Tuesday, April 22, 2025

विज्ञान शिक्षण विधियां पार्ट 1

 विषय वस्तु:- 


  • विज्ञान क्या है..?
  • विज्ञान की शिक्षण विधियां
  • विज्ञान का अन्य विषयों के साथ संबंध
  • शिक्षण के उपागम
  • सहायक सामग्री का उपयोग
  • मूल्यांकन की विधियां
  • विज्ञान शिक्षक की भूमिका
  • ΝΕΡ 1986 POA 1992 NCF-2005
  • विज्ञान में सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन
  • यूनिट प्लान
  • निदान एवं उपचार |


विज्ञान क्या है


विज्ञान और उसकी प्रकृति के बारे में हमारे देश के राष्ट्रीय फोकस समूह के आधार पत्र NCF 2005 में कुछ इस प्रकार लिखा है विज्ञान एक जीवंत नए से नए अनुभवों के अनुसार विस्तार पता हुआ गतिमान ज्ञान है।

यह उत्पन्न कैसे होता है..??

क्या यह वैज्ञानिक प्रक्रिया है..??

फाइमैन के अनुसार मैंने सीखा की विज्ञान क्या है वह धैर्य है" ।


विज्ञान को परिभाषित करना कठिन है विज्ञान की प्रक्रिया को समझें अर्थात साइंस इज ए प्रोसेस (Science is a process)

 SCIENCE शब्द की उत्पति लेटिन भाषा के शब्द स्क्वायर या सेंटिया (To Know) से हुई है जिसका अर्थ है जानना।

विभिन्न वैज्ञानिकों ‌द्वारा विज्ञान की कुछ प्रमुख परिभाषाएं दी हैं जो निम्न प्रकार हैं।

एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका:-  विज्ञान नैसर्गिक घटनाओं और उनके बीच संबंधों का सुव्यवस्थित ज्ञान है।


आइंस्टीन के अनुसार :- हमारे ज्ञान अनुभूतियों की अस्त-व्यस्त विभिन्नता को एक तर्क पूर्ण विचार प्रणाली निर्मित करने के प्रयास को विज्ञान कहते हैं।


डैंपियर के शब्दों में: विज्ञान प्राकृतिक विषय का व्यवस्थित ज्ञान और धारणाओं के बीच संबंधों का तार्किक अध्ययन है जिनमें यह विषय व्यक्त होते हैं


कोनेंट के अनुसार : विज्ञान अतः संबंधित सम्प्रत्यों एवं संप्रत्यात्मक योजनाओं की श्रृंखला है जो परीक्षण और प्रयोगशाला के परिणामस्वरूप विकसित हुई है


बीएफ स्किनर के अनुसार: विज्ञान निरंतर क्रांतिकारी परिवर्तन की स्थिति है और वैज्ञानिक सिद्धांत तब तक वैज्ञानिक नहीं होते हैं जब तक उन्हें आगामी अनुभव तथा प्रमाण द्वारा परिवर्तन ना किया जाना निहित नहीं है।


वुडबर्न और ओवर्न के अनुसार:- विज्ञान वह मानवीय व्यवहार है जो घटनाओं की और उन परिस्थितियों की जो प्राकृतिक वातावरण में उपस्थित हैं पूर्ण शुद्धता के साथ व्याख्या करने के प्रयास करें


पंडित जवाहरलाल नेहरू के अनुसार:- विज्ञान का अर्थ केवल मात्र परखनली तथा कुछ बड़ा या छोटा बनाने के लिए, इसको और उसको मिलना ही नहीं है अपितु विज्ञान वैज्ञानिक विधि के अनुसार वैज्ञानिक विधि के अनुसार हमारे मस्तिष्क को प्रशिक्षण देना ही विज्ञान है


फ्रेडरिक फिट्ज पैट्रिक के अनुसारः विज्ञान एक अनुभूति मूलक पर्यवेक्षकों की सच्चाई एवं अनंत श्रृंखला है जिसका परिणाम सिद्धांतों का निर्माण है जिसमें आगामी अनुभूति मूलक पर्यवेक्षकों के प्रकाश के विषय में सुधार भी साथ है विज्ञान ज्ञान का निकाय प्राप्ति की प्रक्रिया एवं ज्ञान का परिवर्तन है।


W.C. डैपियर के अनुसारः विज्ञान प्राकृतिक विषय का व्यवस्थित जान और धारणाओं के बीच संबंधों का तार्किक अध्ययन है जिनमें से यह विषय व्यक्त होते हैं।


इन परिभाषाओं के आधार पर निम्न निष्कर्ष निकाला जा सकता है


  • विज्ञान में तथ्यों और संबंधों का अध्ययन किया जाता है।
  • विज्ञान का ज्ञान क्रमबद्ध संगठित तथा सुव्यवस्थित होता है
  • विज्ञान के अध्ययन से मस्तिष्क में तर्क एवं विश्लेषण करने की आदत विकसित होती है.
  • विज्ञान तार्किक विचारों का माध्यम है
  • विज्ञान के अध्ययन से मस्तिष्क को प्रशिक्षण प्राप्त होता है
  • विज्ञान की प्रक्रिया परीक्षण एवं प्रयोग के परिणामस्वरुप विकसित होती है।
  • विज्ञान में मापन परिणाम तथा दिशा आदि का भी अध्ययन किया जाता है।
  • विज्ञान में सामान्यीकरण के आधार पर आवश्यक निष्कर्ष निकाले जाते हैं।
  • विज्ञान में वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग किया जाता है
  • विज्ञान की प्रकृति निश्चित, पूर्ण, वैध, विश्वसनीय वस्तुनिष्ठ तथा सत्यापनी होती है
  • विज्ञान सार्वभौमिक होती है
  • विज्ञान चिंतन की एक विधि है जो नवीन जान को विकसित करती है।
  • विज्ञान पूरी तरह वस्तुनिष्ठ है
  • विज्ञान के ज्ञान का आधार हमारी ज्ञानेंद्रियाँ हैं।
  • विज्ञान का ज्ञान सुव्यवस्थित क्रमबद्ध तार्किक और अधिक स्पष्ट होता है।
  • विज्ञान में सूचनाओं, तथ्य, संप्रत्यय (Concept), सामान्यीकरण, नियम, सिद्धांत तथा इसे निर्मित सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक ज्ञान का अथाह भंडार प्राप्त होता है।


विज्ञान शिक्षण के उ‌द्देश्य


प्रयोगात्मक मूल्य या दैनिक जीवन संबंधी लाभ

जीवन पूर्णतया विज्ञान में हो गया है विज्ञान के अध्ययन से जो ज्ञान हमें मिलता है वह हमारे जीवन के मार्गदर्शन में अन्य बातों से कहीं अधिक उपयोगी है


बौद्धिक मूल्य

विज्ञान का अध्ययन मानसिक शक्तियों को पूर्ण रूप से विकसित करने का अवसर देता है तर्कशक्ति कल्पना शक्ति स्मरण शक्ति निरीक्षण शक्ति अन्वेषण शक्ति एकाग्रता मौलिकता चिंतनशीलता तर्क संवत एवं नियमित विचार शक्ति आदि सभी मानसिक शक्तियों का समुचित विकास विज्ञान के अध्ययन से सोते ही हो जाता है


अनुशासन संबंधी मूल्य :- 

विज्ञान विषय बालक के व्यक्तित्व को संयमशील, विवेक पूर्ण गंभीर एवं चिंतनशील बनता है दृष्टिकोण को निश्चित करने तथा विचार श्रृंखला को व्यवस्थित करने में विज्ञान के अध्ययन से सहायता मिलती है।


सांस्कृतिक मूल्यः

किए गए नवीनतम वैज्ञानिक आविष्कारों एवं उपलब्धियां को चार संचित करती है वह वैज्ञानिक प्रतिभाओं का उपयोग करके परीक्षण द्वारा उनमें संशोधन एवं परिवर्तन लाते रहते हैं


नैतिक मूल्यः

सच्चाई ईमानदारी समय की पाबंदी कर्तव्य निष्ठा धैर्य शीलता आत्म नियंत्रण आत्म सम्मान आत्मविश्वास दूसरे के विचारों का आदर करना ।


कलात्मक एवं सौंदर्यात्मक मूल्यः

आविष्कार मनोरंजन समय का सदुपयोग रुचिकर कार्य 1


सामाजिक मूल्य:

छात्रों को सामाजिक विकास की प्रक्रिया में सहायता देना तथा उनमें विभिन्न सामाजिक गुर्णों एवं आदर्शों का विकास करना।


मनोवैज्ञानिक मूल्य:

 विज्ञान के ज्ञान द्वारा छात्रों की विभिन्न मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति तथा उनकी स्वाभाविक रुचियां का विकास करने में सहायता देता है।

विज्ञान शिक्षण के उद्देश्य को वर्तमान रूप प्रदान करने हेतु शोथ व सैद्धांतिक चरणों की एक लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। नेशनल सोसायटी फॉर द स्टडी ऑफ एजुकेशन इयर बुक अमेरिका 1994 में निम्न उ‌द्देश्यों का उल्लेख किया गया है-


1. तथ्यों की क्रियात्मक सूचना प्रदान करना।

2. क्रियात्मक संकल्पनाएँ बनाने में सक्षम बनाना।

3. विज्ञान में रुचि उत्पन्न करना।

4. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना।

5. यांत्रिक कौशल का विकास करना।

6. विज्ञान संरचना की प्रशंसा व उनके प्रयोग को समझना।

7. सिद्धांतों का क्रियात्मक अवबोध सुनिश्चित करना।

8. समस्या समाधान संबंधी कौशल का विकास करना।


ब्लूम के शैक्षिक उ‌द्देश्यों के वर्गीकरण को व्यवहारिक रूप से जटिल अनुभव किया गया। अतः इसे व्यवहारिक रूप देने का प्रयत्न किया गया। ब्लूम के वर्गीकरण के आधार पर एन.सी.ई.आर.टी. ने शैक्षिक उ‌द्देयों का वर्गीकरण किया है।


ये अधिगम (Learning), अनुदेशन (Instruction), मूल्यांकन (Evaluation) व प्रतिपुष्टि (Feedback) हेतु व्यवहारिक है। विज्ञान विषय के अनुदेशन में भी इन्हीं उ‌द्देश्यों को स्वीकार किया गया है। ये निम्न हैं-


1. ज्ञानात्मक उ‌द्देश्यः- इसे दो भागों में वर्गीकृत किया गया है-

(अ) पुनः स्मरण (Recall)

(ब) पहचान (recognition)


(अ) पुनः स्मरण (Recall) विषयवस्तु की दृष्टि से पुनः स्मरण को निम्न रूप में सूचीबद्ध कर सकते हैं-पद, परिभाषाएँ, तथ्य, तकनीक, विधियों, नियम, सिद्धांत, संकेत, सूत्र आदि का पुनः स्मरण।


(ब) पहचान (recognition) पद, परिभाषा, तथ्य, तकनीक, विधि, नियम, सिद्धांत आदि को पहचानना।


2. अवबोधात्मक उ‌द्देश्यः-

1. अंतर करना (To Differentiate)

2. समानता मालूम करना (To Find similarity)

3. तुलना करना (To compare) 

4. स्वयं के शब्दों में परिभाषा देना (To define in own words)

5. अनुवाद करना (To translate)

6. उदाहरण प्रस्तुत करना (To give example)

7. वर्गों में बाँटना (To classify)

8. सही स्थिति बताना (To locate correctly)

9. त्रुटि पता करना (To finding errors)

10. सही मिलान करना (To match correctly)

11. स्पष्ट करना (To explain)

12. विवरण देना (To describe)

13. कार्य प्रभाव संबंध पता लगाना (To find cause and effect relations)

14. अंदाज लगाना (To infer)

15. उद्‌धरण देना (To give illustrations)


 3.अनुप्रयोगात्मक उद्देश्य:- इसका अर्थ ज्ञान, अवबोध व कौशल को नवीन समस्या के समाधान हेतु उपयोग में लाना है।

1. विश्लेषण करना (To analyse)

2. संश्लेषण करना (To synthesis)

3. गणना करना (To Compute)

4. भविष्यवाणी करना (To predict)

5. परिकल्पना तैयार करना (To formulate hypothesis)

6. सुझाव प्रस्तुत करना (To suggest)

7. सावधानी बरतना (To take precautions)

8. हेर-फेर करना (To manipulate)

9. तर्क प्रस्तुत करना (To reason)


4. कौशलात्मक उ‌द्देश्यः

  • सही ढंग से नाम अंकित कर चित्र बनाना (Draw labelled diagram correctly)
  • प्रयोग हेतु यंत्र उचित रूप से स्थापित करना (To set apparatus)
  • प्रतिरूप बनाना (To make model)
  • प्रयोग सही ढंग से संपादित करना (To conduct experiment correctly)
  • त्रुटि का पता लगाकर उनमें सुधार करना
  • यंत्रों का प्रयोग कर सकने की प्रवीणता उत्पन्न करना ।


