Saturday, August 29, 2020
वाद विवाद विधि तथा प्रश्नोत्तर विधि
व्याकरण शिक्षण विधियां
व्याकरण शिक्षण विधियां :-
व्याकरण शिक्षण को रोचक तथा आकर्षक बनाने के लिए विभिन्न विधियों का प्रयोग प्राचीन काल से ही किया जा रहा है।
इन विधियों की चर्चा दो प्रकार से की जाती है
1 प्राचीन विधियां 2 नवीन विधियां।
प्राचीन विधियां
1 सूत्र विधि :- इस विधि को पांडित्य विधि भी कहा जाता है ।
- सूत्र विधि संस्कृत व्याकरण शिक्षण की प्राचीनतम विधि है । इसमें व्याकरण के नियमों को सूत्र के रूप में कंठस्थ कराया जाता है।
- कंठस्थ सूत्रों के आधार पर छात्र उस सूत्र के प्रयोग का ज्ञान प्राप्त करते थे।
- सूत्रों का मुख्य उद्देश्य गागर में सागर था ।
- इस विधि में संपूर्ण व्याकरण ज्ञान को छोटे-छोटे नियमों में बांध दिया जाता था।
- इन छोटे-छोटे नियमों को ही सूत्र के नाम से पुकारा जाता है । इस विधि में छात्र सूत्रों को रट कर ही व्याकरण का सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त करता है।
- रटने की प्रवृत्ति अधिक होने के कारण यह अमनोवैज्ञानिक विधि मानी जाती है
- यह विधि सामान्य से विशिष्ट की ओर शिक्षण सूत्र पर आधारित है।
- संस्कृत व्याकरण शिक्षण की सर्वाधिक प्रयोग में आने वाली विधि है।
- संस्कृत व्याकरण शिक्षण की यह सबसे प्राचीन विधि मानी जाती है। इस विधि के प्रयोगकर्ता महर्षि पाणिनि है।
सूत्र की परिभाषा :- विद्वानों के अनुसार सूत्र के 6 लक्षण होते हैं ।
अल्पाक्षरं - छोटे-छोटे अक्षरों का समूह ।
असंदिग्धं :- संदेह से रहित ।
सारवद :- सारांश पूर्ण ।
विश्वतोमुखम :- सदा सदा से चला आने वाला ।
अस्तोभं :- अवरोध से रहित ।
अनुवद्यम :- निंदा से रहित ।
सूत्र के भेद :- संस्कृत व्याकरण में प्रयुक्त होने वाले सूत्र छह प्रकार के माने जाते हैं ।
1 संज्ञा सूत्र
2परिभाषा सूत्र
3विधि सूत्र
4नियम सूत्र
5अतिदेश सूत्र तथा
6 अधिकार सूत्र।
पारायण विधि :-
- बिना अर्थ समझे वैदिक मंत्रों का सस्वर पाठ पारायण कहलाता है ।
- पारायण करते समय ब्रह्मचारी पूर्व दिशा की तरफ मुख करता है।
- आचार्य पाणिनि के समय में पारायण विधि प्रचलित थी । यह विधि कण्ठस्थीकरण के ऊपर बल देती है।
- पारायण करते समय बीच में कोई बातचीत नहीं होती ।
- इस विधि में नियमों की आवृत्ति की जाती है ।
- पारायण करने वाले छात्र पारायणिक कहलाते हैं।
- यह पारायण अनेक प्रकार का होता है।
- जैसे पंचक अध्ययन:- पाठ को 5 बार पढ़ना।
- पंचवार अध्ययन:- शब्दों को 5 बार पढ़ना।
- पंच रूप अध्ययन :- सभी को 5 बार पढ़ना या पांच तरीके से पढ़ना
- परीक्षा में एक अशुद्धि करने वाला छात्र :- एकनयिक ।
- दो अशुद्धि करने वाला छात्र द्वनयिक।
- तीन अशुद्धि करने वाला छात्र त्रनयिक कहलाता है।
- इस विधि से बालकों में रटने की प्रवृत्ति का विकास होता है ।
- अतः यह विधि वर्तमान में व्याकरण शिक्षण के लिए उपयोगी नहीं मानी जाती है।
Friday, August 28, 2020
NCF 2005
National Curriculum Framework 2005 (NCF 2005)
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 की रूपरेखा
शिक्षण अधिगम प्रक्रिया मुख्य रूप से पाठ्यक्रम पर ही निर्भर करती है वास्तविक रूप से पाठ्यक्रम ही वह साधन है जो कि अध्यापक तथा विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करता है ।
पाठ्यक्रम का अर्थ :- करिकुलम शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के कोरियर(CURRERE) से हुई है जिसका अर्थ है दौड़ का मैदान।
पाठ्यक्रम दौड़ का मैदान है जिस पर बालक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दौड़ता है ।
कनिंघम के अनुसार :- कलाकार(शिक्षक) के हाथ में यह(पाठ्यक्रम) एक साधन है जिससे वह पदार्थ(छात्र) को अपने आदर्श(उद्देश्य) के अनुसार अपने स्टूडियो(विद्यालय) में चित्रित कर सके।
मुनरो के अनुसार :- पाठ्यचर्या में वे समस्त अनुभव निहित होते हैं जिनको विद्यालय द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उपयोग में लाया जाता है ।
पाठ्यक्रम छात्र एवं अध्यापक को जोड़ने वाली कड़ी है ।
माध्यमिक शिक्षा आयोग 1952-53 के अनुसार :- पाठ्यक्रम का अभिप्राय उन सैद्धांतिक विषयों से नहीं है जो विद्यालय में परंपरागत तरीके से पढ़ाए जाते हैं बल्कि इनमें अनुभवों का एक समूह है तो जिनको बालक कक्षा, पुस्तकालय ,प्रयोगशाला ,प्रार्थना सभा ,कार्यशाला ,खेल मैदान एवं छात्र अध्यापक के अनौपचारिक मेल मिलाप से प्राप्त करता है ।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 की आवश्यकता क्यों ....?
- नैतिक एवं मानवीय मूल्यों में वृद्धि करना ।
- कक्षा कक्ष शिक्षण को प्रभावशाली बनाने हेतु नवीन पाठ्यक्रम की आवश्यकता पर बल ।
- विद्यार्थियों की जरूरतों एवं रुचि को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम के निर्माण की आवश्यकता ।
- अध्यापकों की संतुष्टि के लिए पाठ्यक्रम निर्माण उनकी सहायता करना ।
- शैक्षिक लक्ष्यों की प्राप्ति ,शिक्षण विधियों में सुधार एवं विकास हेतु राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की आवश्यकता का होना।
- भाषा समस्या के निदान हेतु नवीन पाठ्यक्रम संरचना की आवश्यकता ।
- प्रथम NCF 1975
- द्वितीय NCF 1988
- तृतीय NCFSE 2000
- चतुर्थ NCF -2005।
NCF 2005 रविंद्र नाथ टैगोर के निबंध सभ्यता और प्रगति के एक उद्धरण से प्रारंभ होता है :-
" उदार आनंद एवं सृजनात्मकता बचपन की कुंजी है किंतु नासमझ वयस्क संसार द्वारा इनकी विकृति का खतरा है"
NPE 1986 (राष्ट्रीय शिक्षा नीति) :- NPE1986 में इस बात पर बल दिया गया कि पाठ्यचर्या को भारतीय संविधान में वर्णित राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार करनी चाहिए।
POA 1992( प्रोग्राम ऑफ एक्शन 1992) में प्रासंगिकता,गुणवत्ता, लचीलापन के तत्व पर बल देते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रावधानों का क्रियान्वयन किया गया।
यशपाल समिति 1993 में "बिना बोझ के शिक्षा " LEARNING WITHOUT BURDEN " की सिफारिश की
बिना बोझ की शिक्षा - तनाव रहित शिक्षा।
निदेशक - प्रोफेसर कृष्ण कुमार ।
अध्यक्ष - प्रोफेसर यशपाल ।
यह विद्यालय शिक्षा का अब तक का नवीनतम राष्ट्रीय दस्तावेज है।
Ncf-2005 के अंश/ भाग / अध्याय :-
- परिप्रेक्ष्य
- सीखने का ज्ञान
- पाठ्यचर्या के क्षेत्र स्कूल की अवस्थाएं एवं आकलन
- विद्यालय का कक्षा का वातावरण
- व्यवस्थागत सुधार
NCFSE 2000 की समीक्षा के लिए गठित यशपाल सिंह समिति के अलावा 21 फोकस समूहों का गठन किया गया
NCERT के 5 और क्षेत्रीय कार्यालय ,विभिन्न राज्यों की परीक्षा बोर्ड, शिक्षा सचिव ,शिक्षाविदों तथा आम जनता के विस्तृत विचार विमर्श के बाद ncf-2005 को मंजूरी दी।
NCERT 1961 नई दिल्ली ।
SIERT 1978 उदयपुर ।
DIET - NPE 1986 के प्रावधानों के तहत ।
NCERT के 5 क्षेत्रीय कार्यालय ।
- अजमेर -राजस्थान
- भोपाल- म प्र
- मैसूर कर्नाटक
- भुवनेश्वर उड़ीसा
- शिलांग -मेघालय
ncf-2005 का 22 भाषा में अनुवाद किया गया है तथा वर्तमान में यह 17 राज्यों में लागू है ।
ncf-2005 की संचालन समिति में 35 सदस्य हैं जिनमें राजस्थान की एकमात्र सदस्य रोहित धनखड़ हैं ।
ncf-2005 के तहत यह प्रावधान है कि बालक की प्राथमिक स्तर की शिक्षा स्थानीय भाषा अर्थात घरेलू भाषा में होनी चाहिए यदि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा या स्थानीय भाषा के शिक्षक उपलब्ध ना हो तो संविधान के अनुच्छेद 350 का के तहत स्थानीय शिक्षा अधिकारियों को बालक की भाषा विकास के लिए सुविधा उपलब्ध करवाना अनिवार्य है । राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में 5वी तक मातृभाषा में पढ़ाने के आदेश दिये हैं।
