Monday, August 10, 2020

सुनना कौशल

  भाषायी कौशल :- 




भाषायी कौशलों का विकास बच्चा सुनकर बोलकर पढ़कर लिखकर विचारों का आदान प्रदान करता है । यही भाषायी कौशल कहे जाते हैं ।

कौशल में प्रवीणता के लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है ।

बच्चे में अनुकरण की प्रवृत्ति होने के कारण वह कौशल का अनुकरण बड़ी तीव्रता से करता है ।

कौशल चार होते हैं ।

1 सुनना  

2 बोलना 

3 पढ़ना 

 4 लिखना  

फ्रबैल महोदय के अनुसार इनका क्रम---L~~~~>S~~~~>R~~~~>W  ।

जबकि साहचर्य विधि के प्रवर्तक महोदया मारिया मांटेसरी ने इनका क्रम ---सुनना~~~> बोलना~~~> लिखना---> व पढ़ना बताया है ।

इनके अनुसार बालक को लिखने से पहले पढ़ना सिखाना "मुद्रण पर भौकना" के समान है ।

सुनने से लिखने की तरफ कठिनता बढ़ती जाती है अर्थात सबसे सरल कौशल सुनना व सबसे कठिन कौशल लिखना है । 

सुनना कौशल :- सुनकर अर्थ ग्रहण करना।

बोलना कौशल:- बोलकर अभिव्यक्ति देना।

पढ़ना कौशल :- पढ़ कर अर्थ ग्रहण करना।

लिखना कौशल:- लिखकर अभिवक्ति देना।


सुनना और पढ़ना ग्र्ह्यात्मक कौशल तथा बोलना और लिखना अभिव्यंजना कौशल कहा जाता है।

पढ़ना और लिखना कौशल अनिवार्य कौशल कहलाते हैं।



 सुनना कौशल :-- सुनकर अर्थ ग्रहण करना ही श्रवण कौशल है।

इसे प्राथमिक कौशल कहते हैं क्योंकि इसका विकास सबसे पहले किया जाता है


 श्रवण  कौशल को आधार कौशल माना जाता है ।

श्रवण कौशल के उद्देश्य:--

1 सुनकर अर्थ ग्रहण करना 

2 सूरत सामग्री को मनोयोग पूर्वक सुनने की प्रेरणा

 3 सुनकर महत्वपूर्ण तथ्यों का चयन करना

 4 भक्ता के मनोभावों को समझने की निपुणता 

5  ध्यान पूर्वक सुनना

 6 उच्चारण को सुनकर शुद्ध उच्चारण का अनुकरण करना ।

 श्रवण कौशल शिक्षण की विधियां

 सस्वर वाचन

 प्रश्नोत्तर करना

 कहानी कहना व सुनाना 

श्रुतलेख 

भाषण 

वाद विवाद

 दृश्य श्रव्य सामग्री जैसे टेप रिकॉर्डर रेडियो चलचित्र दूरदर्शन आदि 

इसके लिए बालकों को अधिक से अधिक संवाद करने के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए 

उनको अंताक्षरी व वाद विवाद के लिए प्रेरित करना चाहिए 

इस कौशल का विकास परिवार जन समाज के लोग विद्यालय शिक्षक व मित्र मंडली के द्वारा होता है।