5. अभिरुच्यात्मक उ‌द्देश्य :


  • वैज्ञानिकों की जीवनियों को पढ़ना।
  • विज्ञान अध्यापक एवं वि‌द्यार्थियों के मध्य मधुर संबंध स्थापित होना।
  • विद्यार्थी विद्यार्थी के मध्य मधुर संबंध स्थापित होना ।
  • समस्या को हल करने में निरंतर प्रयत्नशील रहना
  • समस्याओं से संबंधित अधिक से अधिक प्रश्न पूछना
  • विज्ञान से संबंधित चित्रों को एकत्रित कर एल्बम बनाना
  • विज्ञान के क्लबों की क्रियाओं में रुचि लेना


6. अभिवृत्यात्मक उ‌द्देश्यः-

  • विज्ञान के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखना।
  • कार्य को व्यवस्थित तरीके से करने की आदत डालना
  • अपनी गलतियों को स्वीकार करना
  • असफलताओं से विचलित न होना
  • प्रत्येक कार्य को आत्मविश्वास एवं धैर्य के साथ करना।





Sunday, July 28, 2024

शिक्षण अधिगम सामग्री

शिक्षण अधिगम सामग्री :-

शिक्षण सामग्री वे साधन है जिन्हें हम आंखों से देख सकते हैं कानों से उनसे संबंधित ध्वनि सुन सकते हैं वे प्रक्रियाएं जिनमें श्रव्य-दृश्य इंद्रियां सक्रिय होकर भाग लेती हैं शिक्षण सामग्री कहलाती है |

डेंट के अनुसार:- शिक्षण सहायक सामग्री वह सामग्री है जो कक्षा में या अन्य शिक्षण परिस्थितियों में लिखित या बोली गई पाठ्य सामग्री के समझने में सहायता प्रदान करती है |

कार्टन ए.गुड के अनुसार :- कोई भी ऐसी सामग्री जिसके माध्यम से शिक्षण प्रक्रिया को उद्दीपित किया जा सके अथवा श्रवण इंद्रिय संवेदनाओं के द्वारा आगे बढ़ाया जा सके, शिक्षण सहायक सामग्री कहलाती है |


पढ़ाते समय शिक्षक को ऐसे शिक्षार्थियों की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं का ध्यान रखना होता है जो योग्यताओं, रुचियों और अभिप्रेरणा में एक-दूसरे से काफी भिन्न होते हैं। साथ ही, सभी शिक्षार्थियों की अधिगम गति एक समान भी नहीं होती है। किंतु शिक्षक को तीव्र गति से सीखने वालों, सामान्य शिक्षार्थियों तथा कमज़ोर शिक्षार्थियों को एक साथ पढ़ाना होता है जिसके लिए उसे अलग-अलग युक्तियाँ अपनानी पड़ती हैं। इन युक्तियों के अंतर्गत शिक्षक विभिन्न प्रकार की शिक्षण अधिगम सामग्रियों का प्रयोग कर सकता है। अतः हम कह सकते हैं कि शिक्षकों के पास शिक्षण-अधिगम सामग्री ऐसे अस्त्र-शस्त्र हैं जिनका प्रयोग वे विविध प्रकार की संभावित चुनौतियों से निपटने के लिए करते हैं।

शिक्षक को उपर्युक्त प्रकार की शिक्षण अधिगम सामग्री को व्यवस्थित या विकसित करने के लिए उपायकुशल होना चाहिए और उसे इतना दक्ष होना चाहिए कि वह प्रत्येक का उपर्युक्त समय पर प्रयोग करे क्योंकि ऐसी सामग्री का अविवेकपर्ण उपयोग प्रत्युत्पादक हो सकता है।


निम्नांकित विवेचन शिक्षण सामग्री की भूमिका और महत्व पर प्रकाश डालती है।


शिक्षण-अधिगम सामग्रियाँ वे होती हैं जो :


  • अपने श्रव्य, दृश्य या श्रव्य दृश्य रूपों से बच्चों को आकर्षित करती हैं
  • शिक्षक के कार्य को सरल बनाने में सहायक साधन का कार्य करती हैं
  • शिक्षार्थियों की अधिगम के प्रति एकाग्रता और रुचि बनाए रखने में उपयोगी होती हैं
  • कक्षा शिक्षण की न्यूनताओं को दूर करती हैं
  • स्व-अधिगम को प्रोत्साहित करती हैं
  • कमज़ोर शिक्षार्थियों की सहायता के लिए प्रयोग में लाई जा सकती हैं (उपचारात्मक शिक्षण)
  • अमूर्त सिद्धांतों को यथार्थ अवधारणा प्रदान करती हैं
  • शिक्षार्थियों के अधिगम को उनकी स्थाई संपत्ति बनाने में सहायता देती हैं। शिक्षार्थियों को सृजनशील बनाती हैं और स्वयं करके सीखने का अवसर प्रदान करती हैं।


अतः शिक्षण-अधिगम सामग्री शिक्षकों के लिए बहुत महत्व रखती है। गणित शिक्षकों को तो इनकी और अधिक आवश्यकता होती है क्योंकि उनका ऐसी संकल्पनाओं से संपर्क पड़ता है जो बच्चों के लिए सामान्यतः कठिन मानी जाती हैं।

शिक्षण अधिगम सामग्री के उपयोग में तीन आधारभूत विचारणीय बातें होती हैं जो निम्नलिखित हैं

1. सामग्री की स्वाभाविक आवश्यकता :-  सामग्री विशेष की सहायता से संकल्पना को आसानी से स्पष्ट किया जा सके और उन्हें अच्छी तरह सीखा जा सके l l

2. शिक्षण अधिगम सामग्री का उपयोग :-  शिक्षण अधिगम सामग्री का उपयोग समय पर तथा उचित प्रकार से उपयोग होना अनिवार्य है l

3. अपेक्षित शिक्षण सामग्री को प्राप्त करना :-   किसी विशिष्ट प्रकरण पर चर्चा करने से पहले थोड़ी लागत वाले अथवा लागत रहित शिक्षण साधन होने चाहिए l

शिक्षण सामग्री के उपयोग में कुछ सामान्य बातों का ध्यान रखना आवश्यक है

  • शिक्षण अधिगम सामग्री के इस्तेमाल में जैसे लेने देने रखना प्रदर्शन करने आदि की प्रक्रिया में बच्चों को जिम्मेदार एवं भागीदार बनना चाहिए l
  • सामग्री की उपलब्धता समय पर सुनिश्चित होना चाहिए 
  • शिक्षक की यह जिम्मेदारी है कि कौन सामग्री किन परिस्थितियों में और किन उद्देश्य के लिए इस्तेमाल की जाए
  • सामग्री हमारे पास एक साधन के रूप में उपलब्ध होती है इसे ही पूर्ण नहीं मान कर शिक्षण करवाना चाहिए 
अध्यापन अधिगम सामग्री को प्रयोग करने का प्रयोजन :-
कक्षा में अध्यापन अधिगम सामग्री के प्रयोग करने के कुछ कारण निम्नलिखित हैं :-
  • विद्यार्थियों को अभिप्रेरित करना:- कुछ भी सीखने के लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि विद्यार्थियों का ध्यान आकर्षित किया जाए और अध्यापन अधिगम सामग्री कक्षा में विद्यार्थियों का ध्यान आकर्षित करने में सहायता करते हैं l
  • अध्यापन अधिगम सामग्री उत्प्रेरक का कार्य करती है l
  • सूचना को देर तक स्मरण रखने में सहायता करते हैं l
  • अध्यापन अधिगम सामग्री से अंत क्रिया करने से जितनी अधिक ज्ञानेंद्रिय का प्रयोग होगा सूचना उतनी ही देर तक स्मरण रह सकेगी अतः अधिगम प्रभावी और अधिक स्थाई होगा l
  • कक्षा अध्यापन की व्यवस्था करने में सहायता करना अनुक्रमिक रूप से व्यवस्थित तथ्यात्मक आंकड़ों को प्रस्तुत करने के लिए शाब्दिक या दृश्य अध्यापन अधिगम सामग्री का प्रयोग कर सकते हैं 
  • अभिवृद्धि परिवर्तन में सहायता करना:-  चित्र प्रतिरूप तथा अन्य अध्यापन अधिगम सामग्री से विद्यार्थियों में सकारात्मक अभिवृद्धि का विकास होता है 
  • अध्यापन अधिगम सामग्री सैद्धांतिक ज्ञान से व्यावहारिक ज्ञान की तरफ ले जाती है 
  • अधिगम सामग्री बच्चों में अवधारणाओं के निर्माण और प्राप्ति में सहायता करते हैं वह अमूर्त अवधारणाओं का मूर्तिकरण करते हैं इस प्रकार बच्चे उन्हें समझ लेते हैं और रटने की आवश्यकता नहीं पड़ती है l
श्रव्य दृश्य सामग्री प्रयोग के उद्देश्य:-
  1. विद्यार्थियों का ध्यान पाठ्यवस्तु की ओर केंद्रित करना l
  2. अमूर्त पाठ्यवस्तु को मूर्त रूप प्रदान करने का प्रयास करना l
  3. विद्यार्थियों में पाठ के प्रति रुचि जागृत करना l
  4. विद्यार्थियों के सीखने की गति में सुधार करना l
  5. जटिल विषय वस्तु को भी सरल एवं सहज रूप से प्रस्तुत करना l 
  6. विद्यार्थियों की निरीक्षण शक्ति का विकास करना l
  7. विद्यार्थियों की अभिरुचियों पर आसानुकूल प्रभाव डालना l
  8. शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में छात्रों को अधिक क्रियाशील बनाना जिससे अंतः क्रिया को प्रभावी बनाया जा सके l
  9. कक्षा के सभी विद्यार्थियों की योग्यता के स्तर एवं अधिगम क्षमता को ध्यान में रखते हुए शिक्षण की व्यवस्था करना

शिक्षण सहायक सामग्री की विशेषताएं:- 
  • शिक्षण सहायक सामग्री स्थाई रूप से सीखने एवं समझने में सहायक है 
  • मौखिक बात को काम करती है 
  • यह अनुभवों द्वारा ज्ञान प्रदान करती है 
  • यह समय की बचत तथा रुचि में वृद्धि करती है 
  • यह अध्यापक के विचारों में प्रवाहात्मकता प्रदान करती है 
  • अध्यापक को उपयोगी एवं अच्छे शिक्षण में सहायता करती है 
  • शिक्षण सामग्री भाषा संबंधी कठिनाइयों को दूर करती है 
  • शिक्षण सामग्री से वैज्ञानिक प्रवृत्ति का विकास होता है
  • शिक्षण अधिगम के माध्यम से छात्र स्वयं कार्य करने पर अपने को अधिक योग्य एवं साधन संपन्न तथा आत्मनिर्भर मानने लगते हैं
  • शिक्षण अधिगम सामग्री सूचना बातों को सरलता से समझा देती है और छात्रों की कल्पना एवं विचार शक्ति का विकास करती है 
  • शिक्षण सहायक सामग्री से पाठ में अधिक रोचकता आती है 
  • शिक्षण सहायक सामग्री शिक्षण एवं अधिगम प्रक्रिया को सुगम बनती है 
  • विभिन्न विषयों के अन्वेषण के प्रति उत्सुकता जागृत होती है 
  • छात्रों को उपकरण प्रयोग करने की विधि का ज्ञान होता है

अध्यापन निगम सामग्री बहुत प्रकार की होती है अतः उन्हें विभिन्न प्रकार से वर्गीकृत किया गया है इन्हें वर्गीकृत करने की सरलतम विधि एडगर डेल द्वारा प्रतिपादित तथा निरूपित अनुभव शंकु है |











अध्यापन अधिगम सामग्री को सामान्यतः तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है 
1.श्रव्य सामग्री 
2.दृश्य सामग्री और
3.श्रव्य दृश्य सामग्री 

स्वरूप के आधार पर शिक्षण अधिगम सामग्री का वर्गीकरण:-

दृश्य सामग्री (Visual)      श्रवण सामग्री (Audio)।     श्रव्य दृश्य सामग्री (Audio-Visual)

प्रतिरूप (Model)।            ग्रामोफोन आकाशवाणी।         दूरदर्शन चलचित्र

चित्र तथा पोस्टर।                 टेपरिकार्डर                          क्लोज सर्किट टेलीविजन

श्यामपट्ट।                          लिंग्वाफोन।                            वीडियो कैसेट्स