- ncf-2005 के निदेशक तत्व विद्यालय का माहौल पाठ्यचर्या का हिस्सा हो।
- पढ़ाई को रटंत प्रणाली से मुक्त किया जाए
- छात्रों को चहुंमुखी विकास के अवसर दें ।
- परीक्षा को कक्षा की गतिविधि से जोड़ दें ।(खुली किताब परीक्षा)
- प्रजातांत्रिक ढांचे को मजबूत बनाना ।
- ncf-2005 चार महत्वपूर्ण विषयों के बारे में सुझाव देता है
भाषा ,गणित ,सामान्य विज्ञान, सामाजिक विज्ञान ।
भाषा:- त्रिभाषा सूत्र की संस्तुति (NPE 2020 में )
- प्रथम भाषा :- राज्य/ राष्ट्रीय भाषा -हिंदी
- द्वितीय भाषा :- अंतर्राष्ट्रीय भाषा -अंग्रेजी
- तृतीय भाषा :- स्थानीय भाषा -संस्कृत, पंजाबी ,गुजराती, मारवाड़ी इत्यादि।
सर्वप्रथम कोठारी आयोग 1964-66 ने सुझाव दिया शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो ।
- अंग्रेजी पहली कक्षा से ही अनिवार्य हो।
- बहुभाषिक प्रवीणता का विकास हो ।
- भाषाई कौशलों का विकास हो ।
- आरंभिक स्तर पर पढ़ने (READING) विशेष बल।
- गणित:- बालकों को अनुभव से गुथी हुई गणित पढ़ाना।
- उनकी वैचारिक प्रक्रिया का गणितीकरण करना ।
- बालकों में अमूर्तनों की संकल्पना तथा तार्किक चिंतन का विकास।
- प्रत्येक विद्यालय में कंप्यूटर सॉफ्टवेयर, इंटरनेट आदि कनेक्टिविटी की ढांचागत सुविधा उपलब्ध कराना।
- सामान्य विज्ञान:- बालकों को दैनिक जीवन के अनुभवों का विश्लेषण करने तथा उनकी सत्यता की जांच करने में सक्षम बनाना।
- बाल विज्ञान कांग्रेस की तर्ज पर देश में एक सामाजिक आंदोलन चलाना ताकि अन्वेषण का माहौल पैदा हो सके।
- बालकों को ज्ञान परियोजनाओं के माध्यम से देना चाहिए।
सामाजिक विज्ञान :-
- जेंडर के संबंध में न्याय।
- एससी एसटी के मामलों में जागरूकता तथा अल्पसंख्यकों के प्रति संवेदनशीलता ।
- ज्ञान के विशिष्ट क्षेत्रों की खोज उदाहरण के लिए पानी जैसे मुद्दों का समाकलन ।
- स्थानीय निकायों को मजबूत बनाना ।
NCF 2005- महत्वपूर्ण बातें:-
- आरंभिक स्तर पर अधिगम को कार्य तथा अनुभव से जोड़ना।
- कला शिक्षा हर स्तर पर एक विषय के रूप में लागू हो जिसमें कला के चारों पहलू नृत्य नाटक संगीत दृश्य कला में शामिल हो ।
- शांति के लिए शिक्षा को शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में शामिल करना।
- शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की अवधि बढ़ाना ताकि इंटरशिप के माध्यम से शिक्षा शास्त्र के सिद्धांतों को व्यवहारिक रूप दिया जा सके ।
- स्थानीय स्तर पर विद्यालय के कैलेंडर को लचीला बनाना।
- मानचित्रकरण द्वारा उन इलाकों की पहचान करना जहां पर छात्र स्थानीय दक्ष कारीगरों से प्रशिक्षण प्राप्त कर सके।
- ncf-2005 निर्मित वाद की अवधारणा को मान्यता देता है जिसके अनुसार बालक सक्रिय होकर स्वयं ज्ञान का निर्माण करता है तथा शिक्षक सुविधा प्रदाता सहजकर्ता की भूमिका निभाता है।
- ncf-2005 की मान्यता है कि परीक्षा ऐच्छिक हो तथा प्रश्न पत्र में कम से कम 25% से 40% तक प्रश्न वस्तुनिष्ठ हों।
- ncf-2005 का उद्देश आरंभिक पीढ़ी को धर्म,जाति,भाषा,लिंग,क्षेत्र अथवा शारीरिक क्षमताओं की चुनौतियों से रखते हुए शारीरिक व मानसिक प्रदान करते हुए शिक्षा उपलब्ध कराना है।
- प्रोफेसर यशपाल सिंह के अनुसार विद्यालय स्तर पर विद्यार्थियों से प्रोजेक्ट वर्क करवाने पर बल दिया गया।
- ncf-2005 करके सीखने से संबंधित है ।
- ncf-2005 दो विशिष्ट सूत्रों का पालन करता है - ज्ञात से अज्ञात, मूर्त से अमूर्त।
- ncf-2005 त्रिभाषा सूत्र का पालन करता है- हिंदी ,अंग्रेजी ,मातृभाषा ।
- ncf-2005 शिक्षा के क्षेत्र में क्रियात्मक अनुसंधान पर बल देता है ।
- ncf-2005 आत्मनिर्भर बनाने वाली जीवन उपयोगी शिक्षा पर बल देता है ।
- ncf-2005 के अनुसार पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए जिसमें आवश्यकता अनुसार परिवर्तन किया जा सके ।
- ncf-2005 कल्पनाशीलता तथा मौलिक लेखन कार्य को महत्वपूर्ण मानता है ।
- ncf-2005 के द्वारा समावेशी शिक्षा की अवधारणा प्रस्तुत की गई ।
- नवीन शिक्षण विधियों के प्रयोग पर बल
- नवीन तकनीक के प्रयोग को मान्यता
- पाठ्य सहगामी क्रियाओं की अनिवार्यता
- बाल केंद्रितता को महत्वपूर्ण स्थान
- छात्रों के सर्वांगीण विकास पर बल
- शिक्षा को व्यवसायोन्मुखी बनाने का प्रयास
- मानसिक स्तर एवं योग्यता के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्धारण
- परीक्षा प्रणाली में सुधार का आयोजन
- निरंतर व व्यापक मूल्यांकन (CCE) की व्यवस्था
- पाठ्यचर्या में पर्यावरण शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान
- स्वास्थ्य एवं शारीरिक शिक्षा को विद्यालय शिक्षा का अनिवार्य भाग बनाया जाए
ncf-2005 के अनुसार पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत :- बाल केंद्रित पाठ्यक्रम
- उपयोगिता का सिद्धांत
- लचीलापन का सिद्धांत
- क्रियाशीलता का सिद्धांत
- क्रमबद्धता का सिद्धांत
- व्यापक एवं संतुलन का सिद्धांत
- विभिन्न विषयों से सहसंबंध का सिद्धांत
- विभिन्न स्तरों के अनुसार पाठ्यक्रम
- मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुरूप पाठ्यक्रम।
Wednesday, August 26, 2020
संस्कृत शिक्षण विधियां
शिक्षण विधि :- किसी भी कक्षा में पढ़ाते समय एक शिक्षक का पढ़ाने का जो तरीका होता है उसे शिक्षण विधि कहते हैं । शिक्षण विधि का क्षेत्र सीमित होता है यह केवल एक शिक्षक एवं एक कक्षा को ही प्रभावित करती है ।
शिक्षण प्रणाली :- एक विद्यालय सुबह से लेकर शाम तक जिस तरीके से संचालित होता है उसे शिक्षण प्रणाली कहते हैं, शिक्षण प्रणाली का क्षेत्र व्यापक होता है यह संपूर्ण विद्यालय को प्रभावित करता है ।
व्याकरण शिक्षण:-
ऊद्देश्य:- भाषाज्ञानम्ं ।
सामान्य जानकारियां -
व्याकरण शब्द वि + आँड् + कृ धातु + ल्युट प्रत्यय के योग से बना है ।
व्याकृयंंते व्युत्पाद्य्ंते शब्दा: अनेन इति व्याकरणम।
अर्थात जिस शास्त्र के द्वारा शब्द की उत्पत्ति या रचना का ज्ञान करवाया जाता है उसे व्याकरण शास्त्र कहते हैं ।
प्रधानम् च षडअन्गेषु व्याकरणम्।
वेद के 6 अंगों में व्याकरण को सबसे प्रधान अंग माना जाता है ।
मुखम् व्याकरणम् स्मृतम् ।
वेद के 6 अंगों में व्याकरण को वेद पुरुष के मुख अंग के रूप में स्वीकार किया जाता है ।
व्याकरण = मुखम।
ज्योतिष = चक्षु ।
निरुक्त = श्रोतुम (कान)।
कल्प:- हस्तौ (हाथ)
शिक्षा :- घ्राणम ( नाक)
छन्द :- पादौ(पैर)।
महर्षि पतंजलि ने एवं किशोर दास बाजपेई ने व्याकरण को शब्दानुशासन कहकर पुकारा है ।
किशोरी दास बाजपेई ने व्याकरण को भाषा का भूगोल भी कह कर पुकारा है।
डॉक्टर स्वीट महोदय के अनुसार भाषा का व्यवहारिक विश्लेषण व्याकरण है ।
व्याकरण को भाषा शिक्षण का सर्वश्रेष्ठ मार्ग भी कहा जाता है।
व्याकरण को भाषा का मेरुदंड भी कहा जाता है।
संस्कृत व्याकरण के अंतर्गत पाणिनी, वररुचि एवं पतंजलि व्याकरण शास्त्र के सर्वश्रेष्ठ विद्वान हुए माने जाते हैं।
इन तीनों को मुनित्रय के नाम से भी पुकारा जाता है।
इन तीनों में भी महर्षी पाणिनी सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण हुए हैं , उन्होंने व्याकरण के नियमों को अपनी अष्टाध्याई रचना में सूत्रों के नाम से प्रतिपादित किया है । पाणिनी ने वाक्य को ही भाषा की इकाई माना है।
महर्षि वररुचि ने पाणिनी द्वारा बनाए गए सूत्रों में संशोधन करते हुए लगभग 1500 वार्तिक लिखे हैं ।
पतंजलि ने पाणिनि के सूत्रों की सरल शब्दों में व्याख्या की इनके द्वारा बनाए गए नियम इष्ठि के नाम से एवं उनकी रचना महाभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है।
व्याकरण शास्त्र का उच्चारण में बहुत अधिक महत्व माना जाता है।
