Saturday, August 22, 2020

ध्वन्यात्मक विधि और भाषा संसर्ग विधि

ध्वन्यात्मक विधि :- 

प्रवर्तक :- माइकल सेमर (1935) ।

प्राथमिक अवस्था में इस विधि का प्रयोग किया जाता है।

इस विधि में बालकों के सामने समान ध्वनि वाले शब्द लिखने का अवसर दिया जाता है जिससे बालक कम समय में बहुत सारे शब्द आसानी से सीख लेता है ।

जैसे :- नल चल कल , नाम धाम काम पाम ।

भाषा शिक्षण के दौरान जब भक्ति कालीन कवियों की कविताओं को पढ़ाते हैं तो इस विधि का उपयोग किया जाता है क्योंकि उन कविताओं में प्रथम व द्वितीय पंक्तियों के अंतिम ध्वनि समान रूप से उच्चारित होती है ।

इस विधि का प्रयोग उच्चारण कौशल के विकास के लिए किया जाता है।

अंग्रेजी भाषा के उच्चारण के लिए इस विधि का प्रयोग किया गया था।

इस विधि में शब्दों वाक्य खंडों और वाक्यों की ध्वनियों पर अधिक ध्यान दिया जाता है।

इस विधि में ध्वनियों का , उनके उच्चारण तथा अक्षर विन्यास का भी अभ्यास हो जाता है ।

यह विधि संश्लेषणात्मक कहलायी जाती है क्योंकि इनमें अक्षर से प्रारंभ करते हैं और अक्षरों के जोड़ या संश्लेषण से शब्द बनाते हैं।


भाषा संसर्ग विधि :- 

 प्राथमिक कक्षाओं में व्याकरण पढ़ाने की यही प्रणाली लाभदायक है ।

इस प्रणाली में व्याकरण के नियमों का ज्ञान कराए बिना भाषा के स्वरूप का अनुकरण करने का अवसर प्रदान कर छात्रों को भाषा के शब्द रूप का प्रयोग करना सिखाया जाता है ।

इसके द्वारा प्रारंभिक कक्षाओं में रचना तथा अभ्यास द्वारा भाषा का शुद्ध  प्रयोग कराया जाता है।

प्राथमिक स्तर पर बच्चों को व्यावहारिक व्याकरण का ज्ञान देने के लिए यह विधि उपयोगी है।

भाषा संसर्ग विधि के दोष:- 

व्याकरण के नियमों का ज्ञान नहीं हो पाता ।

समय अधिक खर्च होता है।

व्याकरण का सैद्धांतिक ज्ञान नहीं दिया जाता (भण्डारकर विधि द्वारा दिया जाता है।)

यह मनोवैज्ञानिक अवश्य है क्योंकि विद्यार्थियों को बुद्धि और तर्क से काम लेना पड़ता है ।

भाषा की शिक्षा दी जा सकती है व्याकरण कि नहीं ।

भाषा शिक्षण की विधि कही जा सकती है व्याकरण शिक्षण की नहीं ।

व्याकरण के नियमों का व्यवस्थित ज्ञान भी नहीं हो पाता।





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