माया-दीप।                        भाषा प्रयोगशाला।                   प्रयोगशालाएँ

पत्र पत्रिकाएँ ,समाचार पत्र।     स्टीरियो रिकार्डर।                  कार्यशालाएँ

चित्रदर्शक (Epidiascope)।       टेलीफोन वार्ता।                 प्रदर्शन

वास्तविक पदार्थ।                     मानव स्वर आदि।                रोल-प्ले

रेखाचित्र तथा खाके।                                                        ड्रामा, खेल

मानचित्र।                                                                      टेली कान्फ्रेंस

सन्दर्भ पुस्तकें, एटलस तथा ग्लोब।                                    केवल टी०वी कम्प्यूटर

स्लाइड्स, फिल्मस्ट्रिप।                                                    सैटेलाइट टी०वी० वर्किंग

पाठ्यपुस्तकें, पूरक पुस्तकें।                                              माइक्रो / मिनी कम्प्यूटर

बुलैटिन बोर्ड, चुम्बक बोर्ड।                                               इण्टरनेट

भ्रमण तथा यात्राएं।                                                        लैपटॉप आदि |

संग्रहालय आदि|



श्रव्य सामग्री :-

1.रेडियो:-

  •  रेडियो के उपयोग से विज्ञान अध्ययन को प्रभावशाली और आकर्षक बनाया जा सकता है आकाशवाणी द्वारा समय-समय पर विज्ञान संबंधी वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं 
  • एनसीईआरटी के केंद्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी संस्थान (CIET) द्वारा विकसित विद्यालय विद्यार्थियों के लिए ऑडियो कार्यक्रम भी ज्ञानवाणी द्वारा प्रसारित किए जाते हैं
  • लाभ:- रेडियो से हमें सारी दुनिया के ताजा समाचार मिलते हैं  
  • कक्षा के वातावरण में परिवर्तन होता हैl
  • उच्च कोटि के वैज्ञानिकों तथा शिक्षकों के भाषण का विस्तार पूर्वक सरल एवं स्पष्ट वर्जन देश के हर कोने में बैठे छात्र सुन सकते हैंl

2.टेप रिकॉर्डर :-

  •  इस यंत्र का सबसे बड़ा लाभ यह है कि कहीं भी होने वाला विज्ञान सेमिनार की बातों को टैप करके कक्षा में बालकों को महत्वपूर्ण जानकारी दी जा सकती है
  • टेप रिकॉर्डर का लाभ यह भी है कि किसी भी आवाज को रिकॉर्ड करके जहां भी जब भी आवश्यकता हो छात्रों को सुनाया जा सकता है
  • भाषा शिक्षण में टेप रिकॉर्डर का प्रयोग महत्वपूर्ण है शुद्ध उच्चारण के अभ्यास में इससे बढ़कर दूसरा साधन है ही नहीं बालक अपने उच्चारण को इसकी सहायता से स्वयं सुनकर अशुद्ध को दूर कर सकता है पाठ को दोहराने या स्मरण करने में इसकी सहायता ली जा सकती है 

3.लिंग्वाफोन:-

  •  भाषा प्रयोगशाला का एक आवश्यक उपकरण है l
  •  इसका प्रयोग भाषा शिक्षण के अंतर्गत छात्रों को ध्वनियों का शुद्ध ज्ञान प्रदान करने, शुद्ध उच्चारण की क्षमता का विकास करने हेतु किया जाता है l
  •  इसकी सहायता से बड़ी कक्षाओं का आसानी से प्रभावशाली शिक्षण दिया जा सकता है

4.ग्रामोफोन और डिक्टा फोन :-

  • ग्रामोफोन और डिक्टा फोन का प्रयोग ध्वनि अभिलेखन हेतु किया जाता है l
  • ग्रामोफोन और डिक्टेफोन आदि का प्रयोग छात्रों को भाषण की तैयारी करने हेतु किया जाता है l
  • गीत संगीत की शिक्षा के लिए ग्रामोफोन का प्रयोग किया जाता है |


दृश्य सामाग्री :-
 
1.श्यामपट्ट:- 
  गणित शिक्षण की भांति विज्ञान शिक्षण को प्रभावशाली तथा उपयोगी बनाने के लिए कक्षा में श्यामपट्ट का प्रयोग अत्यंत आवश्यक है |
शिक्षण में श्यामपट्ट के महत्व को निम्न बिंदुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है
  1.  विज्ञान में विभिन्न सूत्रों नियमों सूत्र संबंधों आदि को श्यामपट्ट पर लिखने से प्रत्येक छात्र उनका आसानी से प्रयोग कर सकता है 
  2. रेडियो पाठ ,दूरदर्शन, फिल्म प्रदर्शन, ओवरहेड प्रोजेक्टर जैसे द्रव्य श्रव्य सामग्री के प्रयोग में भी संपर्क की आवश्यकता होती है 
  3. पढ़ाई गई विषय वस्तु के मुख्य बिंदुओं को श्यामपट्ट पर दोहराकर छात्रों का ध्यान आकर्षित किया जा सकता है
  4.  संबंधित चित्र आकृति बनाकर विषय वस्तु को स्पष्ट किया जा सकता है 
  5. जो विषय वस्तु पढ़ाई गई है उसका सारांश अच्छी प्रकार से लिखा जा सकता है
  6.  इस पर बनाए गए चित्रों के माध्यम से पूरी कक्षा का ध्यान पाठ की ओर आकर्षित किया जा सकता है केवल यही एक ऐसी सामग्री है जो की कक्षा में हर समय आसानी से उपलब्ध रहती है 
  7. गद्य पाठ को पढ़ते समय कठिन शब्द व उनके अर्थ कविता शिक्षण के समय तुलनात्मक कविता या अध्यापक कथन आदि के लिए श्यामपट्ट का उपयोग किया जाता है 
  8. भाषा शिक्षण का श्यामपट्ट लेख अच्छा होना चाहिए
  9. श्यामपट्ट के प्रयोग से छात्र ज्ञान ग्रहण करने में सफल होते हैं तथा कक्षा में अधिक सक्रिय रहते हैं 
  10.  चार्ट, ग्राफ तथा सारणी का प्रदर्शन करते समय
  11.  मुख्य बिंदुओं (परिभाषा, नियम आदि) लिखते समय
  12.  कक्षा में कराए गए कार्य का मूल्यांकन करना करने हेतु 
  13. छात्रों को गृह कार्य देते समय
  14.  अपनी पाठ योजना की रूपरेखा लिखते समय 
  15. रेखा चित्र तथा रेखाकृतियां बनाने के लिए
  16.  किसी नियम, सूत्र, सिद्धांत अथवा आंकिक प्रश्नों को हल करने के लिए
  17.  प्रयोगशाला में प्रायोगिक कार्य से संबंधित जानकारी देते समय


श्यामपट्ट का प्रयोग करते समय सावधानी:-  
  • श्यामपट्ट पर लिखी गई सामग्री सभी छात्रों को स्पष्ट रूप से दिखाई देने चाहिए 
  • श्यामपट्ट पर लिखते समय मुंह से बोलना भी जाना चाहिए 
  • श्यामपट्ट पर लिखते समय कभी-कभी बीच में छात्रों की ओर भी देख लेना चाहिए 
  • श्यामपट्ट पर किया गया कार्य पूरा होना चाहिए
  • छात्रों की रुचि बढ़ाने के लिए रंगीन चौक का उपयोग करना चाहिए 
  • छात्रों को श्यामपट्ट पर लिखने तथा प्रश्नों को हल करने का अवसर प्रदान करना चाहिए 
  • श्यामपट्ट पर अक्षर मध्यम आकार के ही लिखनी चाहिए 
  • सीधी पंक्ति में लिखने का प्रयास करना चाहिए
  • विषय वस्तु को श्यामपट्ट पर प्रभावशाली ढंग से एक क्रम में प्रस्तुत करना चाहिए 
  • श्यामपट्ट पर बनाया गया चित्र स्पष्ट होना चाहिए


2. प्रत्यक्ष वस्तु ,वास्तविक पदार्थ या मॉडल :-
  • प्रदर्शन सामग्री में पहला महत्व प्रत्यक्ष वस्तु का है 
  • प्रत्यक्ष वस्तुओं को देखकर बालकों को उन वस्तुओं का ज्ञान सुगमता से हो जाता है चुंबक मेंढक तितली फूल बैरोमीटर थरमस इत्यादि वस्तुओं को दिखाकर अध्यापक अपना काम सरलता से कर लेते हैं
  •  प्रत्यक्ष वस्तु सामने होने से उनका ज्ञान भी पूरा होता है जिन वस्तुओं से बालक भली-भांति परिचित न हो उन्हें अवश्य दिखाना चाहिए 
  • मॉडल वास्तविक वस्तुओं के प्रतिबिंब या छाया होती है जो उसे वस्तु का प्रतिबिंब प्रतिनिधित्व करते हैं इनका प्रयोग किसी विषयवस्तु ,पद्धति, कार्य विधि अथवा विचारों को प्रदर्शित करने के लिए किया जा सकता है 
  • वास्तविक पदार्थ भी सहायक दृश्य उपकरण है इसके संपर्क में छात्रों को लाया जा सकता है कुछ पदार्थ सरलता से कक्षा में अध्यापक ले जा सकता है स्थूल वस्तुओं के साक्षात संपर्क में आकर बालक पाठ को अच्छी तरह समझता है और सूक्ष्म चिंतन की ओर अग्रसर होता है
  • मॉडल उपयोगी इसलिए होते हैं क्योंकि वह कठिन अवधारणाओं का सरलीकरण कर देते हैं 
  • बहुत बड़ी वस्तु को सुगमता से प्रेक्षणीय आकार में लघु कृत कर देते हैं 
  • किसी वस्तु अथवा तंत्र की आंतरिक संरचना को निदर्शित कर देते हैं 
  • छात्रों की , वस्तुओं के अथवा तंत्र के कठिन भावों को समझने में सहायता करते हैं l


3. चित्र :- 
  1. पाठ को आकर्षक व रोचक बनाने के लिए अध्यापक चित्र का प्रयोग कर सकता है 
  2. "रेखाओं और रंगों का वह संयोग जो अपनी मूक भाषा में किसी तथ्य,भाव योजना की अभिव्यक्ति करें चित्र कहलाता है "
  3. यह आंखों को सौंदर्य प्रदान करता है 
  4. चित्र में वस्तुओं का चित्रण रहता है 
  5. चित्र को ऐसी जगह टांगना चाहिए जहां से वह सभी बालकों को सरलता से दिखाई पड़े
  6. चित्र स्पष्ट होना चाहिए इनमें कलात्मकता , स्पष्टता , प्रभावितता ,शुद्धता, विश्वसनीयता, सत्यता एवं पूर्णता होनी चाहिए 
  7. इसे मनोरंजक, आकर्षक, उत्तेजित एवं व्यावहारिक होना चाहिए
4. चार्ट व ग्राफ :-
  1. चार्ट भी एक दृश्य साधन है जिसमें तथ्यों और चित्रों का संबंध में होता है इसमें तार्किक रीति से क्रमबद्धता होती है 
  2. यह विचारों अथवा तथ्यों के पारस्परिक मूल की वह सुंदर व्यवस्था है जिसमें तार्किक संगठन और क्रमिक विकास की योजना एक बोधगम्य  स्वरूप लिए होती है 
  3. हिंदी साहित्य का इतिहास पढ़ाते समय - समय चार्ट ,धारा चार्ट ,तालिका चार्ट ,वृक्ष चार्ट और संगठन चार्ट का प्रयोग किया जा सकता है 
  4. निबंध या व्याकरण को पढ़ने के बाद कभी-कभी श्यामपट्ट सारांश चार्ट के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है 
  5. विज्ञान विषय पढ़ाते समय चार्ट बहुत ही महत्वपूर्ण साधन है चार्ट की सहायता से विभिन्न यंत्रों की कार्य प्रणाली शरीर के अंगों की कार्य प्रणाली आदि के बारे में पढ़ाया जा सकता है 
  6. आवश्यकता अनुसार पाठ को सरल बनाने के लिए ग्राफ व चार्ट को भी प्रयोग में लाना चाहिए यह ग्राफ चार्ट यथासंभव घर से बने बने लाने की अपेक्षा बालकों के सामने ही बनाए जाने चाहिए l

5. फ्लैनेल बोर्ड:-  imp = इसका उपयोग कक्षागत उपयोग हेतु किया जाता है |
  • उपनाम - नमदा बोर्ड, Display बोर्ड, प्रदर्शन बोर्ड,
  • एक बड़े तख्ते पर फ्लैनल या खादी कपड़ा या ऊनी कपड़ा तानकर चिपका दिया जाता है इस बोर्ड को फ्लैनेल बोर्ड या खादी बोर्ड कहते हैं इसमें चौक से कुछ लिखा नहीं जाता वरन कुछ चित्रों या चिह्नो की कटिंग चिपकाई जाती है l
  • पाठ से संबंधित चित्रों को विभिन्न पोस्टर,पुस्तकों,पत्रिकाओं या समाचार पत्रों से काट लिया जाता है और उनके पीछे रेगमाल कागज लगा दिया जाता है अब इन चित्रों को खादी बोर्ड पर चिपकाने पर यह चिपक जाते हैं और आवश्यकता अनुसार निकाल दिए जाते हैं l
  • कहानी का विकास करने में चित्रों को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है l
  • प्रारंभिक स्तर पर वर्णमाला सीखने में ,संयुक्त अक्षरों का ज्ञान करने में खादी बोर्ड का प्रयोग किया जाता है l