व्याकरण की प्रशंसा करते हुए एक पिता अपने पुत्र से कहता है यद्यपि बहूनाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम् स्वजन: श्वजनो मा भूत सकलम् शकलं सकृच्छ्कृत ( सकृत + शकृत )।
बहुत से शास्त्रों का अध्ययन किए हुए पुत्र से पिता कह रहा है कि हे पुत्र तुमनेेेे बहुत शास्त्रों का अध्ययन कर लिया है फिर भी तुम व्याकरण को अवश्य पढो।
स्वजन = परिजन।
श्वजन = कुत्ता।
सकलम = संपूर्ण ।
शकलम = टुकड़ा ।
सक्रत= एक बार ।
शकृत = गोबर।
व्याकरण शिक्षण की विशिष्टता:-
बालकों को भाषा के नियमोंं का ज्ञान करवाना ।
बालकों को शब्दों एवं वाक्य रचना का ज्ञान करवाना ।
बालकों को शब्द रूप व धातु रूप का ज्ञान करवाना ।
बालकों में तर्क एवं चिंतन शक्ति का विकास करना ।
बालकों में भाषा के चारों मूलभूत कौशलों का क्रमबद्ध विकास करना ।
महर्षि पतंजलि ने व्याकरण के निम्नलिखित 5 प्रयोजन माने हैं ।
रक्षोहगमल्घ्वसन्देहा:
रक्षा = वैदिक ज्ञान की रक्षा करना।
ऊह = नवीन शब्दों की रचना।
आगम = पठन में निरंतरता।
लघु= संक्षिप्तता ।
असन्देह = शंका या संदेह का समाधान ।
व्याकरण शिक्षण की विधियां :-
व्याकरण शिक्षण के लिए अनेक प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जाता है ।
प्राचीन विधियां :- आगमन विधि ,
निगमन विधि ,
सूत्र विधि ,
पारायण विधि ,
भाषा संसर्ग विधि,
वाद विवाद विधि ,
व्याख्या विधि ,
अर्वाचीन या नवीन विधियां :- आगमन निगमन विधि ।
समवाय या सहयोग विधि ।
पाठ्यपुस्तक विधि।
अन्य विधि :- अनौपचारिक विधि या सैनिक विधि।
Tuesday, August 25, 2020
RTE 2009
RTE 2009
देश की आजादी के समय जब संविधान का निर्माण हुआ तो तीन प्रकार की कार्यसूची आधारित की गई थी।
संघ सूची ,राज्य सूची ,समवर्ती सूची।
शिक्षा को राज्य सूची में विषय बनाया गया परंतु राज्यों के माध्यम से शिक्षा का प्रचार प्रसार ठीक से नहीं हो पाया तब 1976 ,42 वें संविधान संशोधन द्वारा शिक्षा को समवर्ती सूची में जोड़ा गया ।
12 दिसंबर 2002 में 86 वा संविधान संशोधन करवाया और शिक्षा को बालक का मौलिक अधिकार( स्वतंत्रता का अधिकार 19 से 22) बना दिया।
[अनु.18(क)] राज्य के 6 से 14 वर्ष के बच्चों को निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना (*86 वाँ संविधान संशोधन 2002)।
इसके लिए संविधान में अनुच्छेद 21a सृजित हुआ ।अभिभावक एवं सरकार के लिए अनुच्छेद 51A के उपबंध में इसे कर्तव्य घोषित किया गया।
वर्तमान आरटीई 2009 के लिए राज्यसभा में 20 जुलाई 2009 को तथा लोकसभा में 4 अगस्त 2009 में विधेयक पारित किया गया ।
उसके बाद तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने 26 अगस्त 2009 को हस्ताक्षर किए।
27 अगस्त 2009 को गजट नोटिफिकेशन जारी हुआ और 1 अप्रैल 2010 को आरटीई संपूर्ण देश में लागू हो गया (जम्मू कश्मीर को छोड़कर)।
इसके लागू होने के साथ भारत विश्व के 135 उन देशों में शामिल हो गया जहां शिक्षा का अधिकार लागू है ।
1 अप्रैल 2010 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे जम्मू कश्मीर के अलावा संपूर्ण देश में लागू कर दिया।
आरटीई 2009 की धारा 38 का लाभ लेते हुए तत्कालीन राजस्थान सरकार ने 29 मार्च 2011 को सीएम गहलोत के नेतृत्व में उसमें संशोधन किया और 1 अप्रैल 2011 से राजस्थान में संशोधित आरटीई " निशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम 2011 "के नाम से लागू हुआ।
महत्वपूर्ण बातें :-
अनुच्छेद 21a मूल अधिकार ।
अनुच्छेद 51A k/11/ट मूल कर्तव्य।
अनुच्छेद45 3 से 6 वर्ष के बालकों की शिक्षा आंगनवाड़ी शब्द फ्राबैल के किन्डर गार्डन से लिया गया है जिसका अर्थ है बच्चों की फुलवारी ।
आरटीई के अंतर्गत विकलांग बालकों हेतु आयु वर्ग 6 से 18 वर्ष माना गया है ।
20 जुलाई 2009 आरटीई राज्यसभा द्वारा पारित।
4 अगस्त 2009 लोकसभा द्वारा पारित ।
26 अगस्त 2009 राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने हस्ताक्षर किए ।
27 अगस्त 2009 गजट नोटिफिकेशन जारी ।
1 अप्रैल 2010 आरटीई संपूर्ण देश में लागू (जम्मू कश्मीर को छोड़कर )।
आरटीई 2009:- कुल धारा 38, अध्याय 7 ,अनुसूची 1
RTE 2009
अध्याय 07
अध्याय 1 प्रारंभिक परिचय(धारा 1और 2) ।
अध्याय 2 निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के प्रावधान (धारा 3 और 4 )।
अध्याय 3 समुचित सरकार स्थानीय निकाय तथा अभिभावकों के कर्तव्य वर्णित हैं(धारा 5 से 11) ।
अध्याय 4 विद्यालय तथा शिक्षकों के कर्तव्य वर्णित हैं (धारा 12 से 28 )। सबसे बड़ा अध्याय ।
अध्याय 5 प्रारंभिक शिक्षा का पाठ्यक्रम तथा उसको पूरा किए जाने से संबंधित प्रावधान (धारा29-30)।
अध्याय 6 बालकों के अधिकारों के संरक्षण से संबंधित प्रावधान( धारा 31-34) ।
अध्याय 7 अन्य मुद्दे(धारा 35 से 38) ।
RTE 2009 धाराएँ
धारा 1 संक्षिप्त नाम एवं विस्तार :- निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा।
धारा 2 आरटीई के अंतर्गत प्रयुक्त शब्दावली:-
प्रारंभिक शिक्षा
बालक
अन्वेषण प्रक्रिया
वंचित वर्ग
स्थानीय निकाय
समुचित सरकार
दुर्बल वर्ग ।
धारा 3 प्रारंभिक शिक्षा ।
धारा 4 ड्रॉपआउट ।
धारा 5 स्थानांतरण प्रमाण पत्र ।
धारा 6 विद्यालय स्थापना /दूरी ।( धारा (6)six school Fix)
धारा 7 वित्तीय अनुपात ( धारा 7 केंद्र राज्य साथ साथ)
धारा 8 समुचित सरकार के कर्तव्य ।
धारा 9 स्थानीय निकायों के कर्तव्य वर्णित है ।
धारा 10 अभिभावकों के कर्तव्य ।
धारा 11 आंगनवाड़ी केंद्र ।
धारा 12 25% आरक्षण ।(12×2=24+1=25)
धारा 13 अनुवीक्षण प्रक्रिया ।
धारा 14 प्रवेश के समय जन्म प्रमाण पत्र । {धारा 14 कब 14}
धारा 15 30 सितंबर तक प्रवेश ।{15×2=30}
धारा 16 कोई भी फेल नहीं होगा ।
17 बालक को शारीरिक और मानसिक रूप से दंडित नहीं किया जाएगा। (धारा 17 बच्चा मस्त रह )
धारा 16 व 17 को बालकों का स्वर्ग कहा गया है।
धारा 18 बिना मान्यता विद्यालय चलाना प्रतिबंधित है उल्लंघन करने पर एक लाख का जुर्माना और निरंतर उल्लंघन करने पर प्रतिदिन 10000 ।
धारा 19 विद्यालय के जो मानक स्थापित हैं उन्हें 3 वर्ष पूरे करने होंगे ।
धारा 20 केंद्र सरकार अधिसूचना द्वारा किसी भी मानक में परिवर्तन कर सकेगी ।
धारा 21 एसएमसी प्रत्येक विद्यालय में कम से कम 15 सदस्य विद्यालय प्रबंधन समिति का गठन अनिवार्य है 50% महिलाएं कम से कम ,75% अभिभावक , एससी एसटी के सदस्य छात्रों की संख्या के अनुपात में ,
बैठक:- एसएमसी की साधारण सभा की बैठक हर 3 महीने में एक बार तथा कार्यकारिणी सभा की बैठक हर माह अमावस्या के दिन बैठक अनिवार्य है , गणपूर्ति 33.33% तथा एसएमसी का कार्यकाल 2 वर्ष का होता है ।
वर्तमान में एसएमसी में 16 सदस्य होते हैं ।
प्रधानाध्यापक सचिव होता है तथा अभिभावकों में से अध्यक्ष बनाया जाता है ।
धारा 22 एसडीपी कार्यालय अवधि 3 वर्ष ।
धारा23 टेट ।
धारा 24 शिक्षकों के कर्तव्य :-
- नियमित रूप से विद्यालय जाना ।
- तय सीमा में बालक को पाठ्यक्रम पूरा करना।
- बच्चों के लर्निंग रिकॉर्ड्स रखना ।
- अभिभावकों से संपर्क में रहना ।
- बाल केंद्रित विधि से पठन करवाना।
- अध्यापन की सफलता का निरीक्षण करना ।
- छात्र की सर्वोत्कृष्ट उन्नति के लिए उचित मार्ग निश्चित करना।
धारा 25 विद्यार्थी शिक्षक अनुपात:- निर्धारित समय में पूरा करना होगा ।(अनुसूची 1 में वर्णित )
धारा 26 आरटीई के तहत किसी विद्यालय में शिक्षकों के 10% से अधिक पद रिक्त नहीं रखे जाएंगे
धारा 27 (30 में 3 कम इसलिए 3 काम )
1. शिक्षकों को जनगणना कार्यक्रम
2.आपदा राहत कार्य
3. स्थानीय निकायों के चुनाव कार्य में अतिरिक्त किसी भी अन्य कार्यों में सम्मिलित हेतु बाध्य नहीं किया जाएगा।
धारा 28 प्राइवेट ट्यूशन। (30 no आते ट्यूशन नहीं गया 2 no काट लिए )