श्रवण कौशल के तत्व :-

सुनने वाले का मुख्य मंडल प्रसन्न होना चाहिए ।

मनोयोग पूर्वक ध्यान केंद्रित करके सुनना चाहिए।

 श्रोता की बैठने की सही स्थिति होनी चाहिए 

सुनते समय अन्य कोई काम नहीं करना चाहिए 

सुनने में शीघ्रता अनुचित है ।

सुनते समय किसी से वार्तालाप नहीं करना चाहिए।

 श्रोता में भाषा की ध्वनियों व शब्दों का ज्ञान होना चाहिए

 श्रोता में सुनने की तत्परता सुनने में उसकी रुचि होना आवश्यक है।

श्रवण कौशल में दोष के कारण

1 मौखिक कार्य का अभाव 

2 कक्षा में कठोर नियंत्रण 

3 पाठ्यवस्तु की कठिनता

 4 एक साथ दो काम

 5  श्रवण इंद्रियों का बाधिक  होना।




Sunday, August 9, 2020

पद्य शिक्षण विधियां Part 2

 पद्य शिक्षण विधियां Part 2 





1 खण्डान्वय विधि:- 

  • दूसरा नाम:-  प्रश्नोत्तर विधि 
  • प्रवर्तक :- सुकरात।
  •  अध्यापक पूरे पद्य( ऐतिहासिक महत्व की ) को छोटे-छोटे खंडों में विभक्त कर लेता है और इन खंडों की अलग-अलग व्याख्या करता है ।
  • फिर सभी खंडों को जोड़कर पूरे पद्य की व्याख्या करता है एवं अर्थ समझाता है ।
  • यह विधि अध्यापक केंद्रित है ।
  • उच्च प्राथमिक स्तर पर उपयोगी है।



2  व्यास विधि :-

  •  प्रवर्तक महर्षि वेदव्यास ।
  • व्यास विधि व्याख्या विधि का ही रूप है ।
  • भावात्मक पाठ के लिए सर्वश्रेष्ठ विधि है ।
  • इस विधि में अध्यापक पूरे पद्य को पूर्ण विस्तार के साथ अध्ययन करवाता है।
  •  अध्ययन के बीच बीच में उदाहरण दृष्टांत संबंधित बातें भी बताता है।
  •  छात्रों को इस विधि द्वारा रसानुभूति  होती है।
  •  यह विधि माध्यमिक व उच्च माध्यमिक कक्षाओं के लिए उपयुक्त मानी जाती है।
  •  इस विधि में समय अधिक लगता है अतः विद्यालय स्तर पर यह विधि उपयुक्त नहीं है।
  • अमनोवैज्ञानिक विधि है।



3  समीक्षा विधि :-


  • इससे विधि में छात्र स्वयं गुण दोष की समीक्षा करता है
  • अध्यापक केवल संदर्भ ग्रंथों की जानकारी देता है 
  • इस विधि में छात्र सक्रिय रहता है ।
  • यह विधि भी व्याख्या विधि का ही एक रूप है ।
  • यह पूर्ण विधि है जो व्याख्या विधि के बाद प्रयोग में लाई जाती है ।
  • मनोवैज्ञानिक विधि है।
  •  



4  तुलना विधि  :- 

समभाव वाली रचनाओं के द्वारा तुलना करके अध्ययन करवाया जाता है 

जैसे 1 कवि की अन्य रचना के साथ तुलना करना जिसमें लगभग मिलती-जुलती बात कही गई हो।

 2अन्य कवि की रचना से तुलना करना 

3 अन्य भाषा के कवि के साथ तुलना करना।

  •  यह विधि माध्यमिक व उच्च माध्यमिक स्तर पर उपयोगी है ।
  • इस विधि में रस अनुभूति होती है ।
  • इस विधि में सबसे ध्यान रखने वाली बात यह है कि अध्यापक को स्वाध्यायी व पारंगत होना चाहिए।
  • इस विधि द्वारा बालकों के ज्ञान व तर्क शक्ति में वृद्धि होती है। 


5 रसास्वादन विधि :- 

  • रसास्वादन विधि का प्रयोग कविता पाठ करने में किया जाता है ।
  • इस विधि का उद्देश्य बालकों को रस व आनंद की प्राप्ति करने में सक्षम बनाना है।
  •  यह विधि प्राथमिक स्तर पर उपयोगी है ।
  • मनोवैज्ञानिक विधि है।
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पद्य शिक्षण विधियां Part 1

