गणित शिक्षण के लक्ष्य एवं उद्देश्य
जैसा कि हम जानते हैं कि शिक्षा एक उद्देश्य आधारित प्रक्रिया है, इसलिए शिक्षण गतिविधियाँ कभी भी बिना किसी उद्देश्य के नहीं की जा सकतीं।
समाज द्वारा निर्धारित मान्यताओं के आधार पर शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण करना तथा केवल मूल्यों के संदर्भ में किया जाता है इसीलिए समाज की परिस्थितियों के अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों में परिवर्तन होते रहते हैं।
कई शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षण की संपूर्ण प्रक्रिया को त्रिध्रुवीय प्रक्रिया भी कहा है, जिसमें मुख्य रूप से लक्ष्य, साधन और साक्षात् तीन ध्रुव स्पष्ट किये गये हैं।
इस प्रकार कक्षा में पढ़ाने से पहले शिक्षक कुछ उद्देश्य (लक्ष्य) निर्धारित करता है। निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शिक्षक कुछ साधन निर्धारित करता है, मुख्यतः पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियाँ आती हैं।
शिक्षण की इस त्रि-ध्रुवीय संरचना को मूल्यांकन प्रणाली भी कहा जाता है। यह प्रणाली संपूर्ण शिक्षण प्रक्रिया के लिए आधार प्रदान करती है।
डॉ. बी. एस ब्लूम ने इस प्रकार दर्शाया है-
शिक्षण उद्देश्य
अध्ययन-सीखने की स्थितियाँ या सीखने के अनुभव
उपलब्धि या व्यवहार में परिवर्तन का मूल्यांकन
उपर्युक्त त्रिकोणीय संबंध से स्पष्ट है कि इस प्रक्रिया के ये तीनों ध्रुव न केवल एक-दूसरे से सह-संबंधित हैं, बल्कि एक-दूसरे पर निर्भर भी हैं, जिसके कारण वे एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। मूल्यांकन प्रणाली वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि-
1. सीखने के उद्देश्यों को किस हद तक हासिल किया गया?
2. कक्षा में प्रदान किए गए सीखने के अनुभव किस हद तक प्रभावी थे?
3. बच्चों के व्यवहार में क्या बदलाव आया?
वस्तुतः उद्देश्य उत्त + दिश के योग से बनता है। यहां उत्त का मतलब ऊपर की ओर और दिश का मतलब दिशा दिखाना है। इस प्रकार उद्देश्य का शाब्दिक अर्थ उच्च दिशा दिखाना है।
जॉन ड्यूटी के अनुसार, उद्देश्य एक पूर्व निर्धारित लक्ष्य है जो किसी कार्रवाई को प्रेरित करता है या व्यवहार को प्रेरित करता है।
गणित शिक्षण के उद्देश्य
गणित शिक्षण के मूल्य और उद्देश्य दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और आश्रित भी हैं। इसलिए गणित के विभिन्न मूल्यों को ध्यान में रखते हुए हम गणित और इन विभिन्न मूल्यों का अध्ययन करते हैं
गणित शिक्षण का उद्देश्य उपलब्धि है। गणित शिक्षण के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-
1. बौद्धिक उद्देश्य
2. प्रायोगिक उद्देश्य
3. अनुशासनात्मक उद्देश्य
4. नैतिक उद्देश्य
5. सामाजिक उद्देश्य
6. सांस्कृतिक उद्देश्य
7. सौन्दर्यात्मक था कलात्मक उद्देश्य
8. जीविकोपार्जन संबंधी उद्देश्य
9. आनंद प्राप्ति एवं अवकाश के सदुपयोग का उद्देश्य
10. वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संबंधित उद्देश्य