धारा 29 प्रत्येक विद्यालय में CCE , पाठ्यक्रम का विकेंद्रीकरण किया जाए। यदि प्रारंभिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में कोई परिवर्तन किया गया है तो इसकी लिखित अधिसूचना समाचार पत्रों में प्रकाशित करवाई जाएगी तथा इन्हें प्रत्येक विद्यालय में पहुंचाया जाएगा ।
धारा 30 किसी विद्यार्थी को कक्षा 8 में बोर्ड एग्जाम में बैठने हेतु बाध्य नहीं किया जा सकता ।
धारा 31 बालकों के अधिकारों के संरक्षण हेतु एक बाल अधिकार संरक्षण आयोग का गठन किया जाएगा ।
धारा 32 इस आयोग के अंतर्गत अभिभावक संरक्षक विद्यालय प्रबंध के व्यक्ति समाज के कोई भी व्यक्ति लिखित शिकायत दर्ज करवा सकता है।
धारा 33 केंद्र सरकार को शिक्षा सलाहकार परिषद का गठन करता है 15 सदस्य अध्यक्षता प्रधानमंत्री यह प्रक्रिया 3 वर्ष में एक बार की जाती है।
धारा 34 राज्य सरकार से संबंधित राज्य सलाहकार परिषद का गठन 15 सदस्य अध्यक्षता मुख्यमंत्री द्वारा की जाएगी ।
धारा 35 सरकार मार्गदर्शन सिद्धांत जारी करेगी।
धारा 36 धारा 13 ,18, 19 के दंडनीय अपराध के लिए अभियोजन मंजूरी।
धारा 37 SMC के खिलाप कोई वाद- विवाद कार्यवाही सम्बन्धी प्रक्रिया।
धारा 38 सरकार चाहे तो अपने निजी हितों को ध्यान में रखते हुए कुछ संशोधन करवा सकती है (राजस्थान ने किया था)
अनुसूची 1
छात्र अनुपात शिक्षक :-
कक्षा 1 से 5 तक छात्र : शिक्षक
60 तक : 2 ( दो शिक्षक अनिवार्य )
61 -90 : 3
91 - 120 : 4
121 - 200 : 5
नोट :- छात्रों की संख्या 150 से अधिक होने पर एक प्रधानाध्यापक होगा , 200 से अधिक होने पर छात्र शिक्षक अनुपात 40 : 1 से अधिक नहीं हो सकता ।
प्रश्न:- 183 बच्चे हो तो छात्र अनुपात शिक्षक क्या होगा।
A.4 B.5 C.6 D.5+1
प्रधानाध्यापक को शिक्षकों में शामिल नहीं किया जाता है
कक्षा 6 से 8
छात्र : शिक्षक
35 : 1
छात्रों की संख्या 100 से अधिक होने पर एक प्रधानाध्यापक होगा तथा कम से कम शिक्षक निम्न में से प्रत्येक विषय का या प्रतिकक्षा होगा ।
1 भाषा 2 गणित व विज्ञान 3 सामाजिक विज्ञान।
एक शैक्षणिक सत्र में न्यूनतम
कार्य दिवस कार्य घन्टे
कक्षा 1 से 5 200 800
कक्षा 6 से 8 220 1000
प्रति सप्ताह 1 शिक्षक के न्यूनतम कार्य घंटे 45 होंगे जिनमें तैयारी के घंटे शामिल होंगे ।
Sunday, August 23, 2020
खेल विधि Play Way Methods
सर्वप्रथम इंग्लैंड के गणित शिक्षक हेनरी कोल्ड वेल्ड कुक ने कहा था खेल एकमात्र ऐसा कार्य है जिसको बालक पूरे मन से करता है ।
इनके इसी विचार के कारण विभिन्न प्रकार की खेल विधियों का जन्म हुआ।
खेल विधि के वास्तविक जनक एचसी कुक ।
वर्तमान समय में कई खेल विद्या प्रचलित है ।
किंडर गार्डन विधि/ बालवाड़ी विद्यालय विधि:-
फ्राबैल महोदय जर्मनी 1837 -
किंडर गार्डन एक जर्मन शब्द है जिसका अर्थ होता है बाल उद्यान ।
1839 में स्कूल का नाम रखा गया ।
इसमें शिक्षण दो पारियों में कराया जाता है।
पहली पारी में शिक्षण कराया जाता है तथा दूसरी पारी में गीत-संगीत खेल की शिक्षा दी जाती है।
इस विधि में तीन सिद्धांत हैं :-
1स्वागति का सिद्धांत
2 खेल खेल में सीखने का सिद्धांत
3 एकता का सिद्धांत
पेस्टालोजी के शिष्य फ्राबैल ने 19वीं सदी के मध्य में किंडर गार्डन प्रणाली का विकास किया जो एक प्रकार से विद्यालय प्रणाली है ।
इनके अनुसार जो बालक विद्यालय में पढ़ने आता है वह एक पौधे के एवं पढ़ाने वाला शिक्षक माली के समान होता है तथा विद्यालय एक बगीचा है ।
जिस प्रकार से एक माली बगीचे में पौधे की परवरिश करता है ठीक उसी प्रकार से शिक्षक को बालकों की परवरिश करनी चाहिए।
यह विधि 4 से 8 वर्ष के बालकों के लिए उपयोगी है।
इस विधि में 20 उपहारों का प्रयोग किया गया था।
पद्धतियाँ:-
अ) प्रथम क्रिया:- इसमे विविध उपहारों का उपयोग होता है इसमें साधनों के दो प्रकार होते हैं 1 भौमितिक आकृतियां तथा दूसरा चित्र, रेखा, रंग भरना ,सिलाई इत्यादि क्रियाओं के लिए आवश्यक वस्तु समूह ।
पहले प्रकार के साधनों को उपहार तथा दूसरे प्रकार के साधनों को व्यवसाय कहा जाता है।
पहले उपहार में छह रंगीन मृदु केंद्र होती हैं तथा दूसरों को बाहर में एक घन आकृति एक लंबे गोल सा एक घनघोर रहता है ।
ब) दूसरी क्रिया प्रणाली :- इसमें गीतों का गायन किया जाता है।
C) तीसरी क्रिया:- इसमें क्रीडा व्रत में खेलने के अनेक खेल रहते हैं।
किंडर गार्डन की विशेषताएं:-
उपहार
व्यवसाय
क्रीडा व्रत के खेल
खेल संगीत
महिला शिक्षिकाएं
पाठ्यक्रम :- पूर्ण बुनियादी शालाओं का पाठ्यक्रम व्यक्तिगत तथा सामाजिक स्वच्छता आहार एवं पानी आदि विषयों पर आधारित होता है ।
इसके अतिरिक्त जीवन से संबंधित अंकगणित तथा जीवन व्यवहार से संबंधित भाषा शिक्षण होता है
सहायक सामग्री का सर्वप्रथम प्रयोग इसी विधि में किया गया था ।
दृश्य श्रव्य साधनों का प्रयोग शिक्षण में पावलाव के अधिगम सिद्धांत पर आधारित है।
इस विधि में बालकों को छोटे-छोटे बाल गीतों का खेल खेल में शिक्षा दी जाती है।
प्राथमिक स्तर पर उपयुक्त है।
किंडर - पौधे - बालक ।
गार्टन - बगीचा- विद्यालय ।
माली - शिक्षक ।
इसमें शिक्षक पथ प्रदर्शक का कार्य करता है।
डाल्टन विधि
प्रवर्तक हेलन पार्कहर्स्ट निवासी डोल्टन नगर अमेरिका(1913)
कक्षा के स्थान पर प्रयोगशाला।
माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक स्तर पर उपयोगी ।एकमात्र विधि जिसका नाम किसी नगर के ऊपर रखा गया हो ।
इस विधि में एक विशेष प्रकार के विद्यालय की स्थापना की जाती है जिसमें बिना किसी समय सारणी के तथा बिना निर्धारित नियमों के बालकों को उनकी स्वतंत्रता के अनुसार खेल खेल में पढ़ाया जाता है।
बालक पूर्ण स्वतंत्रता के साथ अध्ययन करता है ।
पाठ को कई इकाइयों में विभक्त किया जाता है ।
बच्चे इस कार्य को 1 दिन में पूरा करें या महीने में करें यह उनके ऊपर निर्भर करता है ।
सप्ताह के कार्य को असाइनमेंट कहते हैं इस विधि में गृह कार्य नहीं दिया जाता
ड्रेकाली विधि:- प्रवर्तक ड्रेकाली ।
मानसिक रोग से ग्रसित बालकों के लिए उपयोगी।
उम्र 4 से 19 वर्ष के बालकों के लिए ।
भाषा की शिक्षा सुबह तथा गीत व संगीत की शिक्षा शाम को दी जाती है। इस विधि में पाठशाला का वातावरण प्राकृतिक होता है बालक स्वयं भाषा पाठ्यक्रम का केंद्र होता है
खेल विधि के गुण :-
- मनोवैज्ञानिक विधि ।
- प्राथमिक स्तर के लिए रुचिकर विधि ।
- स्थाई ज्ञान पैदा करती है ।
- सहयोग की भावना का विकास करती है
- तर्क में चिंतन का विकास करती है
- प्रतिस्पर्धा का विकास करती है
खेल विधि के दोष :-
- समय व धन अधिक खर्च होता है।
- संसाधनों की कमी होती है।
- दुर्घटना होने का भय होता है।
- बालकों में शीघ्रता से थकान आ जाती है।
- सामान्यतः विद्यालय वातावरण में उपयोग संभव नहीं है
हर्बर्टीय पंचपदीय प्रणाली
हर्बर्टीय विधि / हर्बर्ट की पंचपदीय प्रणाली :- trick - प्र प्र तु सा प्र
- हरबर्ट की पाठ योजना प्राचीनतम पाठ योजनाओं में से एक है ।
- इस पाठ योजना के जन्मदाता प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री हरबर्ट है।
- प्रोफेसर हरबर्ट की अधिगम के संबंध में यह धारणा है कि प्रत्येक छात्र बाहर से मिलने वाले ज्ञान को संचित करता रहता है।
- यदि नवीन ज्ञान को छोटे-छोटे सोपानों में बांटकर उसे पूर्व संचित ज्ञान से संबंधित करके पढ़ाया जाए तो छात्र उसे अधिक शीघ्रता व सुगमता से ग्रहण करता है।
- हरबर्ट पाठ योजना में स्मृति स्तर पर सीखने को अधिक प्रभावशाली माना जाता है।
- यह पाठ योजना विषय वस्तु केंद्रित है इसमें पाठ को छात्रों के सम्मुख प्रस्तुतीकरण को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है और उस पर अधिक बल दिया जाता है।
- छात्रों की आवश्यकता और रुचियों, मूल्यों आदि को इसमें अधिक स्थान नहीं दिया जाता।
- हरबर्ट ने कक्षा शिक्षण के लिए सर्वप्रथम नियमों का प्रतिपादन किया।