6. बुलेटिन बोर्ड:- imp = इसका उपयोग कक्षागत उपयोग हेतु नहीं किया जाता है  |
  • उपनाम - सूचना पट्ट l
  • बुलेटिन बोर्ड का प्रयोग कक्षागत शिक्षण हेतु नहीं किया जाता है l
  • इसका उपयोग छात्रों की रचनाएं प्रदर्शन हेतु ,विद्यालय से संबंधित आवश्यक सूचनाओं ,समाचारों को प्रदर्शित करने हेतु किया जाता है l

7. डायोरमा:- 
  • इसे चित्र शाला भी कहते हैं l
  • इसका प्रयोग छात्रों द्वारा बनाई गई सामग्रियों को प्रदर्शित करने हेतु किया जाता है l
  • त्रिविमीय दृश्य जिसको संस्कृति विशेष के लोग किसी गत्ते पर बनाते हैं जिसमें त्रिविम दृश्य तथा मूलभूत मानव क्रियायों तथा विशिष्ट जीवन पद्धतियों को दर्शाया जाता है l
8. मैजिक लैंटर्न:- 
  • विज्ञान शिक्षण में यह भी एक आवश्यक यंत्र है इसकी सहायता से चित्र बड़े करके पर्दे पर दिखाए जाते हैं जिसमें कक्षा के समस्त बालक उनको अच्छी तरह देख सकें l
  • इस प्रकार सूक्ष्म वस्तुओं के चित्रों को संपूर्ण कक्षा के सम्मुख प्रस्तुत करके उनका ज्ञान दिया जा सकता है परंतु इसके लिए स्लाईडो की जरूरत होती है यह स्लाइड बनवानी पड़ती है l 
  • कक्षा में बहुत समय तक अंधेरा रखना पड़ता है जो की ठीक नहीं है l


9. एपिस्कोप/ Episcop :- 
  • इस यंत्र में स्लाइड की आवश्यकता नहीं पड़ती है इसके द्वारा किसी भी पुस्तक ,पत्रिका ,समाचार पत्र के चित्र को पर्दे पर दिखाया जा सकता है l
  • इस प्रकार इस यंत्र द्वारा स्लाइड बनवाने का खर्च भी कम हो जाता है l
  • पाठ से संबंधित ग्राफ ,रेखा-चित्र अथवा लेख इसकी सहायता से पर्दे पर दिखलाकर कक्षा को लाभ पहुंचाया जा सकता है l
  • यदि किसी कक्षा में किसी छोटे जीव जंतु आदि के बारे में बतलाना है तो ऐसी दशा में जंतु को एपिस्कोप में रखकर इसका आकार बड़ा करके पर्दे पर दिखलाना अति उपयोगी होता है

10. एपिडायस्कोप :-
  • इस यंत्र से लैंटर्न और एपिस्कोप दोनों का ही काम हो सकता है लैंटर्न की तरह इसमें स्लाइडिंग काम में लाई जा सकती हैं और एपिस्कोप की तरह इसमें चित्र ,रेखा चित्र ,नमूने और पदार्थ भी दिखाई जा सकते हैं l
  • चित्र तथा नमूने इत्यादि दिखलाने के अलावा इसका उपयोग पाठ का सारांश एक कागज पर लिखकर पर्दे पर दिखलाने में भी सहायक हो सकता है l
  • इसमें श्यामपट्ट पर लिखने की बचत हो सकती है l
  • प्राय बालकों में सामान्य त्रुटियां पाई जाती हैं जिनके बारे में संपूर्ण कक्षा को बतलाना आवश्यक है इस यंत्र द्वारा ऐसी त्रुटियां का संपूर्ण कक्षा को दिखलाकर उनको त्रुटियों से मुक्त कर सकते हैं l
  • भाषा शिक्षण में प्राकृतिक दृश्य, यात्रा वर्णन ,उत्सवों ,त्योहार आदि के पाठ पढ़ने में चित्र प्रदर्शक यंत्रों का प्रयोग हो सकता है

11. ओवरहेड प्रोजेक्टर:- (OHP) 
  • इस यंत्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि अध्यापक लिखने ,चित्र या आकृति खींचना आदि सभी कार्य प्रक्षेप की प्लेट पर अपनी इमेज के पास रहकर ही संपन्न करते हैं और संपूर्ण सूचना अध्यापक के सिर के ऊपर से छात्रों के समक्ष सामने की दीवार पर या पर्दे पर प्रक्षेपित होती रहती है इसलिए इसे शिरोपरि प्रक्षेप कहते हैं l
  • इसकी सहायता से विज्ञान के प्रश्नों चित्रों आकृतियों आदि को बढ़ाकर के विभिन्न कोणों से प्रदर्शित किया जाता है 

12. मानचित्र:- 
  • मानचित्र का सर्वाधिक प्रयोग इतिहास, भूगोल की कक्षा में होता है किंतु भाषा के पाठ में कुछ ऐतिहासिक या भौगोलिक दृश्य व प्रसंग को स्पष्ट करने के लिए मानचित्र का प्रयोग किया जा सकता है l
  • नालंदा ,विक्रमशिला, हिमगिरी,गोदावरी,केरल ,नागालैंड ,असम, चीन, सिंगापुर,जैसे पाठों को मानचित्र की सहायता से पढ़ाना सरल हो सकता है l
  •  मानचित्र को सामान्यतः निम्नलिखित श्रेणियां में वर्गीकृत किया जाता है 
A.प्राकृतिक मानचित्र 
B.राजनीतिक मानचित्र 
C.आर्थिक मानचित्र 
D.सामाजिक मानचित्र 
E.ऐतिहासिक मानचित्र
  • संक्षिप्त रूप में सूचना प्रदान करने के लिए मानचित्र का प्रयोग किया जाता है

श्रव्य दृश्य सामग्री:-

इस प्रकार की सहायक शिक्षक सामग्री में विषय वस्तु से संबंधित वस्तुओं यंत्रों या उनकी प्रक्रियाओं को चित्रों द्वारा प्रदर्शित करने के साथ-साथ उनके बारे में वर्णन भी सुनाया जाता है |

1.Television (टेलीविजन) :- 
  • दूरदर्शन एक आधुनिकतम श्रव्य दृश्य सामग्री है l
  • इसमें फिल्म और रेडियो के गुणों का समिश्रण है टेलीविजन भी एक ऐसा यंत्र है जिसके द्वारा देखना और सुनना दोनों क्रियाएं एक साथ संभव है l
  • ऐसी वैज्ञानिक संक्रियाएं अथवा उपकरण जिनको कक्षा में दिखाना बहुत खर्चीला अथवा कठिन होता है दूरदर्शन के माध्यम से बहुत आसानी से दिखाई तथा समझाया जा सकते हैं l
  • इसका महत्वपूर्ण लाभ यह है कि इसमें चलचित्रों ,मॉडलों ,फोटोग्राफ, फिल्म स्ट्रिप आदि दृश्य सामग्री का उपयोग किया जा सकता है जिससे कि शिक्षण प्रभावशाली हो सके l
  • यह सबसे अधिक आशापूर्ण श्रव्य दृश्य उपकरण है क्योंकि संदेश वाहन के इस एक यंत्र में रेडियो तथा चलचित्र के गुणों का सम्मिश्रण है l
2.कंप्यूटर(COMPUTER):- 

  • कंप्यूटर आधुनिक एवं नवीनतम खोज है जिसकी सहायता से विज्ञान शिक्षण को और अधिक रोचक एवं प्रभावशाली बनाया जा सकता है l
  • सूचना एवं संप्रेषण प्रौद्योगिकी के इस युग में विशेष कर विज्ञान एवं गणित शिक्षण में सहायक सामग्री के रूप में कंप्यूटर बहुत अधिक प्रचलित है l
  • यह शिक्षण एवं अनुदेशन का एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण माध्यम है इसकी सहायता से शिक्षण करने पर बालकों में प्रेरणा उत्पन्न की जा सकती है तथा छात्र भी सक्रिय रहकर सीखने के लिए तत्पर रहते हैं l दूरवर्ती शिक्षा के अंतर्गत कंप्यूटर द्वारा अनुदेशन एक नवीन प्रत्यय है l
**सहायक सामग्री के रूप में कंप्यूटर का महत्व:-  
  1. छात्रों की निष्पत्ति स्तर में बढ़ोतरी करता है
  2. गणितीय एवं सांख्यिकी संक्रिया करता है 
  3. ग्राफ चार्ट सारणी आदि बनता है 
  4. कंप्यूटर सूचनाओं को एकत्रित करता है तथा आवश्यकता पड़ने पर पुन: प्रस्तुत करता है l
  5.  इसकी सहायता से छात्रों में सोचने समझने ,परीक्षण, समस्या समाधान ,समालोचनात्मक ,संरचनात्मक तथा निर्णय लेना आदि विभिन्न शक्तियों का विकास होता है

3.चलचित्र:- 
  • पश्चिमी देशों में पाठ्यवस्तु को स्पष्ट करने के लिए चलचित्रों का खूब प्रयोग होने लगा है l
  • साहित्य में वर्णित विभिन्न प्रकार के काल्पनिक दृश्य को वर्णन द्वारा स्पष्ट किया जाता है किंतु इन दृश्यों को फिल्मों में फोटोग्राफी की कला द्वारा सरलता से प्रदर्शित किया जा सकता है l
  • नवीन खोजने के परिणाम स्वरूप आज फोटोग्राफी की कला में बहुत विकास हो गया है और सूचनाओ का दिखाया जाना संभव है

4.नाटक:- 
  • अभिनय तथा नाटकों की पद्धति द्वारा भी विज्ञान के अध्ययन को रोचक बनाया जा सकता है l
  • किसी भी क्रियाकलाप को नाटक द्वारा प्रस्तुत करने से वह मूर्त रूप में बालक के मस्तिष्क पर प्रभाव डालता है l 
  • उदाहरण के लिए विज्ञान संबंधी समस्याओं पर आधारित नाटक खेले जा सकते हैं l


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Thursday, April 4, 2024

पाठ्यपुस्तक

Book शब्द जर्मन भाषा के Beak शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है वृक्ष। 

अध्ययन अध्यपान की प्रक्रिया मे पाठ्य पुस्तक का महत्व पूर्ण स्थान है। पाठ्य पुस्तक कक्षा कक्ष की प्रक्रिया मे छात्रों के लिए अधिगम का महत्व पूर्ण साधन होती है। 

अतः पाठ्य पुस्तकों को छात्रों के लिए मित्रवत माना गया है। 


प्रस्तावनाः-

राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा की रूपरेखा 2005 के अनुसार पाठ्यपुस्तकों में इस प्रकार की सामग्री संकलित की जाए जो बच्चों के ज्ञान, समझ, दृष्टिकोण और कौशलों को बनाने संवारने में मददगार हो सके। 

बच्चों के स्थानीय परिवेश व उसके अनुभवों को भी सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में महत्व देते हुए आगे बढ़नें के अवसर पाठ्यपुस्तक में होने चाहिए। 

पाठ्यपुस्तकें ऐसी हों जो अपने विषय की प्रकृति से संबंध रखे और बच्चे उसको पढ़ते हुए अपना सोचना विचारना जारी रख सकें न कि ज्ञान को मात्र प्रदत्त के रूप में ग्राहय करें। 


पाठ्य पुस्तक का अर्थः


पाठ्य पुस्तकें वे पुस्तकें हैं जो किसी स्तर के बच्चों की पाठ्‌यचर्यानुसार तैयार की जाती है। इनमें वे तथ्य एवं सूचानाएं संकलित होती हैं, जिनका ज्ञान उस स्तर के बच्चों को देना चाहते हैं। आज की सम्पूर्ण शिक्षा ही पाठ्य-पुस्तकों पर ही आधारित हैं। आज ये पाठ्यपुस्तकें शिक्षा के मुख्य साधन के रूप में प्रयोग की जाती हैं। अतः वर्तमान में पाठ्‌यपुस्तकों का अत्याधिक महत्व है। सभी कक्षाओं के लिए पाठ्यपुस्तकें का होना अनिवार्य है। पाठ्य-पुरातकें शिक्षक के कार्य की परिपूरक होती हैं। पाठ्‌य पुस्तके अध्यापकों के लिए पुस्तकें शिक्षित करने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत है। । शैक्षिक विकास एवं पाठ्यचर्या विकास में पाठ्यपुस्तक चयन एवं लेखन शामिल रहता है। पाठ्यपुस्तक अथवा पुस्तक अनेक प्रकार के कार्य करती है।