 पद्य शिक्षण विधियाँ Part 1





परिभाषा :-

 आचार्य विश्वनाथ :-  रस पूर्ण वाक्य ही काव्य है ।

आचार्य जगन्नाथ :- सुंदर अर्थ बताने वाले शब्द ही पद्य हैं।

HW अर्डेन:- शब्दों से खेलना ही पद्य है ।




पद्य शिक्षण के उद्देश्य

1 अनुभूति 

2 सौंदर्य अनुभूति 

3 कल्पना शक्ति का विकास 

4 पूर्ण मनोयोग के साथ कविता सुनने के योग्य बनाना

 5 कविता के प्रति रुचि व प्रेम उत्पन्न करना

 6 कविता की विभिन्न शैलियों से परिचय करवाना 

7 छंद अलंकार रस आदि का ज्ञान देना 

8 छात्रों को अपने देश की संस्कृति धर्म दर्शन आदि की जानकारी देना। 

9 गति याति लय भाव अभिनय द्वारा श्लोक पढ़ने में दक्षता प्राप्त करना

10 छंद संबंधी ज्ञान प्राप्त करना

11 सर्जनात्मक शक्ति का विकास करना

12 उच्चारण ज्ञान में दक्षता प्राप्त करना


कविता शिक्षण में छात्रों में रुचि का विकास करने के साधन :- 

1 कविता का प्रभावशाली सस्वर वाचन करना 

2 कविता कंटेस्ट करके बच्चों को सुनाना

 3 विभिन्न उत्सवों पर कविता पाठ का आयोजन करना ।

4 अंत्याक्षरी प्रतियोगिता का आयोजन करवाना

 5 किसी विषय विशेष पर कविता पाठ करवाना ।

6 कविता पाठ प्रतियोगिता का आयोजन करवाना।



पद्य शिक्षण की विधियां:- 

1 अभिनय विधि :- 

यह पद्य शिक्षण की सर्वश्रेष्ठ विधि है क्योंकि इसमें अध्यापक अभिनय व गीत की सहायता से पद का शिक्षण करता है जिससे कक्षा में एक स्वस्थ वातावरण बनता है।

  •  इसमें बाल गीतों के साथ अभिनय करते हुए कविता का शिक्षण करवाया जाता है ।
  • इस विधि में  उद्दीपन कौशल का उपयोग किया जाता है ।
  • प्राथमिक स्तर के लिए उपयोगी है।
  •  इस विधि में रस अनुभूति होती है ।
  • अतः यह विधि बाल केंद्रित विधि तथा मनोवैज्ञानिक विधि है ।
  • इस विधि से स्थाई ज्ञान की प्राप्ति होती है।



2 गीत विधि :-

 कविता शिक्षण की सबसे उत्तम प्रणाली गीत विधि को माना गया है क्योंकि इस विधि में कविता में आने वाले उतार-चढ़ाव का ध्यान रखते हुए लय व ताल के साथ कविता का सस्वर वाचन करना है  ।

  • इस विधि में अध्यापक एक पंक्ति गाता है तथा बाद में विद्यार्थी उसका अनुकरण करते हैं ।
  • जैसे :- जॉनी जॉनी यस पापा ॰॰॰॰॰॰ इस कविता को याद कराना।


3 अर्थ बोध प्रणाली :-

  •  यह विधि गीत प्रणाली से एक स्तर आगे है।
  •  इस विधि में अध्यापक एक पंक्ति को स्वयं गाता है तथा विद्यार्थी उसका अनुकरण करते हैं बाद में वह उस पंक्ति का अर्थ विद्यार्थियों को समझाता है ।
  • इस विधि में गीत का प्रभाह बीच-बीच में रुक जाता है ।
  • इसमें कविता को गद्य की तरह पढ़ाया जाता है।
  •   सबसे नीरस विधि है अतः विद्यार्थियों की रुचि व तारतम्यता में बाधा आती है । यह विधि उच्च प्राथमिक स्तर पर उपयोगी है ।
  • यह एक अमनोवैज्ञानिक विधि है।


4 व्याख्यान विधि :- 

  • इसमें अध्यापक पद्य का वाचन करता है तथा शब्दश: बालकों को अर्थ समझाता है 
  • इस विधि में केवल अध्यापक ही सक्रिय रहता है ।
  •  यह विधि माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक स्तर पर उपयोगी है ।

व्याख्यान विधि के तीन चरण होते हैं 

1 प्रसंग :- इसमें कवि तथा कविता का परिचय दिया जाता है।

2 व्याख्या :-  इसमें कठिन निवारण किया जाता है 

प्रवचन द्वारा :- 

 विलोम शब्द पर्यायवाची द्वारा अर्थ बताया जाता है इसमे सीधा अर्थ नहीं बताया जाता है।

व्याख्या द्वारा :-

 दृष्टांत उदाहरण जिससे बालक अर्थ बता दें।

 व्याकरण द्वारा :-  

संधि समास उपसर्ग आदि के द्वारा अर्थ बताया जाता है ।

3 विषय:-  भाव विशेष छंद अलंकार इन के बारे में बताया जाता है ।

यह विधि अमनोवैज्ञानिक  विधि है।


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Friday, August 7, 2020

नाटक शिक्षण विधियां


 नाटक शिक्षण या एकांकी शिक्षण:-

  • एकांकी मे किसी एक घटना को लेकर नाटक का एक लघु रूप समाहित किया जाता है। नाटक में विभिन्न घटनाएं होती हैं। 
  • एकांकी मे कोई एक घटना या एक दो दृश्यों का नाटकीकरण होता है।
  • नाटक मे अभिनय तत्व पाया जाता है।
  • भरतमुनि के नाट्यशास्त्र मे अभिनय, अवस्था अनुकृति का रूप है।