- स्पष्टता :- विद्यार्थी के समक्ष प्रस्तुत करना ।
- संबंध:- प्रस्तुत किए गए जाने वाले तथ्यों या नवीन ज्ञान को बालक के पूर्व ज्ञान से संबंध करना।
- व्यवस्था :- बालक के समक्ष प्रस्तुत किए जाने वाले तथ्यों का नवीन ज्ञान को व्यवस्थित रूप देना
- विधि :-
हरबर्ट ने उपयुक्त चार सोपानों की विवेचना की जिसे उसके अनुयायियों ने अधिक स्पष्ट व महत्वपूर्ण बनाने का प्रयास किया है।
उसके शिष्य जिलर ने सर्वप्रथम स्पष्टता को दो भागों में विभक्त किया
1 - प्रस्तावना और 2 - प्रस्तुतीकरण ।
हरबर्ट के एक अन्य शिष्य राइन ने इनमें एक उप कथन और जोड़ा वह था - उद्देश्य ।
इस परिवर्तन के बाद प्रथम दो पद इस प्रकार हो गए
1 प्रस्तावना और उद्देश्य कथन ।
2 प्रस्तुतीकरण ।
इसके बाद हर्बर्ट के अनुयायियों ने हर्बर्ट के शेष तीन पदों के नामों में भी इस प्रकार परिवर्तन कर दिए।
संबंध= तुलना।
व्यवस्था = सामान्यीकरण ।
विधि = प्रयोग।
इस प्रकार हरवर्ट के शिक्षण पद अंतिम रूप से इस प्रकार हैं।
(प्र प्र तु सा प्र शॉर्ट trick )
1 (अ)प्रस्तावना (ब)उद्देश्य कथन ।
2 प्रस्तुतीकरण।
3 तुलना ।
4 सामान्यीकरण।
5 प्रयोग ।
प्रस्तावना :- वर्तमान पाठ को पढ़ाने के लिए छात्र को मानसिक तैयार करना इस चरण के अंतर्गत है।
प्रस्तावना में अध्यापक दो या तीन प्रश्नों के द्वारा छात्रों से उत्तर लेकर यह निकलवाने का प्रयास करता है कि आज कक्षा में उसे क्या पढ़ाया जाने वाला है।
प्रसंग का ज्ञान कराकर वस्तुतः छात्र के पूर्व ज्ञान को नवीन ज्ञान से संबंध करने का प्रयास प्रस्तावना में किया जाता है। पाठ की सफलता बहुत हद तक एक अच्छी प्रस्तावना पर निर्भर करती है ।
प्रस्तुतीकरण :- संपूर्ण पाठ को दो या तीन खंडों में विभक्त कर छात्रों के सम्मुख इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है जिससे समग्र पाठ्य सामग्री उनकी समझ में आ जाए इसे पाठ का प्रस्तुतीकरण भी कह सकते हैं ।
इसके अन्तर्गत शिक्षक द्वारा किया गया आदर्श वाचन छात्रों का अनुकरण वाचन काठिन्य निवारण एवं केंद्रीय बोध के प्रश्न प्रस्तुत किए जाते हैं ।
तुलना :- छात्रों के पूर्व संचित ज्ञान एवं वर्तमान नवीन ज्ञान की तुलना की जाती है तथा अन्य विषयों के ज्ञान का स्थानांतरण भी किया जाता है ।
भाषा शिक्षण में आने वाली कठिनाइयों का निवारण व्याख्या शंका समाधान आदि की अपेक्षा छात्रों को शिक्षक से रहती है योग्य शिक्षक उपयुक्त उदाहरणों दृष्टांतों से विषय को सरल सुबोध बनाकर प्रस्तुत करता है।
सामान्यीकरण :- विद्यार्थी संचित ज्ञान के आधार पर सामान्य बातों को समझ कर उसका सामान्यीकरण करते हैं।
गद्य शिक्षण में इस स्तर पर पुनरावृति के प्रश्न जबकि कविता शिक्षण में भाव साम्य की कविता देकर सामान्यीकरण किया जाता है ।
अपने पूर्व संचित ज्ञान की प्रस्तुत पाठ से तुलना कर विद्यार्थी सर्वमान्य सिद्धांतों का पता लगाते हैं ।
व्याकरण के पाठों में सामान्यीकरण विशेष लाभदाई होता है।
प्रयोग :- सीखे हुए नवीन ज्ञान से निर्मित सामान्य नियम बनाकर विद्यार्थियों से उनका प्रयोग भी कराया जाता है ।
इसके लिए विद्यार्थियों को कक्षा कार्य या गृह कार्य लिखित रूप में करके लाने को कहा जाता है । पढ़ाई गए विषय को विद्यार्थियों ने किस सीमा तक समझा है इसका मूल्यांकन भी सोपान में किया जाता है ।
हर गतिविधि मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है इससे शिक्षण में क्रमबद्ध रहती है ।
यह सोपान अत्यंत लाभप्रद होते हैं विज्ञान शिक्षण के लिए उपयोगी नहीं है ।
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भाषा प्रयोगशाला विधि
क्रेडिट फॉर
Photo: Bundesarchiv, Bild 183-P0422-0004 / CC-BY-SA
Thanks
कक्षा अध्यापन का पूरक ही भाषा प्रयोगशाला है ।
भाषा रिकॉर्डिंग अधिक स्वाभाविक वातावरण की सृष्टि करता है ।
भाषा शिक्षण में प्रारंभ में पढ़ने लिखने के स्थान पर सुनने बोलने पर बल दिया जाता है ।
भाषा में तीव्रता से गति आती है।
सभी पक्षों पर सामान बल दिया जाना चाहिए।
प्रोफेसर एडमिन पेकर के अनुसार:- भाषा प्रयोगशाला वैद्युतिकीय साज सज्जा से युक्त एक शिक्षण कक्ष होता है जिसका उपयोग भाषाओं में समूह शिक्षण के लिए किया जाता है।
भाषा प्रयोगशाला की उपयोगिता भाषा प्रयोगशाला में कक्षा में पढ़ाई गई पाठ सामग्री का अभ्यास कराया जाता है ।
पाठ्य सामग्री को दोहराने का अवसर प्राप्त होता है।
अपनी अपनी गति से विद्यार्थी अभ्यास करता है ।
शिक्षक व्यक्तिगत ध्यान दे सकता है ।
तत्काल अशुद्धि ठीक करने की सुविधा भाषा प्रयोगशाला में अधिक संभव है ।
पुनर्बलन प्राप्त होता है और आत्मविश्वास बढ़ता है और कक्षा में दुहराने में जो समय लगता है उस की बचत होती है ।
भाषा प्रयोगशाला के प्रकार :-
भाषा प्रयोगशाला कई प्रकार की हो सकती है।
1 तार की दृष्टि से :-
तार युक्त प्रयोगशाला :- विद्यार्थी को निश्चित स्थान पर बैठना पड़ता है ।
तार मुक्त प्रयोगशाला :- समस्त व्यवस्था का तार मुक्त होने के कारण बैटरी चालित व रिसीवर होने के कारण विद्यार्थी बूथ को कहीं भी उठाया वह रखा जा सकता है।
काफी सरल व कम खर्चीली है ।
2 प्रोग्राम की दृष्टि से:-
प्रोग्राम से तात्पर्य उस पाठ्य सामग्री से है जो शिक्षक प्रसारित करता है । एक साथ एकाधिक प्रोग्राम प्रसारित किए जा सकते हैं । 1 से 4 तक ।
3 विद्यार्थी की क्रियाशीलता की दृष्टि से :-
क्रिया हीन प्रयोगशाला:- इसमें विद्यार्थी के पास ना कोई माइक होता है ना कोई टेप रिकॉर्डर।
दूसरी ओर शिक्षक कंसोल से सेवाएं प्रसारण के कुछ नहीं कर सकता।
जिसके फलस्वरूप शिक्षक विद्यार्थी कोई बातचीत नहीं कर सकता।
ओडियो एक्टिव प्रयोगशाला:- इस प्रकार की प्रयोगशाला में विद्यार्थी हैंडसेट की सहायता से प्रसारित पाठकों को तो सुन ही सकता है पर साथ ही माइक के माध्यम से दोहराए गए पाठ को स्वयं भी सुन सकता है और अध्यापक के पास तक भी भेज सकता है ।
विद्यार्थी के पास अपना टेप रिकॉर्डर नहीं होता जिससे वह मास्टर टेप के पाठ को और अपने उच्चारण को टेप कर सके। इसको ही ब्रॉडकास्ट प्रयोगशाला भी कहते हैं।
श्रव्य क्रियाशील मिलान (ओडियो एक्टिव कम्पेयर ) :- विद्यार्थी मास्टर टैब को सुन सकता है दोहराता है और रिकॉर्ड भी करता है।
यह सबसे अधिक सुविधाजनक है ।
भारतीय भाषा संस्थान मैसूर तथा इसके विभिन्न केंद्र मैसूर ,भुवनेश्वर, पटियाला, केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा ,लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकैडमी मसूरी आदि स्थानों पर इस प्रकार की ही प्रयोगशाला है ।
इसको पुस्तकालय प्रयोगशाला भी कहते हैं ।इसका आधुनिक रूप डायल प्रयोगशाला है।
दूरस्थ नियंत्रण रिमोट कंट्रोल भी संभव है।
स्थान के अनुसार 8,16 ,32,40 बूथ लगाए जा सकते हैं शिक्षक को अनेक सुविधाएं प्राप्त है ।टेप रिकॉर्डर से पाठ प्रसारित करना, माइक से प्रसारण, हैंडसेट का उपयोग। इस प्रकार शिक्षक पाठ प्रसारित करने में ही सक्षम नहीं वरन पूरा पूरा नियंत्रण रख सकता है।
Saturday, August 22, 2020
ध्वन्यात्मक विधि और भाषा संसर्ग विधि
ध्वन्यात्मक विधि :-
प्रवर्तक :- माइकल सेमर (1935) ।
प्राथमिक अवस्था में इस विधि का प्रयोग किया जाता है।
इस विधि में बालकों के सामने समान ध्वनि वाले शब्द लिखने का अवसर दिया जाता है जिससे बालक कम समय में बहुत सारे शब्द आसानी से सीख लेता है ।
जैसे :- नल चल कल , नाम धाम काम पाम ।
भाषा शिक्षण के दौरान जब भक्ति कालीन कवियों की कविताओं को पढ़ाते हैं तो इस विधि का उपयोग किया जाता है क्योंकि उन कविताओं में प्रथम व द्वितीय पंक्तियों के अंतिम ध्वनि समान रूप से उच्चारित होती है ।
इस विधि का प्रयोग उच्चारण कौशल के विकास के लिए किया जाता है।
अंग्रेजी भाषा के उच्चारण के लिए इस विधि का प्रयोग किया गया था।