पाठ्य पुस्तक की परिभाषाः

हैरोलिकर के अनुसारः पाठ्यपुस्तक ज्ञान, अनुभवों, भावनाओं, विचारों तथा प्रवृत्तियों व मूल संचय का साधन है।


हॉलक्वेस्ट के अनुसारः पाठ्य-पुस्तक शिक्षण क्रियाओं एवं अभिप्रायों के लिए सुव्यवस्थित चिन्तन एवं ज्ञान का लिखित रूप है।

हर्ल आर डगलस के अनुसार-अध्यापकों के अनुभवों एवं विश्लेषण के अनुसार पाठ्यपुस्तक पढने का महत्वपूर्ण आधार है।


पाठ्य पुस्तक की आवश्यकता एवं महत्वः


  • पाठ्यपुस्तके विद्यालय या कक्षा में छात्रों तथा शिक्षकों के लिए विशेष रूप से तैयार की जाती हैं जो विषय से संबंधित पाठ्यवस्तु का प्रस्तुतीकरण करती है। 
  • वास्तव में पाठ्य-पुस्तक की आवश्यकता मार्गदर्शन के लिए पडती है।
  • वर्तमान शिक्षा में बदलते शैक्षिक अंतदृष्टि, विचारों एवं शोध करने व उससे प्राप्त नतीजों के आधारों पर पाठ्‌यपुस्तकों को समय-समय पर बदलने की आवश्यकता है। 
  • पाठ्यपुस्तकें मात्र सूचना आधारित न होकर बच्चों को चिंतन व खुद से करके सीखने अर्थात् ज्ञान का सृजन करने के अवसर देने वाले दृष्टिकोण पर आधारित होनी चाहिए।
  • शासकीय शालाओं में बच्चों की पहुँच में पाठ्यपुस्तकें ही एकमात्र सीखने-सिखाने का प्रमुख संसाधन होती हैं इसलिए बच्चों के लिए गुणवत्ता पूर्ण पाठ्यपुस्तकों का होना आवश्यक है।

पाठ्य पुस्तक का महत्व:-

  • पुस्तकों की सहायता से शिक्षा की प्रक्रिया बहुत ही व्यवस्थित ढंग से चलती है और अध्यापक पूरे समय हेतु योजना बना सकते है।
  • पाठ्यपुस्तकें पाठ्यक्रम में निर्धारित उददेश्यों को पूर्ण करने में सहायक है
  • पाठ्यक्रम के अनुसार विषय का संगठित ज्ञान एक स्थात पर मिल जाता है।
  • जब कक्षा छात्र कक्षा ज्ञान में अधूरे रहते हैं। तब पुस्तकों का सहारा लेकर उस अधूरे ज्ञान को स्पष्ट एवं निश्चित करते हैं। 
  • शिक्षक केवल पथ प्रदर्षक के रूप में कार्य करता है।
  • छात्रों एवं शिक्षकों को यह जानकारी मिलती है कि किस कक्षा स्तर के लिये कितनी विषय-वस्तु का अध्ययन-अध्यापन करना है।
  • छात्रों का मानसिक स्तर इतना नहीं होता कि वे विद्यालय में पढ़ायी हुई विषय-वस्तु को एक ही बार में सीख सकें। उन्हें विषय-वस्तु को कई बार दोहराना भी पड़ता है। इस कार्य में पाठ्यपुस्तकें सहायक है।
  • पाठ्य-पुस्तकें अध्यापक की पूरक होती हैं। अध्यापक के उपस्थित न रहने पर यदि छात्र चाहे तो स्वअध्ययन से पाठ को आगे पढ़ा सकते हैं।
  • छात्रों एवं शिक्षकों के समय की बचत होती है।
  • स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
  • पाठ को दोहराने अथवा गृहकार्य कराना बच्चों को अत्यन्त सहायक सिद्ध होता है।
  • बच्चों में स्वध्याय की आदत का विकास होता है।
  • कक्षा-कार्य तथा मूल्यांकन संभव होता है।
  • बच्चों की स्मरण शक्ति एवं तर्क शक्ति का विकास होता है। मंद बुद्धि तथा प्रतिभाशाली दोनों प्रकार के बच्चों के लिये उपयोगी होती हैं।
  • विषय-वस्तु को तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है जिससे बच्चों के लिए विषय-वस्तु सरल एवं सुगम हो जाती है।
  • पाठ्य-पुस्तकें समस्याओं को हल करने में सहायता करती है तथा कुछ पहेली टाइप समस्याओं से छात्रों का मनोरंजन भी हो सकता है।
  • ज्ञान को व्यवस्थित करने में पाठ्यपुस्तकें सहायक होती हैं।
  • अध्ययन में एकरूपता आ जाती है।
  • शिक्षकों एवं छात्रों को विद्वानों के विचारों से परिचित कराती है।
  • कक्षा शिक्षण की कमियों को दूर करती हैं।
  • परीक्षा लेने में भी पाठ्य-पुस्तकें शिक्षकों की सहायता करती हैं क्योंकि प्रश्न पाठ्य पुस्तकों में से रखकर प्रश्न-पत्रों को पाठ्यक्रम के अनुसार सीमित तैयारी के साथ परीक्षा में अथवा मूल्यांकन में सफल हो जाते हैं।
  • कक्षा-शिक्षण के प्रकरणों को अध्ययन करने तथा अभ्यास के लिए अवसर मिलता है। पुस्तकें परिपाक का साधन है।
  • पाठ्य-पुस्तकें अध्यापक को कक्षा में जानें से पूर्व पाठ की तैयारी करने का अवसर प्रदान करती है।
  • पाठ्य-पुस्तके अध्यापक तथा छात्रों दोनों का समय बचाती है। मितव्ययी होती है। इनसे अध्ययन की आदतों का विकास होता है।
  • छात्रों को कम मूल्य पर समस्त आवश्यक तथा महत्वपूर्ण तथा तथ्य सूचनाएँ एक पुस्तक में ही एकत्रित मिल जाती हैं। जिससे उन्हें इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं होती। 
  • पाठ्य-पुस्तकों के माध्यम से छात्र भी अध्ययन कर सकते हैं. तथा गृहकार्य करने में भी वे सहायता प्राप्त कर सकते हैं। अध्यापक को गृहकार्य प्रदान करने में पुस्तकें पर्याप्त सहायक हो सकती है।
  • पाठ्य-पुस्तकों की सहायता से एक साथ सभी छात्रों को पढ़ाया जा सकता है।
  • छात्रों को निर्धारित पाठ्यक्रम का ज्ञान पाठ्य-पुस्तकों से ही होता है। वे ज्ञात कर सकते हैं कि वर्ष भर में उन्हें कितना पढ़ना है तथा कितना वे पढ़ चुके हैं।
  • मौन अध्ययन का अभ्यास पाठ्य-पुस्तकों के द्वारा ही कराया जा सकता है। मौन अध्ययन छात्रों को स्वाध्याय की प्रेरणा देता है। 
  • प्रत्येक अध्यापक मौखिक शिक्षण में निपुण नहीं हो सकता। सामान्य बुद्धि के अध्यापक के लिए पाठ्य-पुस्तकों का सहयोग आवश्यक हो जाता है।

शिक्षा की डाल्टन पद्धति एवं योजना प्रणाली में पाठ्य-पुस्तकों की परम आवश्यकता होती है। बालक अपनी रूचि के अनुसार करते हैं। पाठ को मानसिक विकार्य पाठ्य-पुस्तकों के बिना सम्भव नहीं है। अध्यापक द्वारा बताई गई अनेक बातें छात्र कक्षा में भूल बार बात सुनकर याद कर लें। अतः यह आवश्यक हो जाता है जाते हैं; उनकी स्मरण शक्ति इतनी तीव्र नहीं होती कि वे एक. पुनः दोराह लें।


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पाठ्य पुस्तक के दो तत्व होते हैं। 
अ) आंतरिक तत्व          ब) बाह्य तत्व

आंतरिक तत्व :-

(ⅰ) पुस्तक की विषय सामग्री कक्षा स्तर के अनुकूल हो

(ⅱ) पाठ्यपुस्तक का निर्माण छात्रो की रुचि को केन्द्रित करके किया जाना चाहिए

(iii) पाठ्‌यपुस्तकें छात्रो की भावात्मक व मानसिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाली होनी चाहिए जैसे - प्राथमिक स्तर पर दैनिक व्यवहार, घर, विद्यालय, माता-पिता, परिवार, जानवर इत्यादि विषयो का सचित्र वर्णन होना चाहिए।

(iv) उच्च प्राथमिक स्तर पर कहानी, एकांकी, कविताएँ इत्यादि का वर्णन होना चाहिए । 

(V) रोचकता, उद्देश्यता, व्यवहारिकता होनी चाहिए

(Vi) मौलिकता एवं नैतिकता से युक्त

(vii) शीर्षक का उचित समावेश शीर्षक के अनुसार पाठ का निरुपण

(viii) समाज व राष्ट्र की आवश्यकता के अनुकूल
(ix) मनोवैज्ञानिक आवश्यकता के अनुकूल

(x ) पाठ्‌य‌पुस्तक की सामग्री बच्चों के परिवेश से जुड़ी हो

(Xi) भाषा बच्चों के परिवेश से मिलती जुलती तथा प्रभाव पूर्ण होनी चाहिए

(Xii) व्याख्या, अभ्यास व गृहकार्य के प्रश्न दिए हो। 


बाह्य तत्व :-

(i) नामकरण अच्छा होना चाहिए

(ii) सजिल्द

(iii) कवर रंगीन एवं सचित्र

(iv) स्पष्ट मुद्रण

(V) आकार मध्यम

(vi) कागज - उचित स्तर ( जल्दी फटे नहीं, जल्दी गले नहीं)

(vii) अक्षरों का आकार मध्यम

(viii) अनुक्रमणिका एवं सम्पादक का पूर्ण विवरण

(ix) मूल्य अंकित होना चाहिए (कम लागत होनी चाहिए)


विशेषताएँ:- पाठ्‌यपुस्तक साधन व साध्य दोनों है।

पाठ्‌यपुस्तक की सर्वप्रथम रचना- कौमेनियस 1657

केन्द्रीय शिक्षा बोर्ड की पाठ्‌यपुस्तक सलाहकार समिति का मानना है कि -" बिना पाठ्‌यपुस्तक के शिक्षा की व्यवस्था ठीक वैसी ही होगी जैसे बिना डेनमार्क के राजकुमार के हेमलेट की कल्पना" । 

पाठ्यपुस्तकों का महत्व -

  1. *आत्मविश्वास में वृद्धि
  2. *अध्ययन - अध्यापन का सेतु उचित मार्गदर्शन
  3. *ज्ञान के स्थायीकरण का कार्य
  4. *स्वाध्याय के विकास में सहायक
  5. *ज्ञान के साथ मनोरंजन का कार्य
  6. *भाषा तत्वों का ज्ञान
  7. *भाषायी कौशलों के विकास में सहायक
  8. *शब्द भण्डार में वृद्धि।


Monday, January 3, 2022

पुर्तगाली भाषा के शब्द






 एक पुर्तगाली

  तौलिया बाल्टी साबुन परात पतलून बोतल कनस्तर 

लेकर नहाने गया नहाने के बाद 

इस्पात के पीपा से अचार गोभी संतरा बिसकिट आलू अन्नानास पपीता काजू 

लेकर नास्ता किया फिर 

कमीज की बटन लगाकर आलपीन से फीता 

लगा कर मेज पर रखे गमले में

 पानी देकर नीलाम हो रहे कमरे की

 तरफ जाता है वहाँ से 

गोदाम जाकर कप्तान की अलमारी से 

मिस्त्री को चाबी  देता है। 


बोल्ड शब्द 2 3 बार ध्यान से पढ़े

फारसी भाषा के शब्द







एक 

ईरानी ईसाई उम्मेद दरगाह 

के पास 

पनाह 

लेकर 

अनार अमरूद गुलकंद जलेबी 

बेचता था

सुबह पैगम्बर को आईने  

में देखकर खुले 

आसमान 

के नीचे 

आसमानी करास्तानी 

की हुई 

खाकी

रंग की

 दर्जी से सिलवाई

हुई जेब में चाकू 

लेकर सीना 

तान कर नीम के नीचे ठेला लगाता था


बाजार में नाचीज नामर्द नाजायज बेहया बीमार 

लोग भी दर्जी के पास

 रफू कराने आते थे। 

एक दिन 

कमीना खुदगर्ज कल्ला गुलजार तमन्चा

लेकर बस में सवार होकर खून करने के 

बाबत खानदान को मिटाने आ गया

 उसकी मैयत पर राहगीर  और हिन्दी भाषी

लोग भी आये

 Bold शब्द 2 3 बार ध्यान से पढ़े। 

अरबी भाषा के शब्द

 