  • नाटक शिक्षण के उद्देश्य :-
  • बालकों को अभिनय कला मे निपुण बनाना।
  • समाज तथा देश की परिस्तिथियों से अवगत कराना।
  • छात्रों को प्रभावशाली व शुद्ध वार्तालाप में दक्ष बनाना।
  • छात्रों मे भावानुसार , उचित लय गति व हाव भाव के साथ सस्वर वाचन की योग्यता विकसित करना
  • नाटक की तकनीकों से अवगत कराना।
Credit Unsplash






  • नाटक शिक्षण विधियां :- 
  • A अभिनय विधियाँ:- 
  • a) कक्षा अभिनय 
  • b) रंगमंच अभिनय 


  • 1) कक्षा अभिनय:- 
  • नाटक शिक्षण की सर्वश्रेष्ट विधि। व्यवहारिक विधि है।
  • छात्रों को कक्षा में ही पात्र बनाकर बिना साज सज्जा के संवाद व अभिनय करवाया जाता है।
  • अतिरिक्त व्यय नहीं होता।
  • समय कम लगता है।
  • छात्र स्वयं करके सीखता है 
  • मनोवैज्ञानिक विधि 


  • 2) रंगमंच विधि:- 
  • पूर्ण साज सज्जा के साथ मंच पर अभिनय कराया जाता है।यह विधि व्यवहारिक विधि नहीं है क्योंकि इसमे समय तथा श्रम दोनो ज्यादा लगते हैं।
  • खर्चीली विधि है।

  • B) व्याख्यान विधि :- 
  • अर्थ कथन विधि भी कहते हैं।
  • इसमे अध्यापक स्वयं छात्रों के सामने सस्वर वाचन करता है। तथा कठिन शब्दों के अर्थ को समझाते हुये व्याख्या करता है।

  • तीन चरण होते हैं :-- 

  • संदर्भ - नाटककार + नाटक परिचय 


  • व्याख्या - काठिन्य निवारण, विषय वस्तु की जानकारी, उदाहरण , नाट्य तत्वों की समीक्षा।


  • विशेष - मूल बात / सार 


  • अध्यापक सक्रिय रहता है।


  • छात्र मात्र श्रोता बनकर सुनते रहते हैं।

  • प्रभावकारी विधि नहीं है।

  • दोष :- अभिनय तत्व का अभाव ।

  • C) आदर्श नाट्य विधि:- 

  • इस विधि मे केवल अध्यापक द्वारा सभी पात्रों  का अभिनय किया जाता है।
  • इस विधि के लिये अध्यापक का अभिनय कला मे निपुण होना चाहिए।

  • D) समीक्षा विधि:
  • इस विधि मे नाटकीय तत्वों की समीक्षा की जाती है।
  • नाटकीय तत्व 7 होते हैं।
  • 1 कक्षा वस्तु 
  • 2 संवाद
  • 3 पात्र
  • 4 देशकाल
  • 5 भाषा शैली
  • 6 उद्देश्य 
  • 7 अभिनय।

  • दोष :- अभिनय तत्व का अभाव ( केवल जानकारी दी जाती है।)

  • E) संयुक्त विधि/ समवाय विधि/ समवेत विधि/ सहयोग विधि:-  नाटक की सभी विधियों का मिश्रण 
  • व्याख्या भी नाटकीयकरण भी नाटकीय तत्वो की समीक्षा भी तथा अभिनय तत्वों की जानकारी भी दी जाती है।

  • विद्यालय स्तर पर नाटक शिक्षण की सर्वश्रेष्ट विधि है।


  • अभिरुचि प्रश्न :- 

  • 1 नाटक शिक्षण की सर्वश्रेष्ट विधि है।
  • अ  व्याख्यान विधि 
  • ब रंगमंच विधि 
  • स समवाय विधि 
  • द अभिनय विधि।
  • उत्तर -रंगमंच