इस विधि में शब्दों वाक्य खंडों और वाक्यों की ध्वनियों पर अधिक ध्यान दिया जाता है।
इस विधि में ध्वनियों का , उनके उच्चारण तथा अक्षर विन्यास का भी अभ्यास हो जाता है ।
यह विधि संश्लेषणात्मक कहलायी जाती है क्योंकि इनमें अक्षर से प्रारंभ करते हैं और अक्षरों के जोड़ या संश्लेषण से शब्द बनाते हैं।
भाषा संसर्ग विधि :-
प्राथमिक कक्षाओं में व्याकरण पढ़ाने की यही प्रणाली लाभदायक है ।
इस प्रणाली में व्याकरण के नियमों का ज्ञान कराए बिना भाषा के स्वरूप का अनुकरण करने का अवसर प्रदान कर छात्रों को भाषा के शब्द रूप का प्रयोग करना सिखाया जाता है ।
इसके द्वारा प्रारंभिक कक्षाओं में रचना तथा अभ्यास द्वारा भाषा का शुद्ध प्रयोग कराया जाता है।
प्राथमिक स्तर पर बच्चों को व्यावहारिक व्याकरण का ज्ञान देने के लिए यह विधि उपयोगी है।
भाषा संसर्ग विधि के दोष:-
व्याकरण के नियमों का ज्ञान नहीं हो पाता ।
समय अधिक खर्च होता है।
व्याकरण का सैद्धांतिक ज्ञान नहीं दिया जाता (भण्डारकर विधि द्वारा दिया जाता है।)
यह मनोवैज्ञानिक अवश्य है क्योंकि विद्यार्थियों को बुद्धि और तर्क से काम लेना पड़ता है ।
भाषा की शिक्षा दी जा सकती है व्याकरण कि नहीं ।
भाषा शिक्षण की विधि कही जा सकती है व्याकरण शिक्षण की नहीं ।
व्याकरण के नियमों का व्यवस्थित ज्ञान भी नहीं हो पाता।
द्विभाषी विधि और सैनिक विधि
द्विभाषी विधि और सैनिक विधि :-
Creadit For BY
JAMES LANE
द्विभाषी विधि:- प्रवर्तक डोडसन ।
H.N. शास्त्री के अनुसार :- "द्विभाषी विधि को व्याकरण अनुवाद विधि व प्रत्यक्ष विधि के मध्य का सेतु कहा जाता है।"
द्विभाषी विधि अंग्रेजी फ्रेंच रूसी आदि विदेशी भाषाएं पढ़ाने के काम में ली जाती है।
बालक मातृभाषा प्रत्यक्षीकरण के साथ सीखता है।
इसमें प्रत्येक शब्द को अनुदित नहीं किया जाता ।
हिंदी में इसी के समान एक दूसरी विधि अनुवाद विधि है।
द्विभाषी विधि में केवल मातृ भाषा के शब्दों का तथा अनुवाद विधि में पूरा का पूरा अनुवाद करके शिक्षण किया जाता है।
यह एक ऐसी प्रकार की विधि है जिसमें 2 भाषाओं के शब्दों को एक साथ जोड़ कर वाक्य बनाए जाते हैं और दो तीन बार इस व्यवहार को अपनाने से बालक नवीन भाषा में पूरा वाक्य बोल लेता है ।
जैसे :- लो आम - लो मैंगो - टेक आम- टेक मैंगो।
वर्तमान समय में इस विधि का वास्तविक रूप में प्रयोग उस स्थान पर होता है जहां अलग-अलग भाषाओं के जानकार लोगों के बीच संवाद को बनाए रखने के लिए कोई एक व्यक्ति उनके बीच में द्विभाषीये का काम करता है।
जैसे:- राहुल गांधी का South में भाषण।
सैनिक विधि :- दूसरे विश्व युद्ध के समय जब अमेरिका में सैनिकों की कमी आ गई थी तब अमेरिकी सरकार ने क्रियात्मक अनुसंधान के आधार पर सेना में अनपढ़ लोगों की भर्ती की तथा उन लोगों को भाषा सिखाने के लिए एएसटीपी-- (आर्मी स्पेशलाइज्ड ट्रेनिंग प्रोग्राम )शुरू किया और 15 से 20 लोगों का समूह बनाते हुए सिर्फ भाषा के आधार पर अनपढ़ सैनिकों को भाषा का ज्ञान करवाया , इसलिए इसे श्रव्य भाष्य सैनिक विधि या आर्मी मेथोड भी कहते हैं ।
भारतीय परिवेश में जब बालकों को मौखिक रूप से भाषा का ज्ञान दिया जाना होता है उस समय इस विधि का उपयोग किया जाता है।
इस विधि में शिक्षक स्वयं अथवा टेप द्वारा पूरा पाठ सुनाता है , विद्यार्थी द्वारा उच्चारण एवं अनुकरण करने के कारण इसे अनुकरण परिस्मरण विधि भी कहते हैं ।
प्रत्यक्ष विधि के दोषों का निवारण बहुत कुछ इस विधि द्वारा किया गया है ।
भाषा क्षमता विकसित होती है ।
इसका उद्देश्य बालकों को वास्तविक परिस्थिति में भाषा प्रयोग कर सकने की योग्यता प्रदान करना है ।
इस विधि में भाषा के कौशलों का अभ्यास कराया जाता है
इकाई विधि
इकाई विधि :-
शिक्षा के क्षेत्र में सामान्य रूप से इस पद का प्रयोग 1920 ईस्वी में हुआ ।
जेम्स एमली ने इसे विषय वस्तु के क्षेत्र में संगठन का ढांचा माना है परंतु बाद में उसको शिक्षण विधि के रूप में भी ग्रहण किया गया।
थॉमस एम रिस्क के अनुसार :- इकाई किसी समस्या या योजना या संबंधित सीखने वाली क्रियाओं की समग्रता या एकता को प्रकट करती है।
मॉरीसन के अनुसार :- इकाई वातावरण संगठित विज्ञान कला या आचरण का एक व्यापक एवं महत्वपूर्ण अंग होती है जिसे सीखने के फलस्वरूप व्यक्तित्व मे सामंजस्य जाता है।
एनसीईआरटी के अनुसार :- इकाई एक निर्देशात्मक युक्ति है जो छात्रों को समवेत रूप में ज्ञान प्रदान करती है ।
इकाई विधि की कुछ प्रमुख विशेषताएं :-
हेनरी हैरेप (1930) ने प्रस्तुत की है।
1 इकाई किसी रूचि पर आधारित कार्य का एक बड़ा भाग होता है।
2 इकाई ज्ञान की किसी शाखा का तार्किक विभाजन है ।
3 इकाई कार्य पूर्ण अनुभव है जिसमें छात्र एक निश्चित एवं उपयोगी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संलग्न रहते हैं ।
4 इकाई रुचि के विशेष केंद्रों पर आधारित कक्षा के संपूर्ण कार्यों का खंडों में विभाजन है ।
5 इकाई किसी विषय का एक बड़ा विभाग होता है जिसका कोई मूलभूत सिद्धांत या प्रकरण होता है ।
थॉमस के अनुसार:-
इकाई के शिक्षण के लिए 3 पद दिए हैं।
इकाई की प्रस्तावना :-
A) छात्रों के ज्ञान को पाठ्यपुस्तक की ओर आकर्षित करना।
B) छात्रों को सीखने के लिए प्रेरित करना।
C) छात्रों को इकाई से संबंधित क्रियाओं में सलग्न करना।
इकाई का विकास :- इस पद से आशय इकाई के निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करना है। इसके लिए निम्न युक्तियों का प्रयोग किया जाता है।
- व्याख्यान
- निर्देशित परीक्षण
- सारांश लेखन
- विचार-विमर्श
- अभ्यास
इकाई की पूर्ति :- इस पद पर पहुंचकर इकाई को पराकाष्ठा तक पहुँचाया जाता है।
- छात्रों द्वारा अपने कार्य का मूल्यांकन ।
- इकाई के कार्य का एकीकरण।
- शिक्षक द्वारा छात्रों के ज्ञान का मूल्यांकन।
- अर्जित ज्ञान की अभिव्यक्ति ।
- इकाई का मूल्यांकन
- उपचारात्मक कार्य।
मॉरीसन द्वारा प्रतिपादित शिक्षण पद:-
पूर्व ज्ञान की खोज :- इस पद में शिक्षक इस बात का पता लगाता है कि नवीन इकाई के संबंध में छात्रों को कितना पूर्व ज्ञान है।
इसके लिए वह निम्नलिखित युक्तियां उपयोग में लेता है :-
- मौखिक प्रश्न द्वारा
- विचार विमर्श द्वारा
- लिखित परीक्षा द्वारा
प्रस्तुतीकरण :- इस पद में शिक्षक इकाई की विषय वस्तु को छात्रों के समक्ष व्याख्यान द्वारा प्रस्तुत करता है । इसके बाद वह प्रश्नों के माध्यम से यह जानने का प्रयास करता है कि छात्र विषय वस्तु को समझ गए हैं या नहीं यदि छात्र नहीं समझे हैं तो वह पुनः प्रस्तुत करेगा
आत्मीकरण:- इस पद में छात्रों को इकाई की विषय वस्तु को आत्मसात करने का अवसर प्रदान किया जाता है।
इस सोपान पर छात्र निम्नलिखित युक्तियों के माध्यम से विषय वस्तु को आत्मसात करते हैं।
- अध्ययन द्वारा
- लिख कर
- एक दूसरे से बातचीत करके
- शिक्षक से परामर्श द्वारा
संगठन :- इस पद पर छात्र इकाई की विषय वस्तु को व्यवस्थित रूप में लिखकर ज्ञान को संगठित करते हैं । यदि वे ऐसा करने में सफल होते हैं तो शिक्षक ये समझ लेता है कि वे इकाई की विषय वस्तु को भलीभांति समझ गए ।
वाचन:- इस पद पर निम्नलिखित दो विधियों को प्राप्त किया जा सकता है ।
आदर्श विधि :- इसके अनुसार प्रत्येक छात्र को इकाई की विषय वस्तु को कक्षा के समक्ष उसी प्रकार प्रस्तुत करना पड़ता है जिस प्रकार शिक्षक ने उनके समक्ष प्रस्तुत किया था ।
वास्तविक विधि:- इसके अनुसार कुछ छात्र इकाई का वाचन करते हैं कुछ ऐसे लिखते हैं और कुछ उस पर विचार विमर्श करते हैं शिक्षक उनकी इन विभिन्न क्रियाओं के आधार पर यह निर्णय करता है कि उन्होंने इकाई की विषय वस्तु को किस सीमा तक ग्रहण किया है ।