एक असली आशिक कमीज और ऐनक पहन कर फातिमा नामक एक इंसान से मुहब्बत करता था। 

उसके इश्क का अहसास अल्लाह और मीर को था

उसकी नजर और नीयत में ईबादत का इजहार था 

उसकी उल्फत मे करीब करीब खयाल रहता था। 

आशिक ने फ़ैसला किया कि महफ़िल में इजहार किया जाए। 

इस दौरान फातिहा जो फातिमा की बहन थी को उसकी खबर लग गयी

 उसने जिलेदार गरीब गालिब को गलत तरीके से खबर दी फातिमा को कुल्फी पसंद थी

यह मसला तहसील अदालत पहुचा और सियासी मसला बन गया इसमे सियासत होने लगी। 

मुकदमे में हलवाई इकबाल उमराव कबीर कसाई खलासी मुनीम मुमताज मुसलमान आदि हाजिर हुए। 

अदालत में कुरान रूपी किताब की कसम खा कर उसने अपना एलान कुबूल किया फातिमा के रमजान होने पर मना करने पर उसने औजार निकाल कर गुस्से में उसका क़त्ल कर दिया और उसका जनाजा जाहिल तरीके से बिगुल बजा कर तासीर कर दिया अब उसका जनाजा मुहर्रम की तरह मनाया जाता है। 




बोल्ड शब्द अरबी भाषा के शब्द है इन्हे 2 3 बार कहानी की तरह पढ़े। 



Saturday, August 29, 2020

वाद विवाद विधि तथा प्रश्नोत्तर विधि

वाद विवाद विधि :- 
बिना पूर्व तैयारी के कुछ कहना भाषण अर्थात व्याख्या करना, सम्यक अबबोध अर्थात ज्ञान प्रदर्शन, विमति अथवा विप्रलाप आदि क्रिया उस समय प्रचलित थी।

यह सभी क्रियाएं वाद विवाद  की प्रतीक हैं 

शास्त्रार्थ एवं संवाद इसी के उदाहरण हैं ।
जैसे गार्गी द्वारा किए गए प्रश्न ।
गुण:-  इससे छात्र में भाव प्रकाशन की शक्ति बढ़ती थी ।



प्रश्नोत्तर विधि:- 
प्राचीन काल में ओंकार शब्द के उच्चारण के बाद पाठ पढ़ाना आरंभ किया जाता था ।
व्याख्यान को प्रश्नोत्तर विधि से पढ़ाया करते थे।
प्रत्येक प्रश्न के पश्चात छात्र उनकी आवृत्ति करते थे ।
इस प्रकार संपूर्ण व्याख्यान समाप्त होता था ।
छात्र सक्रिय थे ।
स्व चिंतन तर्क एवं निरीक्षण शक्ति के विकास पर बल दिया जाता था।
इस विधि के प्रवर्तक सुकरात हैं।

व्याकरण शिक्षण विधियां

व्याकरण शिक्षण विधियां :-

व्याकरण शिक्षण को रोचक तथा आकर्षक बनाने के लिए विभिन्न विधियों का प्रयोग प्राचीन काल से ही किया जा रहा है।

इन विधियों की चर्चा दो प्रकार से की जाती है 

1 प्राचीन विधियां 2 नवीन विधियां।

 प्राचीन विधियां 

 1 सूत्र विधि :- इस विधि को पांडित्य विधि भी कहा जाता है ।

  • सूत्र विधि संस्कृत व्याकरण शिक्षण की प्राचीनतम विधि है । इसमें व्याकरण के नियमों को सूत्र के रूप में कंठस्थ कराया जाता है। 
  • कंठस्थ सूत्रों के आधार पर छात्र उस सूत्र के प्रयोग का ज्ञान प्राप्त करते थे।
  • सूत्रों का मुख्य उद्देश्य गागर में सागर था ।
  • इस विधि में संपूर्ण व्याकरण ज्ञान को छोटे-छोटे नियमों में बांध दिया जाता था।
  • इन छोटे-छोटे नियमों को ही सूत्र के नाम से पुकारा जाता है । इस विधि में छात्र सूत्रों को रट कर ही व्याकरण का सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त करता है।
  • रटने की प्रवृत्ति अधिक होने के कारण यह अमनोवैज्ञानिक विधि मानी जाती है 
  • यह विधि सामान्य से विशिष्ट की ओर शिक्षण सूत्र पर आधारित है।
  • संस्कृत व्याकरण शिक्षण की सर्वाधिक प्रयोग में आने वाली विधि है।
  • संस्कृत व्याकरण शिक्षण की यह सबसे प्राचीन विधि मानी जाती है।  इस विधि के प्रयोगकर्ता महर्षि पाणिनि है।

 सूत्र की परिभाषा :-  विद्वानों के अनुसार सूत्र के 6 लक्षण होते हैं ।

अल्पाक्षरं  - छोटे-छोटे अक्षरों का समूह ।

असंदिग्धं :-  संदेह से रहित ।

सारवद :- सारांश पूर्ण ।

विश्वतोमुखम :-  सदा सदा से चला आने वाला ।

अस्तोभं :-  अवरोध से रहित ।

अनुवद्यम :- निंदा से रहित ।

सूत्र के भेद :-  संस्कृत व्याकरण में प्रयुक्त होने वाले सूत्र छह प्रकार के माने जाते हैं ।

1 संज्ञा सूत्र 

2परिभाषा सूत्र 

3विधि सूत्र 

4नियम सूत्र 

5अतिदेश सूत्र तथा 

6 अधिकार सूत्र।


पारायण विधि :- 

  • बिना अर्थ समझे वैदिक मंत्रों का सस्वर पाठ पारायण कहलाता है ।
  • पारायण करते समय ब्रह्मचारी पूर्व दिशा की तरफ मुख करता है।
  • आचार्य पाणिनि के समय में पारायण विधि प्रचलित थी । यह विधि कण्ठस्थीकरण के ऊपर बल देती है।
  • पारायण करते समय बीच में कोई बातचीत नहीं होती ।
  • इस विधि में नियमों की आवृत्ति की जाती है ।
  • पारायण करने वाले छात्र पारायणिक कहलाते हैं।
  • यह पारायण अनेक प्रकार का होता है।
  • जैसे पंचक अध्ययन:- पाठ को 5 बार पढ़ना।
  • पंचवार अध्ययन:-  शब्दों को 5 बार पढ़ना।
  •  पंच रूप अध्ययन :- सभी को 5 बार पढ़ना या पांच तरीके से पढ़ना 
  • परीक्षा में एक अशुद्धि करने वाला छात्र :- एकनयिक ।
  • दो अशुद्धि  करने वाला छात्र द्वनयिक।
  • तीन अशुद्धि करने वाला छात्र त्रनयिक कहलाता है।
  • इस विधि से बालकों में रटने की प्रवृत्ति का विकास होता है । 
  • अतः यह विधि वर्तमान में व्याकरण शिक्षण के लिए उपयोगी नहीं मानी जाती है।

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Friday, August 28, 2020

NCF 2005


National Curriculum Framework 2005 (NCF 2005)

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 की रूपरेखा

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया मुख्य रूप से पाठ्यक्रम पर ही निर्भर करती है वास्तविक रूप से पाठ्यक्रम ही वह साधन है जो कि अध्यापक तथा विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करता है ।

पाठ्यक्रम का अर्थ :- करिकुलम शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के कोरियर(CURRERE) से हुई है जिसका अर्थ है दौड़ का मैदान।

पाठ्यक्रम दौड़ का मैदान है जिस पर बालक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दौड़ता है ।

कनिंघम के अनुसार :- कलाकार(शिक्षक) के हाथ में यह(पाठ्यक्रम)  एक साधन है जिससे वह पदार्थ(छात्र)  को अपने आदर्श(उद्देश्य) के अनुसार अपने स्टूडियो(विद्यालय) में चित्रित कर सके।

मुनरो के अनुसार :- पाठ्यचर्या में वे समस्त अनुभव निहित होते हैं जिनको विद्यालय द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उपयोग में लाया जाता है ।

पाठ्यक्रम छात्र एवं अध्यापक को जोड़ने वाली कड़ी है ।

माध्यमिक शिक्षा आयोग 1952-53 के अनुसार :- पाठ्यक्रम का अभिप्राय उन सैद्धांतिक विषयों से नहीं है जो विद्यालय में परंपरागत तरीके से पढ़ाए जाते हैं बल्कि इनमें अनुभवों का एक समूह है तो जिनको बालक कक्षा, पुस्तकालय ,प्रयोगशाला ,प्रार्थना सभा ,कार्यशाला ,खेल मैदान एवं छात्र अध्यापक के अनौपचारिक मेल मिलाप से प्राप्त करता है ।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 की आवश्यकता क्यों ....?

  1. नैतिक एवं मानवीय मूल्यों में वृद्धि करना ।
  2. कक्षा कक्ष शिक्षण को प्रभावशाली बनाने हेतु नवीन पाठ्यक्रम की आवश्यकता पर बल ।
  3. विद्यार्थियों की जरूरतों एवं रुचि को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम के निर्माण की आवश्यकता ।
  4. अध्यापकों की संतुष्टि के लिए पाठ्यक्रम निर्माण उनकी सहायता करना ।
  5. शैक्षिक लक्ष्यों की प्राप्ति ,शिक्षण विधियों में सुधार एवं विकास हेतु राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की आवश्यकता का होना।
  6. भाषा समस्या के निदान हेतु नवीन पाठ्यक्रम संरचना की आवश्यकता ।

  • प्रथम NCF 1975
  • द्वितीय NCF 1988 
  • तृतीय NCFSE  2000 
  • चतुर्थ NCF -2005।

 NCF 2005  रविंद्र नाथ टैगोर के निबंध सभ्यता और प्रगति के एक उद्धरण से प्रारंभ होता है :-

"  उदार आनंद एवं सृजनात्मकता बचपन की कुंजी है किंतु नासमझ वयस्क संसार द्वारा इनकी विकृति का खतरा है"

NPE 1986 (राष्ट्रीय शिक्षा नीति) :-  NPE1986 में इस बात पर बल दिया गया कि पाठ्यचर्या को भारतीय संविधान में वर्णित राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार करनी चाहिए।

POA 1992( प्रोग्राम ऑफ एक्शन 1992)  में प्रासंगिकता,गुणवत्ता, लचीलापन के तत्व पर बल देते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रावधानों का क्रियान्वयन किया गया।

 यशपाल समिति 1993 में "बिना बोझ के शिक्षा " LEARNING WITHOUT BURDEN " की सिफारिश की 

बिना बोझ की शिक्षा  - तनाव रहित शिक्षा।

निदेशक - प्रोफेसर कृष्ण कुमार ।

अध्यक्ष -  प्रोफेसर यशपाल ।

यह विद्यालय शिक्षा का अब तक का नवीनतम राष्ट्रीय दस्तावेज है।

Ncf-2005 के अंश/ भाग / अध्याय :- 

  • परिप्रेक्ष्य 
  • सीखने का ज्ञान 
  • पाठ्यचर्या के क्षेत्र स्कूल की अवस्थाएं एवं आकलन 
  • विद्यालय का कक्षा का वातावरण 
  • व्यवस्थागत सुधार

NCFSE  2000 की समीक्षा के लिए गठित यशपाल सिंह समिति के अलावा 21 फोकस समूहों का गठन किया गया 

NCERT  के 5 और क्षेत्रीय कार्यालय ,विभिन्न राज्यों की परीक्षा बोर्ड, शिक्षा सचिव ,शिक्षाविदों  तथा आम जनता के विस्तृत विचार विमर्श के बाद ncf-2005 को मंजूरी दी।

NCERT  1961 नई दिल्ली ।

SIERT  1978 उदयपुर ।

 DIET - NPE  1986 के प्रावधानों के तहत ।

NCERT  के 5 क्षेत्रीय कार्यालय ।

  1. अजमेर -राजस्थान 
  2. भोपाल- म प्र
  3. मैसूर कर्नाटक 
  4. भुवनेश्वर उड़ीसा
  5. शिलांग -मेघालय 

ncf-2005 का 22 भाषा में अनुवाद किया गया है तथा वर्तमान में यह 17 राज्यों में लागू है ।

ncf-2005 की संचालन समिति में 35 सदस्य हैं जिनमें राजस्थान की एकमात्र सदस्य रोहित धनखड़ हैं ।

ncf-2005 के तहत यह प्रावधान है कि बालक की प्राथमिक स्तर की शिक्षा स्थानीय भाषा अर्थात घरेलू भाषा में होनी चाहिए यदि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा या स्थानीय भाषा के शिक्षक उपलब्ध ना हो तो संविधान के अनुच्छेद 350 का के तहत स्थानीय शिक्षा अधिकारियों को बालक की भाषा विकास के लिए सुविधा उपलब्ध करवाना अनिवार्य है । राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में 5वी तक मातृभाषा में पढ़ाने के आदेश दिये हैं।