  • 2 विद्यालय स्तर पर नाटक शिक्षण की सर्वश्रेष्ट विधि है।
  • अ  समवाय विधि
  • ब रंगमंच विधि
  • स अभिनय विधि
  • द आदर्श विधि
  • उत्तर - समवाय विधि।


  • 3 आदर्श विधि मे अभिनय किया जाता है।
  • अ  अध्यापक द्वारा
  • ब अध्यापक व छात्र द्वारा
  • स छात्रों द्वारा 
  • द  बाहर से आने वाले विशेषज्ञ द्वारा।
  • उत्तर - अध्यापक द्वारा

  • 4 नाटक का प्राण तत्व किसे कहा गया है।
  • अ  अभिनय 
  • ब व्याख्या
  • स समीक्षा 
  • द पात्र
  • उत्तर - अभिनय

  • 5 उपन्यास व नाट्य मे किस तत्व का अन्तर होता है।
  • अ  अभिनय 
  • ब व्याख्या
  • स समीक्षा 
  • द भाषा शैली।
  • उत्तर - अभिनय

Tuesday, August 4, 2020

अर्थ कथन विधि


गद्य शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की गद् धातु से हुई है।
जिसका अर्थ होता है -स्पष्ट करना।
गद्य शिक्षण का उद्देश्य छात्रों मे पठन की योग्यता का विकास करना है।

आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने गद्य को " कवियों की कसौटी " कहा है।

साहित्य दर्पण के अनुसार वृत बंध हीन रचना ही गद्य है।

1 प्रस्तावना-- गद्य शिक्षण को प्रारंभ करने का प्रथम सोपान है।
इसे किसी वार्तालाप से प्रारंभ किया जाता है।
पाठ के उद्देश्य से परिचित कराया जाता है।

2 वाचन-- प्रस्तावना व ऊद्देश्य कथन के बाद अध्यापक उचित आरोह अवरोह का ध्यान रखते हुये शुद्ध उच्चारण सहित विरामादि चिह्नों को ध्यान मे रख कर प्रभावपूर्ण ढंग से आदर्श वाचन किया जाता है।

3 काठिन्य निवारण--
कठिन शब्दों का स्पष्टीकरण आवश्यक होता है।
इसके लिये निम्न प्रविधियाँ प्रयोग मे ली जाती हैं।
A चित्र दिखाना
B प्रतिमूर्ति दिखाकर
C मानचित्र दिखाकर
D प्रत्यक्ष पदार्थ दिखाकर
E संकेत द्वारा
F अभिनय द्वारा
G विलोम द्वारा
H सन्धि विच्छेद द्वारा
I समास विग्रह द्वारा
J व्याख्या द्वारा
आदि

4 विश्लेषण :- यह कार्य प्रश्नोत्तर के माध्यम से किया जाना चाहिए।
विचार विश्लेषण के बाद पुन: अध्यापक द्वारा आदर्श वाचन और छात्रों द्वारा सस्वर वाचन किया जाना चाहिए।


गद्य शिक्षण का महत्व :-
1 विचारानुभूति होना
2 मानसिक बौद्घिक विकास
3 सृजनात्मक क्षमता का विकास
4 व्याकरण का ज्ञान
5 उच्चारण की शिक्षा
6 शब्द भण्डार मे वृद्धि
7 गद्य की विभिन्न विधाओं का ज्ञान
8 भाषायी कौशल का ज्ञान।
9 छात्रों को मौन पठन मे दक्ष बनाना
10 बालकों मे स्वाध्याय की आदत का विकास करना
11 छात्रों मे कहानी को द्रुत गति से पढ़कर अर्थ समझने की क्षमता का विकास करना।


गद्य शिक्षण की विधियाँ
1 अर्थ कथन विधि:-
इस विधि मे कठिन शब्दों का अर्थ,वाचन के साथ बताया जाता है।
इसमे अध्यापक द्वारा गद्य का मौखिक पठन किया जाता है
जहां कही जरुरत होती है वहां पर स्पष्ट करने के लिये कथन भी करता है
अध्यापक अपनी ओर से सब कुछ बताता है। बच्चे निष्क्रिय श्रोता के रूप मे रहते हैं।

इस विधि मे छात्रों को सोचने समझने का अवसर नहीं मिलता।
इस कारण यह विधि अमनोवैज्ञानिक विधि है।
यह एक नीरस विधि है।