वायनिंग वायनिंग के अनुसार :- इस विधि में अधिक समय लगता है साथ ही बार-बार की पुनरावृति से कक्षा का वातावरण भी निरस्त हो जाता है ।
इकाई विधि के लाभ :-
- छात्रों में सहयोग विनम्रता नेतृत्व सहकारिता धैर्य सहनशीलता आदि गुणों का विकास किया जा सकता है ।
- छात्रों में उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य करने की भावना उत्पन्न की जा सकती है ।
- इसके द्वारा छात्रों में स्वाध्याय की आदत का निर्माण किया जा सकता है ।
- इस विधि के द्वारा छात्रों को वातावरण से सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता प्रदान की जाती है।
- यह विधि करके सीखने के सिद्धांत पर बल देती है।
- इसके द्वारा छात्रों में योजना बनाने का उत्पन्न किया जा सकता है ।
- यह कार्य को सक्रिय बनाती है ।
- प्राकृतिक परिस्थितियों द्वारा कौशल विकास
इकाई विधि के दोष :-
- यह विधि अन्य विधियों की भांति सभी प्रकार के ज्ञान उपार्जन के लिए उपयुक्त नहीं है।
- इसके द्वारा हम छात्रों को अनुभूति का पाठ नहीं दे सकते अर्थात इसके द्वारा छात्रों में सौंदर्य भावना का विकास नहीं किया जा सकता है।
- इसके ना तो शिक्षण पद ही निश्चित है ना ही उनके लिए समय की सीमा ही निर्धारित है ।
- शिक्षक की जरा सी असावधानी से छात्रों का बहुमूल्य समय बर्बाद हो सकता है ।
- इन शिक्षण पदों का सभी विषयों के शिक्षण में प्रयोग नहीं किया जा सकता है ।
- क्रमिकता का अभाव रहता है।
Thursday, August 20, 2020
लिखना कौशल
लिखना कौशल / लेखन कौशल :-
बालक द्वारा सीखी गई विषय वस्तु के ध्वनि रूप को लिखकर अभिव्यक्त करना लेखन कौशल कहलाता है ।
कौशलों के क्रम में यह अंतिम कौशल माना जाता है लेकिन मैडम मारिया के अनुसार यह तीसरा कौशल होता है ।
कठिनाई के स्तर में यह सबसे कठिन कौशल है , इसका संबंध मूर्त, लिखित व भावाभिव्यक्ति से होता है।
यह पठन कौशल पर निर्भर करता है ।
पठन कौशल में बालक शब्द से अर्थ की ओर बढ़ता है तथा लेखन कौशल में बालक अर्थ से शब्द की ओर बढ़ता है
लेखन कौशल के उद्देश्य तथा महत्व :-
1 बालकों को शब्दों को शुद्ध लिखने की योग्यता प्रदान करना।
2 इसमें बालकों की ज्ञानेंद्रियां सक्रिय रहती हैं ।
3 बालक शब्दों को सही सही उचित प्रकार से लिखना सीखता है।
4 दूरस्थ व्यक्ति को लिखित संदेश भेजने के लिए लिखित भाषा का ही सहारा लिया जाता है ।
5 व्यापारिक गतिविधियों में भी लिखित भाषा का प्रयोग होता है ।
6 विद्यालय तथा महाविद्यालयों में पाठ्य पुस्तक लिखित रूप में होती हैं ।
7 परीक्षाओं में भी जिसका सुंदर लेखन होता है उसे अच्छे अंक मिलते हैं इसलिए लेखन कौशल अनिवार्य है।
8 पूर्वजों की धरोहर को सम्भाले रखने के लिए लिखित भाषा का उपयोग किया जाता है।
लेखन के प्रकार :-
लेखन के तीन प्रकार होते हैं ।
1 प्रतिलेख :- प्रतिलेख में छात्र स्वतंत्र रूप से किसी पुस्तक या पत्र-पत्रिका के किसी भाग का अनुकरण करके अपनी कॉपी में लिखता है। लेखन सामग्री बालकों की रूचि के अनुसार होनी चाहिए । कक्षा 4 ,5 ,6 में प्रतिलेख का अभ्यास कराया जा सकता है ।
2 अनुलेख :- अनुलेख का अर्थ है किसी लिखावट के पीछे या बाद में लिखना अर्थात सुलेख का पर्यायवाची अनुलेख है । कक्षा 3 तक अनुलेख का अभ्यास कराया जा सकता है। प्राथमिक कक्षाओं में अनुलेख का विशेष महत्व है।
3 श्रुतिलेख :- श्रुतलेख सुना हुआ लेख है । इसमें अध्यापक बोलता है और छात्र सुनकर बोली हुई सामग्री लिखता है। सुनने समझने की योग्यता के शिक्षण और परीक्षण का श्रुतलेख अच्छा साधन है।
इसका उद्देश्य छात्रों की श्रवण इंद्रियों को प्रशिक्षित करना है ।
➡️श्रुतलेख में अध्यापक अधिक से अधिक तीन बार बोलता है।
सुलेख :- माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के सेवानिवृत्त सचिव श्री तेज कर डांडिया ने बालकों के सुलेख को सुधारने के लिए एक योजना चलाई है इस योजना का नाम "सुलेख लेखन की प्यास जगाओ है।"
"महात्मा गांधी के शब्दों में सुलेख व्यक्ति की शिक्षा का एक आवश्यक पहलू है" ।
हिन्दी मे अनुवर्तन कार्य:-
लिखित कार्य में संशोधन के पश्चात जो त्रुटियां अशुद्धियां शुद्ध की जाती हैं उनका पुनरावलोकन छात्र फिर से करना चाहिए ।
अनुवर्तन हेतु शब्दाभ्यास,वर्तनी का अभ्यास इत्यादि करके अनुवर्तन कार्य संपन्न कराया जाता है।
जिन अशुद्धियों को बालक अधिकतर करते हो उन्हें कक्षा में सभी छात्रों के सामने शुद्ध रूप से स्पष्ट किया जाना चाहिए
छात्र द्वारा अशुद्ध शब्दों को 5 से 10 बार लिखकर शुद्ध लेखन का अभ्यास करना चाहिए
Wednesday, August 19, 2020
पढ़ना कौशल पठन कौशल
पठन कौशल/वाचन कौशल/ पढ़ना कौशल:-
वचन शब्द वाक् धातु से बना है।
वाचन :- वाचन का अर्थ होता है पढ़ना।
इसमें बालकों को किसी भी लिखे हुए अंश को पढ़ने योग्य बनाया जाता है।
विषय वस्तु को अर्थ ग्रहण करते हुए मनोयोग पूर्वक पढ़ना पठन कौशल कहलाता है।
यह कौशल सुनना बोलना कौशल की तुलना में कठिन होता है।
मनोवैज्ञानिक क्रम में यह तीसरा कौशल है।
इस कौशल द्वारा प्राप्त ज्ञान ज्यादा समय तक स्थाई रहता है
वाचन के दो भेद हैं।
व्यक्तियों की संख्या के आधार पर:- व्यक्तिगत पठन और सामूहिक पठन।
ध्वनि के आधार पर :- सस्वर वाचन और मौन वाचन ।
वाचन के उद्देश्य तथा महत्व :-
बालकों को शुद्ध पढ़ना सिखाना
बालकों में किसी भी लिखे हुए लेख को पढ़ने की क्षमता उत्पन्न करना
वाचन का ज्ञान हमें सामाजिक सम्मान देता है
वाचन ही साक्षरता का प्रमाण पत्र प्रदान करता है
भाषा की विविधता का ज्ञान वाचन द्वारा ही होता है
वाचन ही हमें विविध शैलियों से परिचित करवाता है
वाचन मनुष्य को पूर्ण बनाता है
नि:संकोच बोलने की प्रवृति का विकास ।
A) सस्वर वाचन :-
जब बच्चा स्वर सहित पठन करता है तो उसे सस्वर वाचन कहते हैं। वाचन की यह प्रथम अवस्था है ।
सस्वर वाचन से उच्चारण शुद्ध होता है ।
सस्वर वाचन वाचन शक्ति का विकास करता है ।
सस्वर वाचन दो प्रकार का होता है ।
1) व्यक्तिगत वाचन।
2) सामूहिक वचन:-
व्यक्तिगत वाचन :-
एक व्यक्ति द्वारा किया गया सस्वर वाचन व्यक्तिगत वाचन कहलाता है ।
यह वाचन अध्यापक तथा विद्यार्थी दोनों द्वारा किया जा सकता है ।
अध्यापक सस्वर वाचन उस समय करता है जब उसे विद्यार्थी के समक्ष परिच्छेद को पढ़ाता है ।
जब अध्यापक विद्यार्थी को पढ़ने के लिए कहता है तब विद्यार्थी भी सस्वर वाचन करता है।
सामूहिक या समवेत वाचन :-
जब एक से अधिक विद्यार्थी मिलकर ऊंचे स्वर में पढ़ते हैं तो उसे समवेत या सामूहिक वचन कहते हैं । यह प्राय: छोटी कक्षाओं में होता है ।
इसके अंतर्गत एक विद्यार्थी पाठ पड़ता है और शेष विद्यार्थी उसका अनुकरण करते हैं।
सस्वर वाचन के गुण :-
1 शुद्ध उच्चारण :- सस्वर वाचन में वर्णों तथा शब्दों के शुद्ध उच्चारण पर बल दिया जाता है यदि उच्चारण की तनिक भी अशुद्धि हो जाए तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है जैसे ग्रह और गृह, सामान और समान।
2 उचित ध्वनि निर्माण:- जिस वर्ण का जहां से उच्चारण होता है उसे वहीं से करना चाहिए जैसे 'क' वर्ण का कंठ से 'च' का तालू से ।
3 उचित बल तथा विराम का प्रयोग :- सस्वर वाचन करते समय विद्यार्थी को यह पता होना चाहिए कि विराम कहां लगाना है,कहां अधिक रुकना है ,कहां कम रुकना है। जैसे- रोको, मत जाने दो। :- रोकने के लिये आदेश
रोको मत,जाने दो :- ना रोकने के लिये आदेश ।
उचित हाव भाव:- सस्वर पाठ करते समय पाठ्य सामग्री के अनुसार हवाओं का प्रदर्शन करना चाहिए श्रृंगार का भाव अलग होता है क्रोध का भाव अलग होता है और वीरता का भाव अलग होता है।
वाचन के अन्य भेद :-
1 आदर्श वाचन :- अध्यापक द्वारा विषय वस्तु को उचित आरोह अवरोह प्रभाव और स्पष्ट उच्चारण के साथ पढ़ना आदर्श वाचन कहलाता है ।
यह व्यक्तिगत होता है ।