  • ncf-2005 के निदेशक तत्व विद्यालय का माहौल पाठ्यचर्या का हिस्सा हो।
  • पढ़ाई को रटंत प्रणाली से मुक्त किया जाए
  • छात्रों को चहुंमुखी विकास के अवसर दें ।
  • परीक्षा को कक्षा की गतिविधि से जोड़ दें ।(खुली किताब परीक्षा) 
  • प्रजातांत्रिक ढांचे को मजबूत बनाना ।
  • ncf-2005 चार महत्वपूर्ण विषयों के बारे में सुझाव देता है 

भाषा ,गणित ,सामान्य विज्ञान, सामाजिक विज्ञान ।

भाषा:-  त्रिभाषा सूत्र की संस्तुति (NPE 2020 में

  1. प्रथम भाषा :- राज्य/ राष्ट्रीय भाषा -हिंदी 
  2. द्वितीय भाषा :- अंतर्राष्ट्रीय भाषा -अंग्रेजी 
  3. तृतीय भाषा :- स्थानीय भाषा -संस्कृत, पंजाबी ,गुजराती, मारवाड़ी इत्यादि।

 सर्वप्रथम कोठारी आयोग 1964-66 ने सुझाव दिया शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो ।

  • अंग्रेजी पहली कक्षा से ही अनिवार्य हो।
  • बहुभाषिक प्रवीणता का विकास हो ।
  • भाषाई कौशलों का विकास हो ।
  • आरंभिक स्तर पर पढ़ने (READING) विशेष बल।
  •  गणित:- बालकों को अनुभव से गुथी हुई गणित पढ़ाना।
  • उनकी वैचारिक प्रक्रिया का गणितीकरण करना ।
  • बालकों में अमूर्तनों  की संकल्पना तथा तार्किक चिंतन का विकास।
  •  प्रत्येक विद्यालय में कंप्यूटर सॉफ्टवेयर, इंटरनेट आदि कनेक्टिविटी की ढांचागत सुविधा उपलब्ध कराना।
  • सामान्य विज्ञान:- बालकों को दैनिक जीवन के अनुभवों का विश्लेषण करने तथा उनकी सत्यता की जांच करने में सक्षम बनाना।
  • बाल विज्ञान कांग्रेस की तर्ज पर देश में एक सामाजिक आंदोलन चलाना ताकि अन्वेषण का माहौल पैदा हो सके।
  • बालकों को ज्ञान परियोजनाओं के माध्यम से देना चाहिए।

सामाजिक विज्ञान :-

  1. जेंडर के संबंध में न्याय।
  2. एससी एसटी के मामलों में जागरूकता तथा अल्पसंख्यकों के प्रति संवेदनशीलता ।
  3. ज्ञान के विशिष्ट क्षेत्रों की खोज उदाहरण के लिए पानी जैसे मुद्दों का समाकलन ।
  4. स्थानीय निकायों को मजबूत बनाना ।

NCF 2005- महत्वपूर्ण बातें:- 

  • आरंभिक स्तर पर अधिगम को कार्य तथा अनुभव से जोड़ना।
  • कला शिक्षा हर स्तर पर एक विषय के रूप में लागू हो जिसमें कला के चारों पहलू नृत्य नाटक संगीत दृश्य कला में शामिल हो ।
  • शांति के लिए शिक्षा को शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में शामिल करना।
  •  शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की अवधि बढ़ाना ताकि इंटरशिप के माध्यम से शिक्षा शास्त्र के सिद्धांतों को व्यवहारिक रूप दिया जा सके ।
  • स्थानीय स्तर पर विद्यालय के कैलेंडर को लचीला बनाना।
  • मानचित्रकरण द्वारा उन इलाकों की पहचान करना जहां पर छात्र स्थानीय दक्ष कारीगरों से प्रशिक्षण प्राप्त कर सके।
  • ncf-2005 निर्मित वाद की अवधारणा को मान्यता देता है जिसके अनुसार बालक सक्रिय होकर स्वयं ज्ञान का निर्माण करता है तथा शिक्षक सुविधा प्रदाता सहजकर्ता की भूमिका निभाता है।
  • ncf-2005 की मान्यता है कि परीक्षा ऐच्छिक हो तथा प्रश्न पत्र में कम से कम 25% से 40% तक प्रश्न वस्तुनिष्ठ हों। 
  • ncf-2005 का उद्देश आरंभिक पीढ़ी को धर्म,जाति,भाषा,लिंग,क्षेत्र अथवा शारीरिक क्षमताओं की चुनौतियों से रखते हुए शारीरिक व मानसिक प्रदान करते हुए शिक्षा उपलब्ध कराना है।
  • प्रोफेसर यशपाल सिंह के अनुसार विद्यालय स्तर पर विद्यार्थियों से प्रोजेक्ट वर्क करवाने पर बल दिया गया।


  1. ncf-2005 करके सीखने से संबंधित है ।
  2. ncf-2005 दो विशिष्ट सूत्रों का पालन करता है - ज्ञात से अज्ञात, मूर्त से अमूर्त।
  3.  ncf-2005 त्रिभाषा सूत्र का पालन करता है- हिंदी ,अंग्रेजी ,मातृभाषा ।
  4. ncf-2005 शिक्षा के क्षेत्र में क्रियात्मक अनुसंधान पर बल देता है ।
  5. ncf-2005 आत्मनिर्भर बनाने वाली जीवन उपयोगी शिक्षा पर बल देता है ।
  6. ncf-2005 के अनुसार पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए जिसमें आवश्यकता अनुसार परिवर्तन किया जा सके ।
  7. ncf-2005 कल्पनाशीलता तथा मौलिक लेखन कार्य को महत्वपूर्ण मानता है ।
  8. ncf-2005 के द्वारा समावेशी शिक्षा की अवधारणा प्रस्तुत की गई ।
  9. नवीन शिक्षण विधियों के प्रयोग पर बल 
  10. नवीन तकनीक के प्रयोग को मान्यता
  11. पाठ्य सहगामी क्रियाओं की अनिवार्यता 
  12. बाल केंद्रितता को महत्वपूर्ण स्थान
  13. छात्रों के सर्वांगीण विकास पर बल
  14. शिक्षा को व्यवसायोन्मुखी बनाने का प्रयास 
  15. मानसिक स्तर एवं योग्यता के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्धारण 
  16. परीक्षा प्रणाली में सुधार का आयोजन
  17. निरंतर व व्यापक मूल्यांकन (CCE) की व्यवस्था 
  18. पाठ्यचर्या में पर्यावरण शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान 
  19. स्वास्थ्य एवं शारीरिक शिक्षा को विद्यालय शिक्षा का अनिवार्य भाग बनाया जाए 

ncf-2005 के अनुसार पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत :- बाल केंद्रित पाठ्यक्रम 

  • उपयोगिता का सिद्धांत
  • लचीलापन का सिद्धांत 
  • क्रियाशीलता का सिद्धांत
  • क्रमबद्धता का सिद्धांत
  • व्यापक एवं संतुलन का सिद्धांत
  • विभिन्न विषयों से सहसंबंध का सिद्धांत 
  • विभिन्न स्तरों के अनुसार पाठ्यक्रम 
  • मनोवैज्ञानिसिद्धांतों के अनुरूप पाठ्यक्रम।


Wednesday, August 26, 2020

संस्कृत शिक्षण विधियां

शिक्षण विधि :- किसी भी कक्षा में पढ़ाते समय एक शिक्षक का पढ़ाने का जो तरीका होता है उसे शिक्षण विधि कहते हैं । शिक्षण विधि का क्षेत्र सीमित होता है यह केवल एक शिक्षक एवं एक कक्षा को ही प्रभावित करती है ।

शिक्षण प्रणाली :- एक विद्यालय सुबह से लेकर शाम तक जिस तरीके से संचालित होता है उसे शिक्षण प्रणाली कहते हैं, शिक्षण प्रणाली का क्षेत्र व्यापक होता है यह संपूर्ण विद्यालय को प्रभावित करता है ।

व्याकरण शिक्षण:- 

ऊद्देश्य:- भाषाज्ञानम्ं ।


सामान्य जानकारियां - 

व्याकरण शब्द वि + आँड् + कृ धातु + ल्युट प्रत्यय  के योग से बना है ।

व्याकृयंंते व्युत्पाद्य्ंते शब्दा: अनेन इति व्याकरणम।

अर्थात जिस शास्त्र के द्वारा शब्द की उत्पत्ति या रचना का ज्ञान करवाया जाता है उसे व्याकरण शास्त्र कहते हैं ।

प्रधानम् च षडअन्गेषु  व्याकरणम्।

वेद के 6 अंगों में व्याकरण को सबसे प्रधान अंग माना जाता है ।

मुखम् व्याकरणम् स्मृतम् ।

वेद के 6 अंगों में व्याकरण को वेद पुरुष के मुख अंग के रूप में स्वीकार किया जाता है ।

व्याकरण = मुखम।

ज्योतिष = चक्षु ।

निरुक्त = श्रोतुम (कान)।

कल्प:- हस्तौ (हाथ) 

शिक्षा :-  घ्राणम ( नाक)

छन्द :-  पादौ(पैर)।

महर्षि पतंजलि ने एवं किशोर दास बाजपेई ने व्याकरण को शब्दानुशासन कहकर पुकारा है ।

किशोरी दास बाजपेई ने व्याकरण को भाषा का भूगोल भी कह कर पुकारा है।

 डॉक्टर स्वीट महोदय के अनुसार भाषा का व्यवहारिक विश्लेषण व्याकरण है ।

व्याकरण को भाषा शिक्षण का सर्वश्रेष्ठ मार्ग भी कहा जाता है।

व्याकरण को भाषा का मेरुदंड भी कहा जाता है।

संस्कृत व्याकरण के अंतर्गत पाणिनी, वररुचि एवं पतंजलि व्याकरण शास्त्र के सर्वश्रेष्ठ विद्वान हुए माने जाते हैं।

इन तीनों को मुनित्रय के नाम से भी पुकारा जाता है।

इन तीनों में भी महर्षी पाणिनी सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण हुए हैं , उन्होंने व्याकरण के नियमों को अपनी अष्टाध्याई रचना में सूत्रों के नाम से प्रतिपादित किया है । पाणिनी ने वाक्य को ही भाषा की इकाई माना है।

महर्षि वररुचि ने पाणिनी द्वारा बनाए गए सूत्रों में संशोधन करते हुए लगभग 1500 वार्तिक लिखे हैं ।

पतंजलि ने पाणिनि के सूत्रों की सरल शब्दों में व्याख्या की इनके द्वारा बनाए गए नियम इष्ठि के नाम से एवं उनकी रचना महाभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है।

व्याकरण शास्त्र का उच्चारण में बहुत अधिक महत्व माना जाता है।

व्याकरण की प्रशंसा करते हुए एक पिता अपने पुत्र से कहता है  यद्यपि बहूनाधीषे  तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्  स्वजन: श्वजनो मा भूत सकलम् शकलं सकृच्छ्कृत ( सकृत + शकृत )।

बहुत से शास्त्रों का अध्ययन किए हुए पुत्र से पिता कह रहा है कि हे पुत्र तुमनेेेे बहुत शास्त्रों का अध्ययन कर लिया है फिर भी तुम व्याकरण को अवश्य पढो।

स्वजन = परिजन।

श्वजन = कुत्ता।

सकलम = संपूर्ण ।

शकलम = टुकड़ा ।

सक्रत= एक बार ।

शकृत =  गोबर।

व्याकरण शिक्षण की विशिष्टता:- 

बालकों को भाषा के नियमोंं का ज्ञान करवाना ।

बालकों को शब्दों एवं वाक्य रचना का ज्ञान करवाना ।

बालकों को शब्द रूप व धातु रूप का ज्ञान करवाना ।

बालकों में तर्क एवं चिंतन शक्ति का विकास करना ।

बालकों में भाषा के चारों मूलभूत कौशलों का क्रमबद्ध विकास करना ।

महर्षि पतंजलि ने व्याकरण के निम्नलिखित 5 प्रयोजन माने हैं ।

 रक्षोहगमल्घ्वसन्देहा:  

 रक्षा = वैदिक ज्ञान की रक्षा करना।

ऊह =  नवीन शब्दों की रचना।

आगम = पठन में निरंतरता।

लघु=  संक्षिप्तता ।

असन्देह =  शंका या संदेह का समाधान ।

व्याकरण शिक्षण की विधियां :-

व्याकरण शिक्षण के लिए अनेक प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जाता है ।