प्रत्यक्ष विधि Direct methods


प्रत्यक्ष विधि को सुगम विधि/ प्राकृतिक विधि / निर्बाध विधि भी कहते हैं।
प्रवर्तक - गुइन महोदय

प्रत्यक्ष विधि का अर्थ होता है-वस्तुओं को प्रत्यक्ष रूप मे दिखाना।
तात्पर्य यह है कि वस्तुओं व जीव जन्तुओं का चित्र अथवा प्रतिमान दिखा कर क्रियाओं को करके दिखाना।

प्राथमिक स्तर के लिए उपयोगी

17वी सदी मे जौह्न कमेनियस ने यह विचार रखा कि भाषा को व्यवहारिकता के आधार ओर पढ़ाया जाना चाहिए
इसलिए भण्डारकर विधि के स्थान पर किसी अन्य विधि की आवश्यकता सबसे पहले जौन कमैनियस ने महसूस की।


सबसे पहले इस विधि का प्रयोग 1901 मे फ्रांस मे अन्ग्रेजी भाषा के लिये किया गया।
भारत मे इसका प्रयोग 20 वीं शताब्दी के प्रथम दशक मे बंगाल मे श्री टिपिंग ने की।
मुंबई मे लाने वाले श्री फैजर थे।
मद्रास मे लाने वाले श्री येट्स थे।



इस विधि मे तीन बातों का ध्यान रखा जाता है।
1 मातृभाषा का प्रयोग वर्जित है।
2 मौखिक कार्य को प्रधानता दी जानी चाहिए
3 वस्तु ओर शब्द के मध्य सीमा सम्बंध स्थापित कर पढ़ाया जाता है।


इस पद्धति का मुख्य सिद्घांत यह है कि जिस प्रकार बालक अनुकरण द्वारा मातृभाषा सीख लेता है उसी प्रकार बालक श्रवण और अनुकरण द्वारा दूसरी भाषा भी सीख सकता है ।

इस विधि मे सीमित शब्दावली का ही ज्ञान दिया जाता है।
अनेक ऐसे शब्द होते है जिनकी व्याख्या नही हो सकती है। जैसे भाववाचक संज्ञा के उदाहरण।

श्रवण कर बोलना कौशल पर जोर दिया जाता है।
पढना और लिखना कौशल गौण हो जाते है।


जैसे अ से अनार
इ से इमली
उ से उल्लु
इनको चित्रो के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप मे दिखा कर पढाया जाता है।

अनुभूति और अभिव्यक्ति मे सीधा सम्बंध होना चाहिए ।

इस विधि मे उन्ही शब्दों का ज्ञान दिया जा सकता है जो मूर्त रूप म उपस्थित हों तथा उन्हे कक्षा कक्ष मे लाया जा सके।

इस विधि से लेखन तथा व्याकरण का ज्ञान रह जाता है ।
इस विधि मे वाक्य सरंचना का ज्ञान न्ही दिया जाता है।

इस विधि मे वार्तालाप मौखिक कार्य एवं बोलने पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है।

इस विधि मे अन्य भाषा को स्वतंत्र एवं पृथक भाषा के रूप मे पढ़ाया जाता है।

इस विधि मे सम्पूर्ण वाक्य को इकाई माना जाता है।

इस विधि मे अन्य भाषा के अध्ययन के समय अन्य भाषा मे ही आदेश निर्देश दिये जाते हैं।
उसी भाषा मे विचार अभिव्यक्ति की जाती है।


Sunday, August 2, 2020

रचना शिक्षण विधि

रचना शिक्षण विधि:- 


रचना शब्द का अर्थ - बनाना ,सजाना और क्रमबद्ध करके प्रस्तुत करना।
बालक जब बोलना- लिखना सीख जाता है, तो वह अपने भावों और विचारों को दूसरों के लिये सार्थक एवं प्रभावी ढंग से मौखिक या लिखित रूप से प्रकट करता है।
रचना भावों एवं विचारों की कलात्मक अभिव्यक्ति है।


रचना के दो प्रकार होते हैं।
1 मौखिक रचना 
2 लिखित रचना

रचना शिक्षण की विधियाँ 
A) चित्र वर्णन विधि:-- 
अध्यापक छात्रों के सामने कोई चित्र प्रस्तुत करता है तथा छात्रो को उस चित्र को देख कर वर्णन करने के लिये कहता है।
यदि छात्र मौखिक वर्णन करता है तो मौखिक रचना होती है।
लिखित रचना जैसे हाथी का चित्र दिखा कर हाथी पर पांच वाक्य लिखो