2 अनुकरण वाचन :- अध्यापक द्वारा प्रस्तुत आदर्श वाचन का विद्यार्थियों द्वारा ठीक वैसा ही दौरान अनुकरण वाचन कहलाता है।
यह व्यक्तिगत व सामूहिक दोनों प्रकार का होता है ।
मौन वाचन :- विषय वस्तु को बिना आवाज या ध्वनि के पढ़ना मौन वाचन कहलाता है ।
इसके तीन प्रकार होते हैं ।
1 गहन मौन वाचन :- किसी भी सारगर्भित विषय वस्तु का गहन अर्थ करते हुए बालक द्वारा किया जाने वाला बिना ध्वनि का वाचन गहन मौन वाचन कहलाता है ।
इसमें विषय वस्तु कठिन हो सकती है ।
2 द्रुत मौन वाचन :- किसी विषय वस्तु का दौहरान सरल विषय वस्तु का पठन व पृष्ठ में शब्द को ढूंढना इन क्रियाओं को करने में जो वाचन होता है वह द्रुत मौन वाचन कहलाता है।
3 सामान्य मौन वाचन :- यह एक प्रकार का औपचारिक मौन वाचन है जिसका उद्देश्य मनोरंजन अवकाश के समय का सदुपयोग करना भी हो सकता है ।
विशेष :- मौन वाचन का उद्देश्य विद्यार्थियों में स्वाध्याय की प्रवृत्ति विकसित करना ।
कक्षा कक्ष में अनुशासन स्थापित करना ।
अवकाश के समय का सदुपयोग करना ।
गहन वाचन से बालकों में एकाग्रता का विकास होता है।
तीव्र वाचन से बालकों मे पठन गति का विकास होता है।
मौन वाचन बालकों में चिंतनशीलता का विकास करता है।
संकोची प्रवृति के बालकों के लिये समवेत या सामूहिक वाचन उपयोगी है ।
वाचन कौशल की विधियाँ :-
1 देखो और कहो विधि:- इस विधि में अक्षरों का ज्ञान ना कराकर शब्दों का ज्ञान कराया जाता है । पूरे शब्द को श्यामपट्ट पर लिख दिया जाता है और अक्षरों की पहचान के स्थान पर शब्द के स्वरूप की पहचान कराई जाती है। यह प्राथमिक ,उच्च प्राथमिक स्तर पर उपयोगी है । इस विधि में छात्रों में कल्पना शक्ति व रचनात्मक शक्ति का विकास होता है , अर्थात यह विधि सृजनशील छात्रों के लिए ही उपयोगी है ।जैसे :- कमल, नयन ,पावक ।
2 ध्वनि साम्य विधि :- मनोवैज्ञानिक विधि है। प्राथमिक स्तर के लिए उपयोगी है। इसमें एक समान ध्वनि वाले शब्द सिखाए जाते हैं जैसे :- आम काम धाम नाम चाम आदि । इस विधि में छात्र अनावश्यक व निरर्थक शब्द सीख लेता है ।
जैसे :- धर्म कर्म मर्म ।
3 अक्षर बोध विधि :- यह पुरानी विधि है इसमें बालकों को अक्षरों का ज्ञान कराया जाता है बालकों का अधिकांश समय वर्णमाला को रखने में चला जाता है ।
क, म, ल = कमल
4 भाषा शिक्षण की यंत्र विधि :- यह एक आधुनिक विधि है इसमें ग्रामोफोन में पाठ भरा जाता है जिसे सुनकर बालक उसका अनुकरण करके पढ़ने का अभ्यास करते हैं यह व्यय साध्य विधि है।
टेप रिकॉर्डर , कैसट, सहायक चित्र, सहायक पुस्तक।
5 समवेत पाठ विधि :- इस विधि में छोटे पद्य या गीत सुविधा पूर्वक सिखाया जा सकते हैं। इसमें अध्यापक पाठ के अंश को स्वयं भाव पूर्ण रीति से पढाता है तथा छात्रों से उसकी आवृत्ति करने के लिए कहता है ।
6 संगत विधि/ साहचर्य विधि :- मोंटेसरी द्वारा प्रयुक्त इस विधि में बहुत सी वस्तु चित्र खिलौनों आदि के आगे उनके नाम कारणों पर लिख दिए जाते हैं और उन सभी कारणों को मिला दिया जाता है फिर वही नाम उस वस्तु के आगे रखना होता है । यह विधि मनोवैज्ञानिक विधि है।
सभी शब्दों का ज्ञान नहीं कराया जा सकता है जैसे प्रेम ,घृणा , ईश्वर , आत्मा इत्यादि।
यह विधि कमजोर छात्रों के लिये उपयोगी है।
नोट:- इस विधि मे भाषा की इकाई शब्द को माना जाता है।
7 समग्र भाषा विधि:- इस विधि में अक्षर ,ध्वनि, वाक्य आदि को क्रम से एक साथ ही बनाना सिखाया जाता है ।यह विधि व्यवहारिक विधि नहीं है ।
8 संप्रेषण या वाचन विधि :- इस विधि में ध्वनियों को उच्चारण आरंभ से ही कराया जाता है शिक्षक वर्णमाला सिखाते समय ध्वनियों के शुद्ध उच्चारण का स्थान छात्र को बता देता है।
पठन कौशल में आने वाली कठिनाई :-
1 शिक्षक का अपूर्ण होना
2 वर्ण पहचान में कठिनाई
3 बालक को वर्णों के उच्चारण स्थान का ज्ञान ना होना
4 तुतलाना
5 कठिन शब्दों के पठन में परेशानी
6 पूर्वाग्रह से ग्रसित
7 प्रयत्न लाघव
8 क्षेत्रीयता का प्रभाव
9 नाक में पठन ।
उपाय :-
1 बालकों को वर्णों के उच्चारण स्थानों का परिचय करना चाहिए।
2 व्याकरण का ज्ञान प्रदान करना चाहिए ।
3 ध्वनि संकेत और विराम चिन्हों का ज्ञान भी कराना चाहिए ।
4 अध्यापक द्वारा आदर्श रूप में स्पष्ट रूप से पढ़ना चाहिए।
5 बालकों को स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अवसर देना चाहिए
Monday, August 17, 2020
बोलना कौशल
बोलना कौशल :-
1 सीखने की कौशल में दूसरा कौशल है ।
2 यह पूर्ण रूप से सुनना कौशल पर निर्भर करता है ।
3 सुने हुए भावों को अर्थपूर्ण शब्दों में बोलकर अभिव्यक्त करना बोलना कौशल कहलाता है ।
4 यह कौशल अभ्यास का अनुकरण का गुणज माना जाता है।
5 इस कौशल के विकास हेतु बालक को ज्यादा से ज्यादा सुनने के अवसर उपलब्ध कराने चाहिए ।
6 बालक को वाद विवाद संवाद अंत्याक्षरी में भाग लेने हेतु प्रेरित करना चाहिए ।
7 अध्यापक को चाहिए कि वह वाणी का उचित आरोह अवरोह तथा स्पष्ट रूप से व्याख्यान प्रस्तुत करें।
8 बालक को सही वातावरण उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
9 वार्तालाप में मुहावरे और लोकोक्तियां को भी उचित स्थान दिया जाना चाहिए।
10 यदि बालक उच्चारण की अशुद्धता करें तो उसे रोककर शुद्ध उच्चारण का अभ्यास कराना चाहिये।
मौखिक अभिव्यक्ति की महत्ता :-
1 दैनिक जीवन में मौखिक अभिव्यक्ति का महत्व ।
2 व्यावसायिक कार्य में सहायक
3 कहानी सुनना तथा सुनाना
4 चित्र वर्णन
5 कविता पाठ
6 ज्ञानार्जन का महत्वपूर्ण साधन
7 वार्तालाप अभिव्यक्ति का साधन
8 अभिव्यक्ति एक व्यवसाय।
9 भाषा शिक्षण में बोलचाल का महत्व
10 व्यक्तित्व विकास का महत्वपूर्ण साधन है ।
अभिव्यक्ति शिक्षण के उद्देश्य :-
A विद्यार्थियों को विचारों को सरलता से व्यक्त करने की क्षमता प्रदान करना
B विद्यार्थियों में बोलने की झिझक और संकोच को दूर करना
C सरल तथा स्पष्ट भाषा में वार्तालाप करने की आदत विकसित करना
D विद्यार्थी को सफल वक्ता बनाना
E छात्रों को शुद्ध उच्चारण का प्रयोग करना सिखाना
F पूछे गए प्रश्नों का स्पष्ट और सही उत्तर दे सकने की योग्यता उत्पन्न करना
G विद्यार्थियों को मधुरता पूर्वक शिष्टाचार के नियमों का पालन करते हुए दूसरों से वार्तालाप करना सिखाना
H उचित समय पर उचित शब्दों का प्रयोग करने की योग्यता प्राप्त करने की क्षमता विकसित करना।
मौखिक अभिव्यक्ति को कुशल बनाने हेतु विभिन्न अवसर:-
1 प्रश्नोत्तर
2अंताक्षरी
3वाद विवाद प्रतियोगिता
4 संवाद
5 वर्णन
6 सांस्कृतिक कार्यक्रम
7 कहानी कथन
8 कवि सम्मेलन
9 अभिनय ।
अशुद्ध उच्चारण के कारण :-
1 शिक्षक द्वारा अशुद्ध उच्चारण ।
2 मनोवैज्ञानिक कारण भय ।
3 असावधानी
4 क्षेत्रीय प्रभाव
5 सामाजिक प्रभाव
6 प्रयत्न लाघव।
7 बनकर बोलना
8 उच्चारण शिक्षण का अभाव ।
9 अज्ञान
10 ध्वनि यंत्र में विकार विकार।
उच्चारण दोषों के निराकरण के उपाय:-
1 शिक्षक द्वारा ध्वनि तत्व का ज्ञान कराना
2 शुद्ध बोलने वालों की संगत
3 अध्यापक द्वारा शुद्ध उच्चारण
4 प्रेम पूर्ण व्यवहार
5 अनुकरण विधि का प्रयोग है
6 प्रतियोगिता आयोजित कराना ।
वर्तनी :-
शब्दों में निहित अक्षरों या वर्णों को शुद्ध रूप में तथा सही क्रम में लिखा जाता है ।
शुद्ध वर्तनी का प्रभाव उच्चारण तथा रचना के अन्य रूपों पर पड़ता है।
वर्तनी की अशुद्धियों के कारण :-
- अशुद्ध उच्चारण
- व्याकरण की अनभिज्ञता
- उच्चारण की विषमता
- लिपि का अधूरा ज्ञान
- असावधानी
- प्रांतीय प्रभाव
- मन स्थिति सामान्य ना होना
- लेखन अभ्यास का अभाव
- शीघ्रता से लिखना।
निराकरण :-
- शिक्षक द्वारा लिपि का पूर्ण ज्ञान कराना
- व्याकरण का पूर्ण कराना
- शुद्ध उच्चारण की शिक्षा देना
- लिखने का अभ्यास करवाना
- शब्दकोश का प्रयोग करना
- बच्चे पर व्यक्तिगत ध्यान देना
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