11. अन्तर्राष्ट्रीय उद्देश्य
अन्य शिक्षा शास्त्रियों एवं लेखकों ने गणित शिक्षण के इन विभिन्न उद्देश्यों को निम्न प्रकार से भी वर्गीकृत किया है-
प्राप्य उद्देश्य (Objectives)
एक उद्देश्य की प्राप्ति में जिन छोटी-छोटी बातों का सहारा लेना पड़ता है उनको उस उद्देश्य के प्राप्य उद्देश्य कहते हैं।
एक उद्देश्य के लिए कई प्राप्य उद्देश्य हो सकते हैं। NCERT के परीक्षा एवं मूल्यांकन नामक दस्तावेज के अनुसार प्राप्य उद्देश्य वह बिन्दु है जिसकी दिशा में कार्य किया जाता है, एक सुनियोजित परिवर्तन है जिसे किसी क्रिया के द्वारा प्राप्त किया जाता है तथा जिसके लिए हम कार्य करते हैं।
प्राप्य उद्देश्यों की प्राप्ति अध्यापक कक्षा में ही करता है इसलिए इनको कक्षोपयोगी उद्देश्य भी कहते हैं। इनके द्वारा शिक्षण को उचित दिशा प्रदान की जाती है जिससे अध्यापक के प्रयास सफल हों और उन प्रयासों का लाभ विद्यार्थियों को भी मिल सके। यथार्थ रूप में प्राप्य उद्देश्य यह कथन होता है जो वांछनीय व्यवहारगत परिवर्तनों की ओर संकेत करता है।
उद्देश्य तथा प्राप्य उद्देश्यों में अंतर
1. उद्देश्य का क्षेत्र व्यापक होता है जबकि प्राप्य उद्देश्य का क्षेत्र सीमित होता है।
2. उद्देश्य दीर्घकालीन होते हैं जबकि प्राप्य उद्देश्य अल्पकालीन या तत्कालीन होते हैं
3. उद्देश्य अस्पष्ट तथा अनिश्चित होते हैं जबकि प्राप्य उद्देश्य निश्चित तथा स्पष्ट होते हैं
4. उद्देश्य की प्राप्ति में विद्यालय,समाज तथा सम्पूर्ण राष्ट्र जिम्मेदार होता है जबकि प्राप्य उदेश्य की प्राप्ति की जिम्मेदारी प्राय: शिक्षक की होती है।
5. उद्देश्य प्राप्ति का मापन तथा मूल्यांकन संभव नहीं है जबकि प्राप्य उद्देश्य का मापन तथा मूल्यांकन किया जा सकता है।
6. उद्देश्य का संबंध शिक्षा तथा भविष्य से होता है जबकि प्राप्य उद्देश्य शिक्षा में ही निहित होते हैं तथा शिक्षण से संबंधित होते हैं । इनका संबंध किसी विशेष प्रकरण से ही होता है।
7. उद्देश्य का स्त्रोत समाजशास्त्र,दर्शन शास्त्र, तथा सम्पूर्ण शिक्षा शास्त्र से होता है जबकि प्राप्य उद्देश्य का मुख्य स्त्रोत मनोविज्ञान होता है।
8. उद्देश्य में प्राप्य उद्देश्य समाहित होते हैं जबकि प्राप्य उद्देश्य ,उद्देश्य का ही एक भाग होते हैं।
9. उद्देश्य में व्यक्तिनिष्ठता (Subjectvity) होती है जबकि प्राप्य उद्देश्य वस्तुनिष्ठ होते हैं।
10. उद्देश्य प्रत्येक समाज , राष्ट्र की आवश्यकता एवम् आकांक्षाओं के अनुसार परिवर्तनशील होते हैं जबकि प्राप्य उद्देश्य निश्चित होते हैं तथा प्रत्येक विषय या प्रकरण के लिए भिन्न भिन्न होते हैं।
शिक्षण उद्येश्यों का वर्गीकरण : -
शिकागो विश्वविद्यालय में डॉ. बी. एस. ब्लूम तथा उनके सहयोगियों ने व्यवहार के तीनों पक्षों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया। ज्ञानात्मक पक्ष के प्राप्य उद्देश्यों का ब्लूम ने (1956) में, भावात्मक पक्ष के प्राप्य उद्देश्यों का करथवाल (Krathwohl) ने (1964) में तथा मनोशारीरिक या क्रियात्मक पक्ष के प्राप्य उद्देश्यों का सिम्पसन ( Simpson ) ने (1969) में वर्गीकरण प्रस्तुत किया। निम्नलिखित सारणी द्वारा शिक्षण उद्देश्यों के वर्गीकरण को प्रस्तुत किया जा सकता है-
उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखने के लिए कार्य सूचक क्रियाओं की सहायता प्राप्त की जाती है। बी.एस. ब्लूम व RCEM प्रणाली में इन्हें मानसिक योग्यताएँ (Mental Abilities) अथवा (Specifications) का नाम दिया
1. ज्ञानात्मक पक्ष
A. ज्ञान
1) प्रत्यास्मरण करना।
2) पहचान करना।
3) परिभाषित करना।
4) कथन देना।
5) लेखन कार्य करना।
6) सारणीकरण करना ।
7) चयन करना।
B. बोध
व्याख्या करना
इंगित करना
सूत्रीकरण करना
प्रस्तुति करना
वर्गीकृत करना
चयन करना
अनुवाद करना
उदाहरण देना
C. प्रयोग
गणना करना
जांच करना
प्रदर्शन करना
निर्मित करना
प्रयुक्त करना
भविष्यवाणी करना
D. विश्लेषण
विभाजित करना
निष्कर्ष निकालना
तुलना करना
विभेदीकरण करना
पृथक्करण करना
औचित्य ठहराना
E. संश्लेषण
तर्क करना
वाद विवाद करना
सामान्यीकरण करना
सारांश प्रस्तुत करना
संबंध स्थापित करना
F. मूल्यांकन
निर्णय लेना
चिन्हित करना
आलोचना करना
प्रतिवाद करना
भूल खोजना
2. भावात्मक पक्ष :
A आग्रहण
श्रवण करना
स्वीकार करना
प्रत्यक्षीकरण करना
चाहना
B. अनुक्रिया
उत्तर देना
विकसित करना
सारणी बनाना
चयन करना
C. अनुमूल्यन
प्रभावित करना
भाग लेना
अभिवृद्धि करना
D. प्रत्ययीकरण
संबंध स्थापित करना
प्रदर्शित करना
तुलना करना
विश्लेषण करना
E. व्यवस्थापन
सहसंबंध बनाना
निश्चय करना
रूप देना
F. चरित्रीकरण
पुनरावृति करना
परिवर्तन करना
समन्वय करना
3. क्रियात्मक पक्ष
A. उद्दीपन
निर्मित करना
रेखाचित्र खींचना
B. कार्य करना
C. नियंत्रण
D. समायोजन
प्रारूप करना
E. स्वाभाविकरण
F. आदत निर्माण
एन.सी.ई.आर.टी. के अनुसार शिक्षण उद्देश्य एवं व्यवहारगत परिवर्तन कार्य-सूचक-क्रियाओं की सूची
प्राप्य / शिक्षण उद्देश्य कार्य-सूचक-क्रियाएँ
1. ज्ञानात्मक उद्देश्य
(i) गणित के तथ्यों, सिद्धांतों, संकेतों का पुनः स्मरण करना।ii) गणित के तथ्यों, सिद्धांतों, संकेतों, आकृतियों को पहचानना ।iii) गणित संबंधी विभिन्न क्रियाओं एवं विधियों का ज्ञान करना।iv) गणित के सिद्धांतों, नियमों, सूत्रों का ज्ञान करना।
v) गणित संबंधी प्रत्ययों की परिभाषाओं का ज्ञान करना।
2. अवबोधात्मक उद्देश्य
i) गणित के सिद्धांतों, सूत्रों, नियमों का विश्लेषण करना।
(ii) गणित के विभिन्न प्रत्ययों में अंतर, तुलना एवं संबंध स्थापित करना।
iii) व्याख्या करना।
(iv) गणित की क्रियाओं में त्रुटि का पता लगाना।
v) गणित के ज्ञान को क्रमबद्ध रूप से व्यक्त करना।
vi) अनुमान लगाना।
vii) उदाहरण देना।
3. अनुप्रयोगात्मक उद्देश्य
i) सर्वोत्तम विधि का चयन करना।
(ii) किसी समस्या को हल करने हेतु विचार व्यक्त करना।
iii) त्रुटि में सुधार करना।
4. कौशलात्मक उद्देश्य
i) गणित की विभिन्न गणनाओं को सरलता, शीघ्रता व शुद्धता से करना।
(ii) गणित की विभिन्न आकृतियों के सुंदर चित्र, चार्ट, मॉडल बनाना।