यह विधि प्राथमिक स्तर के लिये उपयोगी है।

B) शब्द प्रदान विधि :- 
इस विधि मे अध्यापक अपनी ओर से या छात्रों के सहयोग से शब्द श्यामपट्ट पर लिखता है तथा छात्रो को उस शब्द को या शब्दों को केंद्र मे रख कर रचना करने के लिये कहता है।
जैसे किसी कहानी की आउट लाईन दे कर पूरी कहानी लिखवाना ।

छात्र उन शब्दों को केंद्र मे रख कर लिखित या मौखिक रचना करता है।

सभी स्तरो के लिये उपयोगी है।

C) वाक्य प्रदान विधि/ रूपरेखा विधि:-
इस विधि के अन्तर्गत अध्यापक द्वारा वाक्य प्रदान किया जाता है।
छात्र उस वाक्य को केंद्र मे रख कर रचना करते है।
यह विधि उच्च प्राथमिक स्तर के लिये उपयोगी है।

D) अनुकरण विधि:- 
शिक्षक जैसे बोले वैसा ही नकल करना अनुकरण कहलाता है।
इस विधि मे बालक को प्रारंभ मे अक्षर ज्ञान कराया जाता है।
प्राथमिक स्तर के लिए उपयोगी इस स्तर पर लिखना व बोलना सिखाती है।
माध्यमिक स्तर पर रचना करने के लिये प्रयोग मे लायी जाती है।
इस विधि मे 3 प्रकार का अनुकरण होता है।

a) उच्चारण अनुकरण :- 
अध्यापक जैसा बोले वैसा ही बालक उसकी ध्वनियों का अनुकरण करे तो उसे उच्चारण अनुकरण कहते हैं।

b) लेखन अनुकरण :- 
शिक्षक के द्वारा लिखे हुये शब्दों का वैसा ही अनुकरण करना लेखन अनुकरण कहलाता है।

C) रचना अनुकरण/ प्रवचन विधि :- 
इस विधि मे शिक्षक बालकों के सामने एक रचना प्रस्तुत करता है और उसी रचना का अनुकरण कर एक नवीन रचना लिखने के लिये कहा जाता है।
इस अनुकरण मे भाषा तो बालक की होती है परंतु उसे शैली के लिये अध्यापक द्वारा बताई जाने वाली रचना पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
जैसे दिवाली पर निबंध बता कर होली पर लिखने के लिये कहना।

E) प्रश्नोत्तर विधि:- 
इस विधि मे शिक्षक प्रश्न पूछता है ओर बालक उसका उत्तर देता है।
यह विधि प्राथमिक स्तर के लिए उपयोगी है।

F) उद्बोधन विधि :- 
प्रश्नोत्तर विधि का ही विकसित रूप है
इसका उद्देश्य पाठ से सम्बंधित क्रमबद्ध और व्यवस्थित विचार उत्पन्न करना है।
इस विधि का उपयोग ऐतिहासिक,भौगोलिक आदि विषयों के लिये किया जाता है।

G) विषय प्रबोधन विधि:- 
यह विधि उच्च कक्षाओं मे नाटक और कहानी की रचना शिक्षण के लिये उपयोगी है।
इसके अन्तर्गत शिक्षक पहले सभी पहलुओं को प्रस्तुत करता है और समझाता है 
बालक प्रस्तुत पहलुओं को स्वयं के विवेक ,कल्पना , तर्क के आधार पर रचना करता है।

H) मन्त्रणा विधि :- 
इसे अध्ययन विधि/ प्रणाली भी कहा जाता है।
इसके अन्तर्गत विषय से सम्बंधित पुस्तकों,लेखों,पत्रिकाओं तथा अन्य संदर्भ ग्रंथ का अध्ययन बालक द्वारा स्वयं किया जाता है।

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विज्ञान शिक्षण विधियां पार्ट 1

  विषय वस्तु:-  विज्ञान क्या है..? विज्ञान की शिक्षण विधियां विज्ञान का अन्य विषयों के साथ संबंध शिक्षण के उपागम सहायक सामग्री का उपयोग मूल्...