प्राचीन विधियां :- आगमन विधि ,

निगमन विधि ,

सूत्र विधि ,

पारायण विधि ,

भाषा संसर्ग विधि,

 वाद विवाद विधि ,

व्याख्या विधि ,

अर्वाचीन या नवीन विधियां :- आगमन निगमन विधि ।

समवाय या सहयोग विधि ।

पाठ्यपुस्तक विधि।

 अन्य विधि :- अनौपचारिक विधि या सैनिक विधि।


Tuesday, August 25, 2020

RTE 2009

RTE 2009


देश की आजादी के समय जब संविधान का निर्माण हुआ तो तीन प्रकार की कार्यसूची आधारित की गई थी।

 संघ सूची ,राज्य सूची ,समवर्ती सूची।

शिक्षा को राज्य सूची में विषय बनाया गया परंतु राज्यों के माध्यम से शिक्षा का प्रचार प्रसार ठीक से नहीं हो पाया तब 1976 ,42 वें संविधान संशोधन द्वारा शिक्षा को समवर्ती सूची में जोड़ा गया ।

12 दिसंबर 2002 में 86 वा संविधान संशोधन करवाया और शिक्षा को बालक का मौलिक अधिकार( स्वतंत्रता का अधिकार 19 से 22)  बना दिया।

 [अनु.18(क)] राज्य के 6 से 14 वर्ष के बच्चों को निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना (*86 वाँ संविधान संशोधन 2002)।

 इसके लिए संविधान में अनुच्छेद 21a सृजित हुआ ।अभिभावक एवं सरकार के लिए अनुच्छेद 51A के उपबंध में इसे कर्तव्य घोषित किया गया।

वर्तमान आरटीई 2009 के लिए राज्यसभा में 20 जुलाई 2009 को तथा लोकसभा में 4 अगस्त 2009 में विधेयक पारित किया गया ।

उसके बाद तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने 26 अगस्त 2009 को हस्ताक्षर किए।

 27 अगस्त 2009 को गजट नोटिफिकेशन जारी हुआ और 1 अप्रैल 2010 को आरटीई संपूर्ण देश में लागू हो गया (जम्मू कश्मीर को छोड़कर)।

 इसके लागू होने के साथ भारत विश्व के 135 उन देशों में शामिल हो गया जहां शिक्षा का अधिकार लागू है ।

1 अप्रैल 2010 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे जम्मू कश्मीर के अलावा संपूर्ण देश में लागू कर दिया।

आरटीई 2009 की धारा 38 का लाभ लेते हुए तत्कालीन राजस्थान सरकार ने 29 मार्च 2011 को सीएम गहलोत के नेतृत्व में उसमें संशोधन किया और 1 अप्रैल 2011 से राजस्थान में संशोधित आरटीई " निशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम 2011 "के नाम से लागू हुआ।

 महत्वपूर्ण बातें :- 

अनुच्छेद 21a मूल अधिकार ।

अनुच्छेद 51A k/11/ट  मूल कर्तव्य।

अनुच्छेद45 3 से 6 वर्ष के बालकों की शिक्षा आंगनवाड़ी शब्द फ्राबैल के किन्डर गार्डन से लिया गया है जिसका अर्थ है बच्चों की फुलवारी ।

आरटीई के अंतर्गत विकलांग बालकों हेतु आयु वर्ग 6 से 18 वर्ष माना गया है ।

20 जुलाई 2009 आरटीई राज्यसभा द्वारा पारित।

4 अगस्त 2009 लोकसभा द्वारा पारित ।

26 अगस्त 2009 राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने हस्ताक्षर किए ।

27 अगस्त 2009 गजट नोटिफिकेशन जारी ।

1 अप्रैल 2010 आरटीई संपूर्ण देश में लागू (जम्मू कश्मीर को छोड़कर )।

आरटीई 2009:-  कुल धारा 38, अध्याय 7 ,अनुसूची 1

RTE 2009  

अध्याय 07 

अध्याय 1  प्रारंभिक परिचय(धारा 1और 2) ।

 अध्याय 2 निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के प्रावधान (धारा 3 और 4 )।

अध्याय 3 समुचित सरकार स्थानीय निकाय तथा अभिभावकों के कर्तव्य वर्णित हैं(धारा 5 से 11) ।

अध्याय 4 विद्यालय तथा शिक्षकों के कर्तव्य वर्णित हैं (धारा 12 से 28 )। सबसे बड़ा अध्याय ।

अध्याय 5 प्रारंभिक शिक्षा का पाठ्यक्रम तथा उसको पूरा किए जाने से संबंधित प्रावधान (धारा29-30)।

अध्याय 6 बालकों के अधिकारों के संरक्षण से संबंधित प्रावधान( धारा 31-34) ।

अध्याय 7 अन्य मुद्दे(धारा 35 से 38) ।




RTE 2009 धाराएँ 

धारा 1 संक्षिप्त नाम एवं विस्तार :- निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा।

 धारा 2 आरटीई के अंतर्गत प्रयुक्त शब्दावली:- 

 प्रारंभिक शिक्षा

 बालक

 अन्वेषण प्रक्रिया 

वंचित वर्ग 

स्थानीय निकाय 

समुचित सरकार 

दुर्बल वर्ग ।

धारा 3 प्रारंभिक शिक्षा ।

धारा 4 ड्रॉपआउट ।

धारा 5 स्थानांतरण प्रमाण पत्र ।

धारा 6 विद्यालय स्थापना /दूरी ।( धारा (6)six school Fix)

धारा 7 वित्तीय अनुपात ( धारा 7 केंद्र राज्य साथ साथ)

धारा 8 समुचित सरकार के कर्तव्य ।

धारा 9 स्थानीय निकायों के कर्तव्य वर्णित है ।

धारा 10 अभिभावकों के कर्तव्य ।

धारा 11 आंगनवाड़ी केंद्र ।

धारा 12 25% आरक्षण ।(12×2=24+1=25)

धारा 13 अनुवीक्षण प्रक्रिया ।

धारा 14 प्रवेश के समय जन्म प्रमाण पत्र । {धारा 14 कब 14}

धारा 15 30 सितंबर तक प्रवेश ।{15×2=30}

धारा 16 कोई भी फेल नहीं होगा ।

17 बालक को शारीरिक और मानसिक रूप से दंडित नहीं किया जाएगा। (धारा 17 बच्चा मस्त रह )

धारा 16 व 17 को बालकों का स्वर्ग कहा गया है।

 धारा 18 बिना मान्यता विद्यालय चलाना प्रतिबंधित है उल्लंघन करने पर एक लाख का जुर्माना और निरंतर उल्लंघन करने पर प्रतिदिन 10000 ।

धारा 19 विद्यालय के जो मानक स्थापित हैं उन्हें 3 वर्ष पूरे करने होंगे ।

धारा 20 केंद्र सरकार अधिसूचना द्वारा किसी भी मानक में परिवर्तन कर सकेगी ।

धारा 21 एसएमसी  प्रत्येक विद्यालय में कम से कम 15 सदस्य विद्यालय प्रबंधन समिति का गठन अनिवार्य है 50% महिलाएं कम से कम ,75% अभिभावक , एससी एसटी के सदस्य छात्रों की संख्या के अनुपात में , 

बैठक:-  एसएमसी की साधारण सभा की बैठक हर 3 महीने में एक बार तथा कार्यकारिणी सभा की बैठक हर माह अमावस्या के दिन बैठक अनिवार्य है , गणपूर्ति 33.33% तथा एसएमसी का कार्यकाल 2 वर्ष का होता है । 

वर्तमान में एसएमसी में 16 सदस्य होते हैं ।

प्रधानाध्यापक सचिव होता है तथा अभिभावकों में से अध्यक्ष बनाया जाता है ।

धारा 22 एसडीपी कार्यालय अवधि 3 वर्ष  ।

धारा23 टेट ।

धारा 24 शिक्षकों के कर्तव्य :- 

  1. नियमित रूप से विद्यालय जाना ।
  2. तय सीमा में बालक को पाठ्यक्रम पूरा करना।
  3. बच्चों के लर्निंग रिकॉर्ड्स रखना ।
  4. अभिभावकों से संपर्क में रहना ।
  5. बाल केंद्रित विधि से पठन करवाना।
  6. अध्यापन की सफलता का निरीक्षण करना ।
  7. छात्र की सर्वोत्कृष्ट उन्नति के लिए उचित मार्ग निश्चित करना।

 धारा 25 विद्यार्थी शिक्षक अनुपात:-  निर्धारित समय में पूरा करना होगा ।(अनुसूची 1 में वर्णित ) 

धारा 26 आरटीई के तहत किसी विद्यालय में शिक्षकों के 10% से अधिक पद रिक्त नहीं रखे जाएंगे

 धारा 27 (30 में 3 कम इसलिए 3 काम )

 1. शिक्षकों को जनगणना कार्यक्रम 

2.आपदा राहत कार्य

3. स्थानीय निकायों के चुनाव कार्य में अतिरिक्त किसी भी अन्य कार्यों में सम्मिलित हेतु बाध्य नहीं किया जाएगा।

धारा 28 प्राइवेट ट्यूशन। (30 no आते ट्यूशन नहीं गया 2 no काट लिए )

धारा 29 प्रत्येक विद्यालय में CCE , पाठ्यक्रम का विकेंद्रीकरण किया जाए। यदि प्रारंभिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में कोई परिवर्तन किया गया है तो इसकी लिखित अधिसूचना समाचार पत्रों में प्रकाशित करवाई जाएगी तथा इन्हें प्रत्येक विद्यालय में पहुंचाया जाएगा ।

धारा 30 किसी विद्यार्थी को कक्षा 8 में बोर्ड एग्जाम में बैठने हेतु बाध्य नहीं किया जा सकता ।

धारा 31 बालकों के अधिकारों के संरक्षण हेतु एक बाल अधिकार संरक्षण आयोग का गठन किया जाएगा ।

धारा 32 इस आयोग के अंतर्गत अभिभावक संरक्षक विद्यालय प्रबंध के व्यक्ति समाज के कोई भी व्यक्ति लिखित शिकायत दर्ज करवा सकता है।

धारा 33 केंद्र सरकार को शिक्षा सलाहकार परिषद का गठन करता है 15 सदस्य अध्यक्षता प्रधानमंत्री यह प्रक्रिया 3 वर्ष में एक बार की जाती है।

धारा 34 राज्य सरकार से संबंधित राज्य सलाहकार परिषद का गठन 15 सदस्य  अध्यक्षता मुख्यमंत्री द्वारा की जाएगी ।

धारा 35 सरकार मार्गदर्शन सिद्धांत जारी करेगी।

धारा 36 धारा 13 ,18, 19 के दंडनीय अपराध के लिए अभियोजन मंजूरी।

धारा 37 SMC के खिलाप कोई वाद- विवाद  कार्यवाही सम्बन्धी प्रक्रिया।

धारा 38 सरकार चाहे तो अपने निजी हितों को ध्यान में रखते हुए कुछ संशोधन करवा सकती है (राजस्थान ने किया था) 

अनुसूची 1 

छात्र अनुपात शिक्षक :- 

कक्षा 1 से 5 तक छात्र    :      शिक्षक 

                    60 तक    :    2 ( दो शिक्षक अनिवार्य ) 

                    61 -90    :   3 

                   91 - 120  :   4

                   121 - 200  : 5

नोट :- छात्रों की संख्या 150 से अधिक होने पर एक प्रधानाध्यापक होगा , 200 से अधिक होने पर छात्र शिक्षक अनुपात 40 : 1 से अधिक नहीं हो सकता ।

प्रश्न:-  183 बच्चे हो तो छात्र अनुपात शिक्षक क्या होगा।

A.4       B.5        C.6         D.5+1 

प्रधानाध्यापक को शिक्षकों में शामिल नहीं किया जाता है

  कक्षा 6 से 8 

                  छात्र   :  शिक्षक 

                   35    :  1

छात्रों की संख्या 100 से अधिक होने पर एक प्रधानाध्यापक होगा तथा कम से कम शिक्षक निम्न में से प्रत्येक विषय का या प्रतिकक्षा होगा ।

1 भाषा  2  गणित व विज्ञान 3 सामाजिक विज्ञान।


 एक शैक्षणिक सत्र में न्यूनतम

                        कार्य दिवस               कार्य घन्टे

कक्षा 1 से 5        200                        800

कक्षा 6 से 8        220                       1000

प्रति सप्ताह 1 शिक्षक के न्यूनतम कार्य घंटे 45 होंगे जिनमें तैयारी के घंटे शामिल होंगे ।


विज्ञान शिक्षण विधियां पार्ट 1

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