(iii) रेखा गणित की विभिन्न नापों को पढ़ना।
iv) लेखाचित्र पढ़ना।
v) पैमाना मानकर विभिन्न प्रकार के लेखाचित्र बनाना।
(vi) त्रुटिपूर्ण यंत्रों में त्रुटि का पता लगाकर उनमें सुधार करना।
vii) गणना तथा गणित संबंधी अन्य प्रक्रियाओं को करने के लिए तालिकाओं,यंत्रों का प्रयोग कर सकने में प्रवीणता उत्पन्न करना।
5. अभिरुच्यात्मक उद्देश्य
i) गणितज्ञों की जीवनियों को पढ़ना।
(ii) गणित अध्यापक एवं विद्यार्थियों के मध्य मधुर संबंध स्थापित होना।
iii) विद्यार्थी-विद्यार्थी के मध्य मधुर संबंध स्थापित होना।
(iv) गणित की समस्या को हल करने में निरंतर प्रयत्नशील रहना।
v) गणित की समस्याओं से संबंधित अधिक से अधिक प्रश्न पूछना।
vi) पुस्तकालयों एवं वाचनालयों में जाकर पढ़ना।
(vii) गणित संबंधी विभिन्न पहेलियाँ पूछना एवं निर्माण करना।
viii) गणित संबंधी चित्रों को एकत्रित कर एलबम बनाना।
ix) गणित के क्लबों की क्रियाओं में रुचि लेना ।
6. अभिवृत्यात्मक उद्देश्य
i ) गणित के प्रति धनात्मक एवं आशावादी दृष्टिकोण रखना।
ii) कार्य को व्यवस्थित तरीके से करने की आदत डालना।
iii) असफलताओं से विचलित ना होना।
(iv) प्रत्येक कार्य को आत्मविश्वास एवं धैर्य के साथ करना।
शिक्षण उद्येश्यों को व्यावहारिक भाषा में लिखने की विधियां
1.) रॉबर्ट मेगर उपागम :
रॉबर्ट मेगर में सन् 1962 में अभिक्रमित अनुदेशन के उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखने पर विशेष महत्व दिया। उन्होंने शैक्षिक उद्देश्यों को ज्ञानात्मक ,भावात्मक को व्यावहारिक रूप में लिखने में अधिक रुचि ली तथा उसके लेखन की विधि विकसित की।
लेखन विधि में मेगर ने ब्लूम के वर्गीकरण को आधार मानकर प्रत्येक के लिए उसके उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखने के लिए कार्यसूचक क्रियाओं की सूची तैयार की।
2)रॉबर्ट मिलर उपागम :
उद्देश्यों को व्यवहारिक रूप में लिखने की मिलर की विधि , मेगर की विधि की तुलना में कुछ कठिन है।
इस विधि का निर्माण रॉबर्ट मिलर (1952) ने सैन्य अनुदेशन के लिए शैक्षिक उद्देश्यों को व्यवहार रूप में लिखने के लिए किया।।
मिलर के अनुसार:- किसी भी उद्देश्य को व्यावहारिक रूप में लिखने के लिए तीन तत्वों का होना अनिवार्य है-
i)संकेत अनुमान
ii) अनुक्रिया
iii) पृष्टपोषण
3) R.C.E.M. उपागम :- क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय मैसूर ने एक नवीन विधि का विकास किया, जिसे RCEM प्रणाली कहते हैं।
इस उपागम ने अनुदेशनात्मक उद्देश्यों को व्यवहारपरक शब्दावली में लिखने के लिए कार्यपरक पदों का प्रयोग कर मानसिक प्रक्रियाओं या मानसिक योग्यताओं का प्रयोग किया।
RCEM प्रणाली का आधार ब्लूम की टैक्सोनोमी ही है ।
सभी उद्देश्यों को 17 मानसिक क्रियाओं के रूप में प्रस्तुत किया।
उद्देश्यों की प्राप्ति में गणित अध्यापक की भूमिका
1.गणित के इतिहास तथा गणितज्ञों की जीवनी से परिचित करवाना।
2. उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग करना।
