञान की रक्षा करना।

ऊह =  नवीन शब्दों की रचना।

आगम = पठन में निरंतरता।

लघु=  संक्षिप्तता ।

असन्देह =  शंका या संदेह का समाधान ।

व्याकरण शिक्षण की विधियां :-

व्याकरण शिक्षण के लिए अनेक प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जाता है ।

प्राचीन विधियां :- आगमन विधि ,

निगमन विधि ,

सूत्र विधि ,

पारायण विधि ,

भाषा संसर्ग विधि,

 वाद विवाद विधि ,

व्याख्या विधि ,

अर्वाचीन या नवीन विधियां :- आगमन निगमन विधि ।

समवाय या सहयोग विधि ।

पाठ्यपुस्तक विधि।

 अन्य विधि :- अनौपचारिक विधि या सैनिक विधि।


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