3. मानसिक विकास के लिए पर्याप्त अवसर करना।
.4 सृजनात्मक तथा क्रियात्मक अनुभव प्रदान करना।
5. ज्ञान को दैनिक तथा जीवन से संबंधित करना।
6.समय को आवश्यकतानुसार प्रयोग में लाना।
7.सभी लाभों के साथ निष्पक्ष प्रेम तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना।
8.लिखित के साथ साथ मौखिक और प्रायोगिक कार्य को भी उचित स्थान देना।
9 दिए गए गृहकार्य एवं कक्षाकार्य की नियमित जाँच करना।
10 उचित एवं नवीन प्रविधियों का प्रयोग करना।
11 छात्रों में स्पष्टता, नियमितता, कठिन परिश्रम तथा अनुशासन आदि गुणों का विकास करना आदि।
गणित शिक्षण के सामान्य उद्देश्य :-
गणित शिक्षण के सामान्य उद्देश्य :-
NCERT के दस्तावेज, गाइड लाइन्स एण्ड सिलेबी फार सेकण्डरी स्टेज (IX-X), 1988 के अनुसार माध्यमिक स्तर पर गणित शिक्षण के निम्न उद्देश्य बताए गए हैं-
1.छात्रों को गणित की शब्दावली, संकेतों, प्रत्यय, सिद्धांतों, प्रक्रिया आदि की जानकारी देना तथा समझने की योग्यता विकसित करना।
2.बीजगणित के आधारभूत कौशलों का विकास करना।
3. ज्यामितीय तथा ड्राइंग संबंधी कुशलताओं का विकास करना।
4. जीवन की व्यावहारिक समस्याओं के समाधान में गणित के ज्ञान तथा कौशलों का उपयोग करना।
5. विश्लेषण, सोचने समझने, कारण बताने तथा तर्क करने की योग्यताओं का विकास करना।
6. गणितीय तालिकाओं का समस्या समाधान में उपयोग करने की योग्यता का विकास करना।
7. आधुनिक तकनीकी युक्तियों-कैलकुलेटर, कम्प्यूटर आदि को प्रयोग में लाने के लिए आवश्यक कौशलों का विकास करना।
8. गणित में रुचि पैदा करना तथा गणितीय प्रतियोगिताओं, गणित परिषद् की गतिविधियों में रूचि विकसित करना।
9. गणित के ज्ञान की अन्य क्षेत्रों में उपयोगिता की सराहना करना।।
10. गणित की सौन्दर्यता तथा समस्या समाधान की शक्ति की प्रशंसा करना।
11. महान गणितज्ञों, विशेषतया भारतीय गणितज्ञों के योगदान की सराहना करना।
12. ध्यान केंद्रित करने की योग्यता, आत्म-निर्भरता तथा खोजपूर्ण आदतों का विकास करना।
13. वैज्ञानिक तथा वास्तविक दृष्टिकोण विकसित करना।
14. बालक के व्यक्तित्व का बहुमुखी तथा अनुरूप विकास करना।
15. बालक को तकनीकी व्यवसायों के लिए तैयार करना।
16. बालक के मस्तिष्क को एक विशेष प्रकार का अनुशासन प्रदान करना।
NCF 2005 के अनुसार गणित शिक्षण के उद्देश्य
गणित की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चे की गणितीकरण की क्षमताओं का विकास करना है। स्कूली गणित का सीमित लक्ष्य है 'लाभप्रद' क्षमताओं का विकास, विशेषकर अंक ज्ञान संख्या से जुड़ी क्षमताएँ, सांख्यिकी संक्रियाएँ, माप, दशमलव व प्रतिशत। इससे उच्च लक्ष्य है। बच्चे के साधनों को विकसित करना ताकि यह गणितीय ढंग से सोच सके व तर्क कर सके, मान्यताओं के तार्किक परिणाम निकाल सके. और अमूर्त को समझ सके। इसके चीजों को करने और समस्याओं को सूत्रबद्ध करने व उनका हल ढूंढने की क्षमता का विकास करना आता है।
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